गायत्री हमें ज्ञान, प्रकाश और ऊर्जा की महासत्ता से जोड़ती है। वह हमें “भू:” से आरम्भ करके “भर्गो देव” की ओर ले जाती है और हमारी बुद्धि को त्रिगुण के भंवर से निकाल उस परमतžव की ओर प्रेरित करती है, जिससे लगातार अमृत वर्षा होती रहती है।
वैदिक विज्ञान के अनुसार हम जिस पृथ्वी पर रहते हैं वह एक सौर मंडल का भाग है। उसमें सूर्य, चन्द्र और अन्य ग्रह हैं। ऎसे अनेक सूर्य मंडल हैं। यह बहुत सारे सूर्य मिलकर जिस अभिजित तारे से शक्ति प्राप्त करते हैं वह ब्रह्मा है। सभी सूर्यो को साथ लिए ब्रह्मा जिस ज्ञानमय ज्योति वाले महासूर्य से शक्ति और प्रकाश पाता है वह है ज्योतिषांज्योति-सभी आकाशों को प्रकाश देने वाला। उसकी दिव्य ज्योति सारे ब्रह्मांड में फैली हुई है। इस सम्पूर्ण सृष्टि का नियन्ता होने के कारण उसे “ईश्वर” कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ को उसी से सत्ता, प्रकाश, ज्ञान और ऊर्जा मिलती है। वही परम आत्मा है। उस परम ज्योति की रश्मियां एक सूत्र से आकर हमारे शरीर में और ब्रह्मांड के कण-कण में ओत-प्रोत होती हैं।
गायत्री हमें ज्ञान, प्रकाश और ऊर्जा की महासत्ता से जोड़ती है। वह हमें “भू:” से आरम्भ करके “भर्गो देव” की ओर ले जाती है और हमारी बुद्धि को त्रिगुण के भंवर से निकाल कर उस परम तत्व की ओर प्रेरित करती है जिससे लगातार अमृत वर्षा होती रहती है।
ॐ
भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो
देवस्य धीमहि धियो योन:
प्रचोदयात्।
मंत्र का संपूर्ण भावार्थ “ॐ” : गायत्री का क्रम ॐ से आरम्भ होता है ॐ के ऋषि ब्रह्मा हैं। ॐ का अकार, उकार, मकारात्मक स्वरूप है। उसके अनुसार ॐ को सारी सृष्टि का मूल माना जाता है। ॐ से ही सारी सृष्टि का विकास होता है। यह एक स्वतन्त्र विषय है। यहां केवल गायत्री पर ही कुछ कहते हैं।
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भू:” सबसे पहले भू: शब्द आ रहा है, क्योंकि सामने वाली वस्तु को लांघ कर कोई नई बात नहीं कही जा सकती, सामने वाली चीज भू: से आरम्भ की जा रही है। वास्तविक आरम्भ भू: भुव: स्व: मह: जन: तप: सत्यम् से है। सत्यम् से भू: तक की स्थिति एक सूत्र से बंधी है किन्तु हमारी दृष्टि सत्यम् पर नहीं जा सकती। सामने की भू: को हम समझ सकते हैं इसलिए भू: से ही इसका आरम्भ करते हैं। दूसरी वैदिक रहस्य की बात है कि देवताओं की गणना में “अग्निर्वै देवानां अवम: विष्णु: परम:” यह कहा जाता है। सबसे पहले अग्नि है, सबके अन्त में तैतीसवें विष्णु हैं। अग्नि शब्द परोक्ष भाषा का है। यह अग्रि (अर्थात् सबसे पहला) था जिसे बाद में अग्नि कहने लग गए। अग्नि का सम्बंध भू: से ही है और इसी अग्नि की सारी व्याप्ति हो रही हैं इसलिए प्रथम दृष्टि भू: पर ही जानी चाहिए। भू: का निर्माण कैसे हो रहा है। पृथ्वी तो प†च महाभूतों में सबसे आखिरी महाभूत है।
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भुव:” पहले पंच महाभूतों का कहां किस रूप में क्या होता है जिससे पृथ्वी बन रही है-उसका सारा श्रेय भुव: को होता है। भुव: नाम का जो अन्तरिक्ष है वह सोममय समुद्र से भरा हुआ है, अनवरत सोम की वृष्टि वहां से पृथ्वी पर होती रहती है किन्तु स्मरण रहे कि अकेले सोम की वृष्टि नहीं है। भू: भुव: स्व: ये तीनों सूत्र जुडे हुए हैं। स्व: में आदित्य है। वहां अमृत और मृत्यु दोनों तžव मौजूद हैं।
अमृत और मृत्यु दोनों तत्वों को साथ लेकर आदित्य की गति बताई गई है। उसमें भी आदित्य का ऊर्ध्व भाग आदित्य मंडल है और वह आदित्य बारह मंडलों में विभक्त है। बारहवें मंडल पर विष्णु विराजमान है जो आदित्य मंडल का ऊपरी अर्घ भाग है उसकी विवेचना वेद में अमृत रूप में आई है। नीचे का अर्घ भाग जो पृथ्वी से जुड़ा आ रहा है वह मृत्युमय है।
