script‘डायरेक्टर्स कट् इंटरव्यू… राकेश ओमप्रकाश मेहरा फिल्म ‘मिर्जिया’ | Interview: Rakeysh Omprakash Mehra | Patrika News

‘डायरेक्टर्स कट् इंटरव्यू… राकेश ओमप्रकाश मेहरा फिल्म ‘मिर्जिया’

Published: Aug 24, 2016 11:40:00 am

इंडस्ट्री को ‘रंग दे बसंती’ और ‘भाग मिल्खा भाग’ जैसी सक्सेज़ फिल्में देने का जिम्मा उठा चुके निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा बड़े चेहरों पर नहीं, बल्कि दमदार किरदार पर विश्वास रखते हैं

rakeysh-omprakash-mehra

rakeysh-omprakash-mehra

रोहित के. तिवारी/ मुंबई ब्यूरो

स्क्रिप्ट को मानता हूं बाईबल या गीता : राकेश ओमप्रकाश मेहरा
आज के राजस्थान पर पड़ती है मिर्जिया, साहिबा की गूंज : राकेश ओमप्रकाश
न्यू कमर्स के साथ काम करना आसान : राकेश
‘मरता नहीं इश्क ए मिर्जिया, सदियां साहिबा रहती है…’


इंडस्ट्री को ‘रंग दे बसंती’ और ‘भाग मिल्खा भाग’ जैसी सक्सेज़ फिल्में देने का जिम्मा उठा चुके निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा बड़े चेहरों पर नहीं, बल्कि दमदार किरदार पर विश्वास रखते हैं। इस बार उन्होंने ‘मिर्जिया’ जैसे एक लिजेंड्री सब्जेक्ट पर आधारित फिल्म को आज के जमाने से जोडऩे का भरसक प्रयास किया। इसी सिलसिले में उनसे हुई एक ‘खास’ मुलाकात में पर्दे के आगे और पीछे की कई बातें ‘पत्रिका’ से शेयर कीं, पेश हैं कुछ अहम बातें-

– फिल्मों में लंबे अंतराल का कारण क्या रहता है?
फिल्मों के लिखने के अलावा प्रोड्यूस और फिर उसक निर्देशन करता हूं। इस तरह से तीन काम करता हूं, जिसकी वजह से दो से पांच साल तक लग जाते हैं। शूटिंग स्क्रिप्ट को मैं बाईबल या गीता मानता हूं, उसके एक बार कम्प्लीट होने के बाद फिर उसमें कोई छेड़-छाड़ नहीं की जाती है। फिल्म से संबंधित सारा होमवर्क पूरा होने के बाद मैं प्रोड्यूसर से मिलता हूं। फिर बात बनती है तो फिल्म पर काम शुरू कर दिया जाता है।

– यह सब्जेक्ट जहन में कब आया और काम कब से शुरू हुआ?
इस सब्जेक्ट पर मैंने दिल्ली में कॉलेज में एक कल्चरल प्रोग्राम के दौरान सन् 1982 में एक प्ले देखा था। उसमें मिर्जिया का एक रुहानी रिश्ता दिखाया गया था और फिर जब जवानी में दोनों मिलते हैं तो साहिबा मिर्जिया के सारे तीर तोड़ देती है। फिर इसी पर वहां पर बहस होने लगा कि तीर तोड़े क्यों गए। बस यही बात मेरे दिल को छू गई। एक लिजेन्ड्री स्टोरी पर आधारित फिल्म में उस दौर की मिर्ज्या साहिबा की कहानी की गूंज आज के राजस्थान पर पड़ती है। फिर इसे लेकर 2011 में मैं राइटर गुलजार के पास गया तो मैं उनसे पूछा कि साहिबा ने तीन क्यों तोड़े थे, इस वे बोले की बच्चू यह तो तुम साहिबा से पूछो। उन्हें भी सब्जेक्ट बहुत पंसद आया और उन्होंने काम शुरू कर दिया। हम दोनों कहानी सुनाते-सुनाते एक काल्पनिक दुनिया में घुस जाते हैं। मरता नहीं इश्क ए मिर्जिया, सदियां साहिबा रहती है… में फिल्म का पूरा निचोड़ रहता है।

– फिल्म में बड़ा चेहरा लेने की कोई खास वजह?
मेरे हिसाब से चेहरा कोई बड़ा या छोटा नहीं होता है, किरदार बड़े या छोटे होते हैं। साथ ही न्यू कमर्स के साथ आप अपने हिसाब से और उनके रोल में सच्चाई लाने के लिए तरह-तरह से काम किया जा सकता है। इस तरह से किरदार में जमने वाले को ही साइन करना चाहिए। फिल्म के निर्देशन में और आप जो लोगों का बताना चाह रहे हैं, उसके पीछे चेहरा बड़ा होने की जरूरत मुझे नहीं लगती। बस किरदार में दम होना चाहिए…। इसके अलावा अगर मुझे पैसे ही कमाने होते तो शेयर मार्केट में ही चला जाता, लेकिन ऐसा नहीं है, मैं लोगों को कुछ नया बताने और दिखाने की कोशिश में ही रहता हूं, जिसमें मैं सफल भी हुआ हूं।

