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निर्बन्ध : असह्य

वह उससे उसका राज्य भी छीन लेगा पर दुर्योधन उसे छीनने देगा, तब तो। वह उसे उस दिन के लिए जीवित ही नहीं रहने देगा। और तब दुर्योधन ने उसे विषाक्त मोदक खिलाकर अचेत कर दिया था। 

Dec 01, 2015 / 01:31 am

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वह उससे उसका राज्य भी छीन लेगा पर दुर्योधन उसे छीनने देगा, तब तो। वह उसे उस दिन के लिए जीवित ही नहीं रहने देगा। और तब दुर्योधन ने उसे विषाक्त मोदक खिलाकर अचेत कर दिया था। 

चेतनाहीन भीम को रस्सियों से भलीभांति बांधकर गंगा की धारा में फेंक दिया था। विष से नहीं मरेगा तो गंगा में डूबकर मर जाएगा। डूबकर नहीं मरता तो विषधरों के दंश से मर जाएगा। उसके शव को ठिकाने लगाने की भी आवश्यकता नहीं थी। वह तो गंगा में बह ही गया था।

जिस किसी ने उसे समझाने का प्रयत्न किया, दुर्योधन ने यही माना कि वह उसका शत्रु था। वह नहीं चाहता था कि दुर्योधन के मार्ग के कांटे हटें। वे उसे हत्या कहते थे किन्तु दुर्योधन उसे राजनीति कहता था। युद्ध में भी तो इतने लोग मारे जाते हैं। 

किसलिए? राज्य के लिए, सत्ता के लिए, धन के लिए, भोग के लिए। तो वह भीम की हत्या क्यों नहीं कर सकता? मां ने उसे समझाया था कि युद्ध की बात और होती है। वहां हम शत्रुओं को चुनौती देते हैं, शस्त्र देते हैं और क्षत्रियों के समान आमने-सामने लड़ते हैं। 

नियम ही ऐसा था किन्तु दुर्योधन को नियमों की चिंता नहीं थी। उसे अपना लक्ष्य प्राप्त करना था, जैसे भी हो। कभी तनिक-सा चिन्तित भी हुआ तो मातुल ने समझा दिया कि नियम कायरों के लिए होते हैं। वीर लोग अपने नियमों का निर्माण स्वयं करते हैं।

भीम मृत्यु के मुख से बचकर हस्तिनापुर लौट आया था। आचार्य द्रोण की शिक्षा से अर्जुन धनुर्धारी हो गया था। रंगशाला में आचार्य द्रोण ने अपने शिष्यों के कौशल का प्रदर्शन किया तो अर्जुन ने बहुत प्रशंसा पाई थी और पांडव बहुत शक्तिशाली होते प्रतीत हुए थे दुर्योधन को। 

उसने उनके सम्मुख कर्ण को खड़ा कर दिया था। कर्ण से अर्जुन का द्वंद्वयुद्ध हो जाता तो कर्ण कदाचित् दुर्योधन के उस शत्रु को सदा के लिए समाप्त कर देता पर कृपाचार्य ने उसकी इच्छा पूरी नहीं होने दी। उन्होंने द्वंद्वयुद्ध ही नहीं होने दिया। 

द्वंद्वयुद्ध तो नहीं हुआ किन्तु कृपाचार्य और भीम की उक्तियों ने कर्ण को सदा के लिए दुर्योधन की झोली में अवश्य डाल दिया। दुर्योधन ने कर्ण का आवृत व्रण देख लिया था। वह उसकी महत्त्वाकांक्षा को भी समझ गया था। न कर्ण किसी की श्रेष्ठता स्वीकार कर सकता था और न दुर्योधन। वे अच्छे मित्र थे और आगे भी रह सकते थे। 

 दुर्योधन को सत्ता चाहिए थी और कर्ण को सत्ता की कृपा, सान्निध्य और सम्मान। दुर्योधन उसकी प्रशंसा करता रहेगा और कर्ण आजीवन उसके लिए लड़ता रहेगा। कृष्ण ने कंस को मार कर मथुरा पर आधिपत्य जमा लिया था। 

यादव लोग शक्तिशाली हो गए थे और एक दिन पांडवों के मातुल के रूप में अक्रूर हस्तिनापुर आया। परिणाम यह हुआ कि युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का युवराज बना दिया गया। धृतराष्ट्र ने उसे और उसके भाइयों को द्रुपद के साथ होने वाले युद्ध में झोंक दिया था। 

पर पांडव उसमें विजयी हो आए थे। अब युधिष्ठिर को युवराज पद से नहीं हटाया जा सकता था। वह दुर्योधन का राज्य छीन कर ही रहेगा। दुर्योधन के लिए यह असह्य था। वह इसको स्वीकार नहीं कर सकता था। न वह धर्म को मानना चाहता था, न शास्त्र को। न परम्परा को न कुल वृद्धों के आदेश को। 

क्रमश: – नरेन्द्र कोहली

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