मृत्यु में अमृत का आधान हो रहा है। इस तरह से अमृत मृत्यु दोनों से जुड़ा हुआ तत्व जो सोम रूप में बनकर पृथ्वी पर उतर रहा है उसके बीच में अन्तरिक्ष ही सारा समुद्र- घर बना हुआ है। इस अन्तरिक्ष में हमारी पृथ्वी के जैसे अनन्त लोक विराजमान हैं जो सूर्य की ज्योति से ढके रहते हैं और सूर्यास्त के बाद तारों के रूप में खिल पड़ते हैं। उन तारों के स्थान में बैठकर पृथ्वी को देखें तो यह पृथ्वी भी एक तारे की तरह चमकती दिखाई देगी।
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स्व:” भू: से चला हुआ अग्नि भुव: को पार करके स्व: में जा रहा है। स्व: को संस्कृत में स्वर्ग वाची बताया गया है। स्व: प्रत्यक्ष है, आदित्य से सम्बद्ध है जिसके एक दूसरे से बड़े 12 मंडल रूप विभाग हैं। इसका पौराणिक विवेचन जब देखते हैं तब इसका स्पष्टीकरण बहुत विशद् रूप में होता है। वहां कहा गया है कि सूर्य के साथ हजारों सर्प, हजारों पक्षिगण हजारों असुर, हजारों देवगण उदित हो रहे हैं। वे सिर्फ देखने के लिए उदित नहीं हो रहे हैं, बल्कि उन सबका क्रियामय कर्म चल रहा है। इधर अमृतभाव भी आ रहा है उधर विषभाव भी आ रहा है। सम्मिश्रित होकर पृथ्वी तक आ रहे हैं और यहां नीचे समुद्र में उनका मन्थन हो रहा है। मन्थन द्वारा जो किनारे पर पांक आ रहा है- वायु उसमें बन्द होकर बुंदबुंद, पांक-कीचड़ सिक्ता सूख कर पृथ्वी का रूप बनता चला जा रहा है।
गायत्री मन्त्र में कहा है
भू:, भुव: स्व:। स्व: से आगे के व्याह्वतियों के नाम क्यों नहीं ले रहे हैं। ये तो सात हैं, स्व: पर ही क्यों रूके हैं? इसलिए कि आगे के व्याह्वतियों के व्याह्वती के रूप में बोलने के लिए स्वरूप स्पष्टीकरण नहीं होता। व्याख्या जब तक नहीं आ जाए तब तक स्पष्ट नहीं हो सकता कि क्या मह: है, क्या तप: है, क्या सत्यम् है। सत्य बोलने से क्या समझ में आएगा, इसलिए गायत्री उन सबका परिचय दे रही है।
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तत्” तत् शब्द को सम्बंधपरक माना गया है। सम्बंध तो अनेक प्रकार के होते हैं। प†चमी विभक्ति से जुड़ा हुआ तस्मात् का भी तत् है। भू: भुव: स्व:, किसी तत् यानी स्व: से ऊपर का विचार हो रहा है। स्व: का निर्माण किससे हो रहा है। स्व: जितना भी है, वेद-विज्ञान के विचार के अनुसार जैसे हम हैं वैसे स्व: है। यहां पर जो अवधि सौ वर्ष की है वहां वही अवधि काल क्रम से हजार वर्ष की है। यद्यपि पुरूष मात्र शतायु होता है, देवता भी शतायु ही है किन्तु उनके सौ वर्ष हमारे हजार वर्ष होते हैं। स्व: की इस तरह की विवेचना पुराणों में खूब आती है लेकिन महाप्रलय में स्व: की भी समाप्ति तो हो ही जाती है। जन: नाम के परमेष्ठी मण्डल से स्व: का उदय हुआ, उसमें ही लीनभाव भी बताया गया। स्व: नाम का तžव भी लीन होगा, वह भी चिरस्थायी नहीं है।
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तत्सवितुर्वरेण्यं” उससे ऊपर सविता है। सूर्य को जो सविता नाम दिया जाता है वह प्रतिबिम्बात्मक रूप में ही दिया जाता है क्योंकि सविता नाम वैदिक परिभाषा के क्रम में परमेष्ठी मंडल के पांच उपग्रहों में गिनाया गया है। शतपथ ब्राह्मण में एक ग्रह अतिग्रहभाव की विवेचना आई है, ग्रह-उपग्रह (अतिग्रह)। ग्रह कहते हैं प्रधान को, उपग्रह कहते हैं गौण को। तो वहां पर सत्यलोक से चली हुई जो ज्ञानमयी शक्ति है उस ज्ञानमयी धारा का परमेष्ठी मण्डल की सोममयी धारा से सम्मिश्रण होता है और यह सम्मिश्रण युगलतžव में जुड़ करके अद्वैत भाव ले लेता है।