script#BHOPALGASTRAGEDY: रात क्या होती है, भोपाल से पूछो | story of wasim and hazira, victims of bhopal gas tragedy 1984 | Patrika News

#BHOPALGASTRAGEDY: रात क्या होती है, भोपाल से पूछो

locationभोपालPublished: Nov 30, 2016 06:34:00 pm

Submitted by:

rishi upadhyay

वैसे उस रात मौत ने अपने सारे पत्ते नहीं खोले थे, कुछ चालें अभी भी बाकीं थीं। 2 और 3 दिसम्बर की दरम्यानी रात वसीम और हाजिरा को लगा कि बस अब बहुत हुआ..लेकिन मौत से बचे तो जिंदगी पर रोना बाकी था।

gas tragedy

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भोपाल। “अच्छा! पड़ोस में शादी है, वहीं पे छौंक लगा होगा.. चलो, पानी से धो लेता हूं.. ठीक हो जाएगी। इस्लामपुरा में रहने वाले वसीम अहमद को बहुत देर से आंखों में जलन महसूस हो रही थी। वसीम कुछ ही देर पहले लिली टॉकीज से नाइट शो देखकर अपने घर लौटा था। ठंड का मौसम था और पड़ोस में ही शादी चल रही थी। वसीम को लगा, शायद लोगों के लिए खाना बनाते वक्त छौंक लगाया होगा, जिसकी मिर्च की वजह से आंखों में जलन हो रही है। लेकिन शायद वसीम नहीं जानता था कि आंखों की ये जलन अब कभी ठीक नहीं होगी। 

घड़ी में रात का 1 बज चुका था और वसीम अब बेसुध होने की स्थिति में थे। आसपास के लोगों की हालत भी खराब हो चुकी थी। वसीम इस वक्त एक ऐेसे दुश्मन की गिरफ्त में था, जो उनकी आंखों के सामने नहीं था और हर पल उन्हें मौत की ओर धकेलता जा रहा था। वसीम की समझ आ गया कि अब इस जगह को छोड़ना ही ठीक रहेगा।


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अपनी पूरी हिम्मत बटोर कर वसीम आंखें मलते हुए सड़क पर निकल आया। कभी चलता, कभी भागता तो कभी सड़क पर पड़ी किसी लाश से टकराकर गिर जाता। वसीम समझ नहीं पा रहा था कि आखिर हो क्या रहा है। जिस रास्ते पर वसीम चल पड़ा था, वो उन्हें सीधा शाहजहांनी पार्क ले गया। वसीम को उम्मीद थी कि वो बच जाएंगे, लेकिन ये उम्मीद यहां आकर टूटती हुई सी दिखाई थी। शाहजहांनी पार्क में लाशें ही लाशें पड़ीं हुईं थीं। वसीम की आंखों के सामने अंधेरा छा गया। 


अपनी टूटी उम्मीद पर घिसटते हुए मौत का इंतजार करते वसीम रेलवे स्टेशन जा पहुंचा। सामने एक ट्रेन खड़ी थी, गिरते पड़ते उसमें सवार हो गया। भोपाल से चली ये ट्रेन वसीम को होशंगाबाद छोड़कर चली गई। वसीम को होशंगाबाद में इलाज मिल गया और जान बच गई। ये वसीम की खुशकिस्मती थी जो उन्हें भोपाल से दूर ले गई, लेकिन हर शख्स इतना खुशकिस्मत नहीं था।



कोई तो बता दो, ये हो क्या रहा है
यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री के ठीक सामने बसे जेपी नगर में भगदड़ का माहौल था। कई लोग मर चुके थे, कई मरने की कगार पर थे। जो बच गए थे, वो इस मनहूस जगह से ज्यादा से ज्यादा दूर जाने की कोशिश कर रहे थे। भीड़ में हाजिरा बी अपने छोटे से बेटे को सीने से लगाए दौड़ी चली जा रहीं थीं। कुछ भी समझ न पाने की स्थिति में पहुंच चुकी हाजिरा सिर्फ भाग रही थी, आंखों की जलन और गले की तकलीफ को बर्दाश्त करते हुए गिरते पड़ते अपने घर और बस्ती से दूर निकल आईं।