– इस लिजेंड्री सब्जेक्ट पर कितने और किस तरह के होमवर्क की जरूरत पड़ी?
हर फिल्म आपको कुछ समझा कर जाती है। इसमें मुझे तीन दुनिया को दिखाना था। इसमें जिप्सीज़ को दिखाया गया है, उनके रहने, खाने-पीने और बिल्कुल उनके जैसा ही दिखना ही एक बड़ा चैलेंज था। वहीं दूसरी तरफ संगीत बनाया और रचा गया। इसके लिए राजस्थान के एक फोग सिंगर मांमे खान को हायर किया गया, जो फुलिया से हैं। पंजाब से नूरा सिस्टर से गवाया गया। इसके अलावा इसमें एक आवाज पाकिस्तान से है। साथ ही बलूचिस्तान के खाान साहब अलावा इंडियन सिंगर शंकर को लिया गया। इस तरह से राजस्थान के सारंगी आदि बजाने वालों से संपर्क किया गया और आज के संगीतकारों से मिलकर इसकी तैयारियां पूरी की गईं। इस तरह से एक वर्ल्ड म्यूजि़क को तैयार किया गया। साथ ही घुड़ सवारी समेत तीरंदाजी भी बड़े उम्दा लेवल की दिखाई गई है। इसके हमने पोलैंड से एक तीर-कमान बनाने वालों को हायर किया गया। अलावा एक साइलेंट पन दर्शाया गया है, जो लोगों को बहुत पसंद आने वाला है।

– न्यू कमर्स के साथ एक्सपीरिएंस कैसा रहा?
सभी नए लोगों के साथ काम करने का एक्सपीरिएंस बहुत ही अच्छा रहा। इसमें कैमरामैन से लेकर कोरियोग्राफी तक सभी नए हैं। साथ ही हर्षवर्धन कपूर, सयामी खेर और अनुज चौधरी ने अपने-अपने रोल को निभाने के लिए कई तरह की ट्रेनिंग भी
कीं। अंजलि पाटिल, महाराष्ट्रियल एक्टर हैं और उन्होंने भी फिल्म में अपना शत-प्रतिशत दिया है। वैसे भी नए के साथ काम करने में काफी कुछ आसान हो जाता है, क्योंकि उन्हें जिस तरह से ट्रेंड किया जा सकता है, वैसा किसी मंझे हुए एक्अर के साथ करना थोड़ा मुश्किल होता है।

– कुछ यादगार लम्हें शेयर करना चाहेंगे?
मेरे लिए तो पूरी फिल्म ही यादगार है। साथ ही राजस्थान और लद्दाख से मेरा रुहानी रिश्ता है। दरअसल, राजस्थान में अपने पिताजी के साथ 6 साल से जा रहा हूं। इसके अलावा गुलजार के साथ का एक्सपीरिएंस यादगार रहा। साथ ही एक रियलिस्टिक फिल्म में हर छोटी से छोटी और बड़ी बात का ध्यान रखना बड़ा चैलेंज रहा। चाइना बॉर्डर पर पैंगॉन के आगे मनमरिख में एक माह तक काम करने का एक्सपीरिएंस यादगार रहने वाला है, क्योंकि वहां ऑक्सीजन भी बहुत कम थी और एक दिन तो रात को वहां पर लगाए गए टेंट भी उड़ गए थे, रात भर हम सब ठिठुरते रहे। इसके अलावा वहां पर आर्मी ने भी हमारी बहुत मदद की थी।

– फिल्म की यूएसपी क्या है और इससे आपको कितनी उम्मीदें हैं?
यूनिक सेलिंग प्रोपीजिशन का तो अंदाज ही बयां है। जैसे हर चीज को बोलने का एक अंदाज होता है। फस्र्ट इंडियन फिल्म म्यूजि़कल कहा जा सकता है, क्योंकि ऐसा इंडिया में पहली बार हो रहा है। इसमें वल्र्ड लेवल का संगीत पिरोया गया है। इसमें कहानी ही म्यूजि़क के साथ शुरू और बीच में व आखिर तक संगीतमय है। मुझे इससे काफी उम्मीदें हैं, क्योंकि मुझे लोगों का बहुत प्यार मिला है और इस तरह के कॉन्सेप्ट को ऑडियंस की बहुत सरहाना मिलने वाली है।

– आगे की प्लानिंग?
तीन से चार कहानियों पर लगातार काम चल रहा है। उनमें से एक है ‘राजा… राजा इन द लिजेंड ऑफ द फ्लूट’। यह फिल्म कृष्णा पर आधारित है। अगर अभी द्वारिका मिली है तो वह सच है, फिर कृष्णा भी सच ही होगा… तो चलों उनकी बांसुरी ही
ढूंढ़ते हैं। इसी के साथ कई तरह के यूनिवर्सल ट्रुथ भी उजागर होते हैं, उसे भी आज की कहानी की तरह की पेश किए जाने की प्लानिंग है। साथ ही एक कहानी मुंबई के स्लम पर है, जिसमें एक छह साल का बच्चा अपने मां के लिए ट्वॉयलेट बनाना चाहता है, क्योंकि स्लम्स में ट्वॉयलेट्स नहीं होते हैं। इसके अलावा कमलेश पांडेय के साथ किसानों की आत्महत्या पर आधारित कहानी पर काम चल रहा है। क्योंकि मोबाइल बनाने वाले से लेकर पानी बेचने की कंपनियां बहुत अमीर हैं, लेकिन जो हमारा पेट भरता है वह पैसों की कमी से जूझता हुआ आत्महत्या कर रहा है। इसके अलावा आज की एजुकेशन व्यवस्था पर भी मेरे जहन में काफी कुछ चल रहा है। शायद उसका नाम मैं ‘98.2’ ही रखूं। वाकई में सभी को मार्क्स लाने की ही जरूरत क्या है। आपमें अन्य और भी कई अन्य हुनर हो सकते हैं। इस तरह से एजुकेशन तो सभी के लिए होना चाहिए, जबकि मार्क्स जैसी बेवकूफी बिल्कुल हटा देनी चाहिए।

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो