सिहोरा से 20 किलोमीटर दूर हिरन नदी के तट पर बसे ग्राम कूम्ही सतधारा में 10 दिवसीय मेले की शुरुआत शनिवार को हुई।
जबलपुर। सिहोरा से 20 किलोमीटर दूर हिरन नदी के तट पर बसे ग्राम कूम्ही सतधारा में 10 दिवसीय मेले की शुरुआत शनिवार को हुई। जिले में तीसरा स्थान रखने वाला कूम्ही मेला पूरे क्षेत्र में विख्यात है। इसका इतिहास भी करीब 3 सौ वर्ष पुराना है। एक समय यह मेला लकड़ी और लोहे से बनी धातुओं के लिए जाना जाता था।
30 एकड़ क्षेत्र में मेला
सतधारा मेला 30 एकड़ के क्षेत्र में लगता है। जिसमें मनिहारी सामान, लकड़ी, पत्थर, खाने-पीने की वस्तुएं की दुकानें लगाई जाती हैं। एक समय मेले में लकड़ी और लोहे से बनी कलात्मक वस्तुओं के लिए इसकी ख्याति पूरे प्रदेश में थीं।
दूध के समान फूटी धाराएं
जानकार बताते हैं कि 3 सौ वर्ष पूर्व सप्त ऋषि ने यहां तपस्या की थी। तपस्या के दौरान हिरन नदी का वेग थम गया और उन्होंने सप्त ऋषि से कहा कि मैं मानव कल्याण के लिए निकली निकली हूं। कृपया मुझे मार्ग प्रदान करें। सप्त ऋषि के कहा कि मैं अपनी तपस्या बीच में नहीं छोड़ सकता। तब हिरन ने अपने वेग को सात धाराओं में विभक्त कर रास्ता बनाकर आगे बढ़ीं। सात धाराएं विभक्त होकर दूध के समान प्रवाहित होने लगी। इसी से इसका नाम ‘सतधारा’ पड़ा। पास ही कूम्ही ग्राम बसा है, जिससे इसका नाम कूम्ही सतधारा पड़ गया। मकर संक्रांति के दिन तड़के ये धाराएं आज भी दिखाई देती हैं। इसका दर्शन पुण्य फलदायी माना जाता है।
ढाई सौ वर्ष पुराना शिव मंदिर
रानी दुर्गावती के कार्यभारी गंगागिरी गोसाईं तट पर भगवान शंकर के शिवलिंग का बनाकर पूजा करते थे। एक दिन मिट्टी से बना शिवलिंग पत्थर का बन गया। जिसकी स्थापना शिव मंदिर में की गई। यह मंदिर करीब 250 वर्ष पुराना है। अंग्रेजों से मुकाबला करते वक्त वह वीरगति को प्राप्त हो गए। जिनकी समाधि मंदिर के बाजू में स्थापित है। इस बात का उल्लेख तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर हीरालाल ने जबलपुर जिले के इतिहास में किया है, तभी से यहां मेले की शुरुआत हो गई।
अष्टधातु की प्राचीन प्रतिमा
करीब 60 वर्ष पहले श्री नीलकंठ स्वामी मैहर (रामपुर) से कूम्ही आए। जहां उन्होंने आश्रम में अष्टधातु से निर्मित मदन मोहन भगवान, श्रीगणेश की प्रतिमा की स्थापना मंदिर में कराई। मंदिर में द्वारिकाधीश भगवान की प्रतिमा स्थापना की उनकी इच्छा थी, लेकिन इसके पूर्व उन्होंने समाधि ले ली। नीलकंठ स्वामी की प्रतिमा आज भी आश्रम में है।
ब्रिटिश शासन लोकल बोर्ड आयोजक
वैसे तो मेला का इतिहास तीन सौ वर्ष पुराना है, कुछ समय तक पंचायत मेले का आयोजन कराती रही। 1932 में ब्रिटिश शासन लोकल बोर्ड इसका आयोजन कराने लगा। बाद में जनपद पंचायत प्रशासन के इसकी मुख्य आयोजक संस्था बन गई। जो हर वर्ष मेले का आयोजन कराने लगी है।