यह एक शिष्य अपने गुरु से वर मांग रहा था अथवा एक मदांध राजा बिना सोचे-समझे, अपने अधीनस्थ कर्मचारी को आदेश दे रहा था? और सहसा द्रोण के भीतर का सेनापति जागा… ऐसे युद्ध कैसे हो सकता है।
यह एक शिष्य अपने गुरु से वर मांग रहा था अथवा एक मदांध राजा बिना सोचे-समझे, अपने अधीनस्थ कर्मचारी को आदेश दे रहा था? और सहसा द्रोण के भीतर का सेनापति जागा… ऐसे युद्ध कैसे हो सकता है।
यदि राजा सेनापति के कार्यों में, उसके व्यूहों में, उसकी रणनीति में, इस प्रकार बिना सोचे-समझे हस्तक्षेप करता रहेगा, तो युद्ध के परिणाम का दायित्व सेनापति पर कैसे हो सकता है? पर दुर्योधन इस समय न तो क्षीव था, न मदोन्मत्त, न मदोद्धत।
वह युद्ध की विधि से इतना अनभिज्ञ भी नहीं था कि इतने-सी बात न समझता हो कि किसी का वध करने और उसे जीवित पकड़ने में कितना अंतर है। युधिष्ठिर का वध करने में क्या कठिनाई है। किसी भी उपयुक्त अवसर पर एक बाण से युधिष्ठिर धराशायी हो जाएगा।
न तो वह अर्जुन के समान धनुर्धारी है कि वह शत्रुओं की बाण वर्षा का निराकरण कर लेगा और न ही उसके पास दिव्यास्त्र और देवास्त्र ही हैं जिनसे वह अपनी रक्षा कर लेगा। किंतु उसको जीवित पकड़ने के लिए उसके निकट जाना होगा। युधिष्ठिर की रक्षा के लिए पांडवों का सारा बल लगा होगा। उस प्रयत्न में कितने कौरव सैनिक मारे जाएंगे। क्या दुर्योधन यह समझता नहीं?
इन क्षत्रिय राजाओं के साथ यही तो कठिनाई है। सामथ्र्य है नहीं और इच्छाएं आकाश को छू रही हैं। यह दुर्योधन महाराज अपने शैशव से ही अपने शत्रुओं के विरुद्ध एक भी युद्ध जीत नहीं पाया और आदेश इस प्रकार देता है, जैसे ब्रह्मांड उसी के आदेश से परिचालित होता है। इधर इसकी इच्छा हुई और उधर सृष्टि ने अपना क्रम बदला।
अपने उसी अहंकार में इस मूर्ख ने पांडवों को, अपने रक्षकों को अपना शत्रु बना डाला पर इस समय तो यह उसका अहंकार नहीं गुरु के वरदान का मद था। क्या यह इतना कठिन है आचार्य? दुर्योधन पूछ रहा था, आप इतनी गहरी चिंता में डूब गए। क्या वर नहीं देंगे? उसने कहा नहीं, किंतु मन-ही-मन सोचा, बुड्ढा वर दे कर फंस गया है।
मुंह से शब्द ही नहीं फूट रहा। नहीं! नहीं!! कठिनाई की बात नहीं है राजन्! द्रोण बोले, मैं सोच रहा था कि तुम्हारे वर के पीछे धर्म है अथवा राजनीति?
धर्म की ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं है आचार्य! दुर्योधन बोला मैं सांसारिक मनुष्य हूं। मैं धर्म के नाम पर वंचित नहीं किया जा सकता।
आचार्य की इच्छा हुई कि हंस पड़ें। कैसे कह रहा है कि वह सांसारिक मनुष्य है, इसलिए धर्म की ओर उसकी प्रवृत्ति नहीं है। जैसे संसार में केवल अधर्म ही हो। नहीं जानता कि धर्म ही संसार को भी धारण करता है। कैसे कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ, लोभ और लिप्सा को उचित ठहराने के लिए जीवन को अधर्म का पर्याय बना दिया है।
द्रोण का मन कुछ संभला… बहुत असत्य भी नहीं कह रहा है दुर्योधन। संसार में तात्कालिक लाभ तो अधर्म से ही होता है।
धर्म को जितना त्यागते जाओ, उतनी ही सांसारिक सफलता पाते जाओ। पर सफलता के मद में यह समझ में नहीं आता कि यह सफलता ही क्षय का द्वार भी है।
द्रोण का मन जाने कैसे फिर बदल गया। संभव है कि दुर्योधन के मन में कोई और भाव हो। पांडवों ने गंधर्व चित्ररथ से तुम्हारे प्राणों और सम्मान की रक्षा की थी।
क्या तुम उसका प्रतिदान करना चाहते हो? द्रोण बोले, अथवा बंदी युधिष्ठिर को मुक्त कर उनसे भ्रातृत्व स्थापित करना चाहते हो?
नहीं आचार्य! दुर्योधन बोला, युधिष्ठिर के वध के निषेध के मूल में न कृतज्ञता है, न दया, न धर्म। यह मेरी राजनीति है।
क्रमश: – नरेन्द्र कोहली