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प्रत्यक्ष : रुष्ट

Published: Nov 04, 2015 04:43:00 am

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afjal

मैंजानता हूं कि अर्जुन के साथ तुम्हारे मन में भी कम मोह नहीं है अपने पितामह का। द्रुपद का स्वर कुछ कटु हो आया था, किंतु पुत्र! एक परामर्श मेरा भी है। अर्जुन को कहो कि उसे अपने पितामह का वध करने की आवश्यकता नहीं है।

मैंजानता हूं कि अर्जुन के साथ तुम्हारे मन में भी कम मोह नहीं है अपने पितामह का। द्रुपद का स्वर कुछ कटु हो आया था, किंतु पुत्र! एक परामर्श मेरा भी है। अर्जुन को कहो कि उसे अपने पितामह का वध करने की आवश्यकता नहीं है। 

वह केवल शिखंडी की रक्षा करे। शिखंडी भीष्म का वध कर देगा। हमारा आरोप यह है कि जब भी पांचालों ने भीष्म की ओर पग बढ़ाए, तब-तब सारे कौरव महारथी और अतिरथी भीष्म की रक्षा को दौड़े आए किंतु जब-जब भीष्म अथवा द्रौण के हाथों पांचालों, सोमकों, सृंजयों और प्रभद्रकों का संहार हुआ, पांडवों ने उनकी रक्षा का वैसा गंभीर प्रयत्न कभी नहीं किया। द्रुपद के इस खुले आरोप ने पांडवों को जैसे अवाक कर दिया। कोई कुछ नहीं बोला। 

अंतत: कृष्ण ने युधिष्ठिर की ओर देखा, क्या कहते हैं धर्मराज? क्षत्रियत्व को धिक्कार है, पर अब मैं भी भीष्म का वध चाहता हूं, क्योंकि उसके बिना हमें न्याय नहीं मिल सकता। युधिष्ठिर ने कहा, किंतु मैं चाहता हूं कि हम एक बार पितामह से भी इस संदर्भ में परामर्श ले ही लें। 

और यदि इस परामर्श से हमारी समस्या का समाधान न हुआ तो? धृष्टद्युम्न ने पूछा। तो जैसा श्रीकृष्ण कहेंगे, मैं करने को प्रस्तुत हूं। युधिष्ठिर ने कहा।

पितामह! दुर्योधन की मुद्रा यद्यपि विनीत ही थी किन्तु उसका स्वर स्वामी का अधिकार लिए हुए था। भीष्म ने पलटकर देखा, अब उनके लिए कुछ भी अप्रत्याशित नहीं था। वे जानते थे कि संध्या समय युद्ध रुक जाएगा। सेनाएं अपने-अपने स्कंधावार में लौट जाएंगी। 

सैनिक और सेनाधिकारी- महारथी से लेकर पदाति योद्धा तक, स्वयं को कल प्रात: युद्ध आरंभ होने तक मुक्त पाएगा। वह विश्राम करे, या कल के युद्ध की तैयारी- यह उसकी अपनी इच्छा थी। संभवत: संध्या का समय वह अपने मित्रों के साथ बैठ कर व्यतीत करना चाहे। जिनसे बहुत दिनों से भेंट नहीं की, उनसे मिलना चाहे। 

यह युद्ध भी विचित्र मेला है। दूर-दूर देशों से लोग आए हैं। राजा भी, योद्धा भी, सारथी भी, श्रमिक भी। अपने जिन मित्रों और परिचितों से लोग वर्षों से नहीं मिले हैं- वे सब यहां एकत्रित हुए हैं। संध्या समय लोग कई बार शत्रु पक्ष की ओर से लड़ रहे अपने मित्रों और संबंधियों से मिलने के लिए भी जाते हैं किंतु दुर्योधन आकर भीष्म के सम्मुख खड़ा हो जाता है- स्वामी के समान, राजा के समान, जो अपने सेनापति से इस बात का स्पष्टीकरण मांगता है कि आज का युद्ध उसकी अपेक्षानुसार क्यों नहीं लड़ा गया। 

युद्ध का परिणाम उसकी इच्छानुसार क्यों नहीं हुआ? आओ सुयोधन! पितामह! आज एक और दिन बीत गया है। मुझे भी ज्ञात है पुत्र।


लगा कि दुर्योधन जैसे धैर्य खो बैठेगा किंतु उसने स्वयं को संयत किया, आपको मालूम तो है पितामह और कदाचित् यह भी ज्ञात होगा कि सैनिक क्षति की दृष्टि से एक दिन के युद्ध का क्या महत्व होता है। सैनिक पांडवों के ही नहीं कटते, हमारे भी मारे जाते हैं। ऐसा तो कोई युद्ध है ही नहीं सुयोधन जिसमें क्षति एक ही पक्ष की हो। पितामह बोले, पांडव युद्ध करने आए हैं, अपनी सेना ध्वस्त करवाने नहीं।

निश्चय ही वे भी तुम्हारी सेना का संहार करेंगे ही। पर क्या तुम आज के युद्ध से असंतुष्ट हो? क्या सेनापति को उसकी त्रुटियां बताने आए हो? यह सेनापति राजा के सम्मुख अपनी असफलताओं का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करे? दुर्योधन से वृद्ध पितामह की खीज छिपी नहीं थी किंतु यह अवसर इन बातों के लिए नहीं था। बोला, पितामह! आप रुष्ट न हों।

मैं तो केवल यह कहने आया हूं कि युद्ध के नौ दिन व्यतीत हो गए हैं, असंख्य सैनिक मारे गए हैं; किंतु पांडवों के पक्ष का एक भी प्रमुख योद्धा खेत नहीं रहा। 

क्रमश: – नरेन्द्र कोहली
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