भोपाल। राजमाता विजयाराजे सिंधिया के अपमान को लेकर प्रदेश भाजपा आजकल आलोचकों के निशाने पर है। दरअसल, आपातकाल की यादों को लेकर पार्टी ने हाल ही में एक कार्यक्रम आयोजित किया। इसमें राजमाता की तस्वीर को नीचे एक कोने में रख दिया गया था, जबकि जयप्रकाश नारायण व अन्य नेताओं की तस्वीरें ऊपर थीं। पार्टी की आलोचना इसलिए हो रही है, क्योंकि राजमाता न सिर्फ भाजपा की संस्थापक सदस्य थीं, बल्कि आपातकाल के दौरान उन्होंने अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा तिहाड़ जेल में सामान्य कैदियों की तरह बिताया था।
स्वयं राजमाता ने आत्मकथा ‘राजपथ से लोकपथ’ पर में इस बारे में विस्तार से लिखा है। किताब का सत्रहवां अध्याय आपातकाल शीर्षक से है, जबकि अट्ठारहवां अध्याय ‘मैं सरकारी मेहमान’ और उन्नीसवां अध्याय ‘कैदी क्रमांक 2265’ के नाम से है। दरअसल, तिहाड़ में उन्हें यही नंबर दिया गया था। राजमाता के जेल में बिताए दिनों की हकीकत आप भी जानें…
3 सितंबर को ले जाया गया था तिहाड़ जेल
राजमाता ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि 3 सितंबर 1975 को जब उन्हें तिहाड़ जेल ले जाया गया, तो उन्हें एक कार्ड दिया गया, जिस पर तारीख के साथ अंकित था कि उन्हें आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न करने के कारण गिरफ्तार किया गया है।
यहां जयपुर की राजमाता गायत्री देवी उन्हें मिलीं। वे उन्हें देखकर चौंकी और कहा, आपको भी आखिर यहां ले ही आए। इसके आगे की पंक्तियों में वे कहती हैं, तिहाड़ धरती का नरककुंड है। जेल की पुरानी कचहरी वाला कमरा गायत्री देवी को दिया गया था। उससे लगकर बरामदा था। उसके इस पार वाले कमरे में मुझे रखा गया था।
शौचालय के नाम पर जमीन में एक सुराखभर
उन्होंने आत्मकथा में लिखा है कि हम दोनों (गायत्री देवी और वे) को एक ही शौचालय उपयोग में लाना पड़ता था। वहां नल नहीं था। जमीन में एक सुराखभर था, जिसमें जेल का स्वीपर दिन में दो बार आकर एक दो बाल्टी पानी डाल देता था। फिर भी हम उन महिलाओं की तुलना में खुद को भाग्यशाली समझ रहे थे, जिनकी कोठरियों में शौचालय ही नहीं थे।
शौचालय की हद पर लकड़ी का एक फट्टा था। फर्नीचर के नाम पर दो कुर्सियां और एक खटिया। बिजली के बल्ब का प्रकाश मोमबत्ती जैसा लगता था। जगह-जगह गंदगी का ढेर जमा था। भोजन के समय थाली पर भिनभिनाती मक्खियों को हाथ से उड़ाना पड़ता। दिन ढलता तो मक्खियां सो जातीं, मच्छर जाग उठते। आधी रात तक भी शोर बंद नहीं होता।
महिला कैदियों का होता था शोषण
राजमाता के मुताबिक दुनिया में कितना दुख और दैन्य भरा है, इसकी अनुभूति मुझे जेल में हुई। हर किसी की व्यथा कथा सुनकर कलेजा मुंंह को आ जाता। उन महिलाओं के जीने का न कोई अर्थ था, न जिंदगी का गंतव्य। वे सार्वजनिक उपयोग की एक वस्तु मात्र थीं। जेल में जब जिसका उन पर जी आ गया, उठा ले गया और अपनी काम पिपासा शांत कर पुन: उसी स्थान पर फेंककर चला गया। जब मैंने उनमें रुचि दिखाई, उन्हें बड़ा सहारा मिला। मैंने जेल में बच्चों को कपड़े, दवाइयां और खेल के सामान बांटे।
नजरबंद भी रहीं
तिहाड़ जेल लाने से पहले राजमाता को कई महीनों तक पचमढ़ी के बायसन लॉज में बनी अस्थायी जेल में रखा गया था। उन्हीं के शब्दों में ‘यहां मुझे ऐसे रखा गया था जैसे मैं चंबल के खूंखार डाकुओं में से एक हूं। बगल में कमरे में स्थायी रूप से पांच छह महिला पुलिस अधिकारी तैनात थीं। प्रवेश द्वारा और पिछवाड़े पर सशस्त्र बल का पहरा था जो दिनरात गश्त लगाते थे।’
नेपाल की सीमा तक पहुंचकर बदला था इरादा
आत्कथा के मुताबिक आपातकाल के दौरान जब राजमाता की गिरफ्तारी के प्रयास चल रहे थे और उन्हें छुपकर रहना पड़ रहा था, तब हालात से टूटकर उन्होंने नेपाल जाने का इरादा बना लिया था। 6 जुलाई 1975 को वे बाल आंग्रे और दीवान सुरेंद्रनाथ के साथ नेपाल के लिए रवाना हो गईं। लेकिन मन में सवाल उठ रहे थे। उनके शब्दों में…
‘बस केवल 40-50 कदम और चलना था। फिर पंछी मुक्तऔर पिंजरा खाली। पर मन धिक्कार रहा था। गौरवशाली इतिहास की रचना वाले सिंधिया की कुलवधु को यह शोभा नहीं देता। मैं ग्वालियर की महारानी रह चुकी थी और गणतंत्र भारत में उनकी प्रतिनिधि थी। वीर प्रजा की नेत्री कायरतापूर्वक आचरण करे, यह मुझे गवारा नहीं था। मैंने निश्चय कर लिया कि चोर की तरह नहीं भागूंगी। सचमुच कायरता से बड़ा कोई पाप नहीं।’