मिचमिचाती आंखों से हाजिरा कभी अपने मासूम बेटे का चेहरे देखकर परेशान हो जातीं, तो कभी कांपते हाथों का सहारा लेकर खड़े होने की कोशिश करतीं। हाजिरा थक चुकी थी और एक जगह लड़खड़ाकर बैठ गईं। घर से बेसुध होकर निकली हाजिरा अब सोचने समझने की कोशिश कर रहीं थीं कि ये हो क्या रहा है। होश वापस आ ही रहे थे तभी अचानक ख्याल आया – हाय! बड़ा तो घर पर ही रह गया। अब हाजिरा मौत से भी बदतर महसूस कर रहीं थीं। 


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भागते, चीखते लोगों की भीड़ में हाजिरा ने वापस जाने की ठानी। होश जैसे तैसे वापस लौटे ही थे कि सिर पर जुनून सवार हो गया..बेटे को नहीं जाने दूंगी। लड़खड़ाते कदमों और अंधेरी रात में अपने बेटे को वापस लाने की जिद ठान चुकी हाजिरा वापस लौट रहीं थीं कि अचानक लगा पूरी जमीन घूम गई..आवाजें धीमी पड़नीं लगीं.. हाजिरा बेहोश हो गईं। 

कोई रो रहा था शायद.. गूंजती हुई रोने की आवाज हाजिरा के कानों से टकरा रही थी। आंख खुली तो कुछ उजाला हो चला था। हाजिरा ने जहां सोचना बंद किया था, आंखें पूरी भी नहीं खुलीं थीं कि दिमाग फिर वहीं था। झटके से खड़े हुई हाजिरा वापस उसी रास्ते पर दौड़ी, जहां से मौत ने उसे दौड़ाना शुरू किया था।


हांफती हुई हाजिरा अपने झोपड़े का सामने थीं। दिमाग सुन्न हो चुका था, हवास खो चुके थे, हाजिरा अंदर पहुंचीं..बेटा जमीन पर औंधे मुंह लेटा था। हाजिरा ठीक से देख नहीं पा रहीं थीं, सिर्फ महसूस कर सकतीं थीं। शरीर पर हाथ फेरा, तो समझ पाईं कि पेट नीचे है। बेटे को सीधा किया, मुंह पर हाथ फेरा। मुंह से निकल रहे गाढ़े झाग से हाथ सन गया। हाजिरा को जैसे मौत आ गई हो, हाजिरा पागलों की तरह चीखने लगीं। रोती बिलखतीं हाजिरा समझ नहीं पा रहीं थीं कि अब क्या करूं। किसी से पूछतीं भी, तो वहां था ही कौन बताने को।

उस रात मौत ने रुलाया, फिर जिंदगी रोता छोड़ गई
वैसे उस रात मौत ने भी अपने सारे पत्ते नहीं दिखाए थे, कुछ चालें अभी बाकीं थीं। बंद गले से ही चीखती चिल्लाती हाजिरा बी का हाथ जब बेटे की छाती से टकराया तो पता चला कि अभी सांस चल रही है। बेटा जिन्दा था, वो बात अलग है कि जब तक हाजिरा अपने बेटे के पास पहुंचती, उसकी नस नस में यूनियन कार्बाइड ने निकला जहर घुल चुका था। और जैसा कि हमने आपको बताया कि मौत ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले थे.. हाजिरा बी के उस बेटे को मौत ने आठ साल तक हर दिन मारा। फिर एक दिन वो अभागा इतना टूट गया कि इस खेल में उसने अपनी हार मान ली।
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