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जोगियों के डेरों की पुरानी प्रथा, रूतबे के लिए कुनबे को थमा रहे बीन

locationकानपुरPublished: Jul 27, 2017 02:46:00 pm

आमतौर पर सांप का नाम सुनते ही लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

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कानपुर। आमतौर पर सांप का नाम सुनते ही लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उसमें भी यदि किंग कोबरा सामने आ जाए तो अच्छे-अच्छों के होश उड़ना स्वाभाविक है और दुनिया सांपों को खौफ का दूसरा नाम भी मानती है। लेकिन चौबेपुर कस्बे के पास जोगियों के कई डेरे हैं, जहां हर घर में सांप इंसानों के बीच रहते हैं। बूढ़ा हो या बच्चा, यहां कोई भी सांप से नहीं डरता। बच्चों के लिए ये दिल बहलाने का खिलौना जैसे ही हैं। इन बस्तियों में जिस घर में ज्यादा सांप होते हैं उसका रूतबा होता के साथ ही वहीं यहां की मुखिया कहलाता है। जोगियों ने बताया कि सांप उनकी जीवनशैली का एक हिस्सा है और वे इन्हीं के बीच में खेलकर बड़े हुए हैं। बस्ती के कल्लू सपेरे ने बताया के इस डेरे में 50 से ज्यादा घर हैं। जहां एक भी इंसान शिक्षित नहीं है। कल्लू कहते हैं कि कॉपी, किताब क्या होती है, हम नहीं जानते, बीन लेकर सांपों को खोजने के लिए जंगलों की खाक छानते हैं।



खिलौनों की जगह हाथों में सांप

शहर से चालीस किमी दूरी पर स्थित जोगियों की बस्ती है, जहां पर 50 से ज्यादा सपेरों के परिवार रहते हैं। इस गांव को लोग सपेरों का गांव कहते हैं। यहां हर घर में सांप पाले जाते हैं। यहां रहने वाले लोग अपना परिवार चलाने के लिए इन्हीं के ऊपर निर्भर हैं। यहां जिस घर में जितने सांप होंगे, उस घर का गांव में रुतबा उतना ही ऊंचा होगा। यहां बच्चे खिलौनों से नहीं, बल्कि सांपों से खेलकर अपना मन बहलाते हैं। बच्चे इन्हीं के साथ खेलते हुए बड़े होते हैं। कई बार तो खेल-खेल में बच्चे इन्हें अपने मुंह में भी डाल लेते हैं। इसके बावजूद सांप उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। यहां सांपों और इंसान की दोस्ती की अनोखी मिसाल है। इनके बीच का रिश्ता भले ही सबकी समझ से परे हो, लेकिन इनके लिए यह सब कुछ हैं। 

किसी ने नहीं ली सुधि, बीन बजाना मजबूरी

जोगीडेरा में रहने वाले लोग नाथ सम्प्रयाय से ताल्लुख रखते हैं। डेरे के मुखिया जाबड़ी नाथ कहते हैं कि सांप पालने की प्रथा सैकड़ों साल पुरानी है। हम पांचवीं पीढ़ी से हैं जो सांप के साथ रहते हैं। हमारे पास पांच दर्जन से ज्यादा विषैले सांप हैं, जिन्हें हम अपने बेटों की तरह ही पालते हैं। मुखिया ने कहा कि हम भी चाहते हैं कि हमारे बच्चों के हाथों पर कॉपी किताबें हों, लेकिन इसके लिए पैसे कहां से लाएं। आजादी के 70 साल गुजर जाने के बाद भी किसी भी सरकार ने जोगियों के उत्थन, पुर्नवास के लिए कोई कदम नहीं उठाया, जिसके चलते कुनबा बीम और सांपों के जरिए दो रोटी कमा रहा है। वहीं डेरे के बुजुर्ग महिला रन्नों कहती हैं आज नागपंचमी है, जे मिल जाएगा, उसी के जरिए पेट भरेगा।

बीन के धुन पर थिरकते हैं जोगी 

इस बस्ती की में एक परंपरा भी अगल है। यहां बच्चा पैदा होने पर जश्न कुछ अगल अंदाज में मनाया जाता है। यहां ढोलक के बजाय बीन की धून पर जोगी नाचते और गाते हैं। डेरे के मुखिया कहते हैं कि हमलोगों पर भगवान शंकर की कृपा रहती है और शिव को प्रसंन्न करने के लिए हमसब बीन बजाते हैं। रन्नों कहती हैं कि 11 माह तक हमलोग बेरोजगार रहते हैं अ ौर जैसे ही सावन आता है तो जोगियों की टोली भोर पहर बस्ती छोड़ देती है। जोगी मंदिर, शिववालयों में जाकर सांपों को दिखाते हैं और बीन की धून में उन्हें नचाते है। उससे जो पैसा मिलता है उसी से पूरे साल खर्चा चलता है। जोगी के लड़कों की उम्र जैसे ही सात साल की होती है उसे बीन बजाने की कला सिखाना शुरू कर दी जाती है। इनका ये अभ्यास पूरे पांच साल तक चलता है। इस दौरान बच्चों को सांपों को सम्मोहन की कला से दक्ष किया जाता है। 12 साल की उम्र में पहुंचते ही इन्हें सांप पकड़ने की कला सिखाई जाती है। एक माह की ट्रेनिंग के बाद इन्हें जंगलों में सांपों को पकड़ने के लिए उतार दिया जाता है।

बेटे की तरह रखते हैं विषधरों 

सांपों के लिए उनके दिल में प्यार है। लोग उन्हें अपने बच्चों की तरह पालते हैं। यहां कोबरा, वाइपर, रेटल स्नैक और करैत जैसे बेहद जहरीले सांप भी घर में घूमते मिल जाएंगे। सपेरे कलुआ ने बताया कि उनके पास पांच साल उम्र का विषैला कोबरा है, जिसे वो बैअे की तरह रखते हैं। सूरज नाथ बताते हैं कि सपेरों और सांपो का साथ तो सदियों से है और यही उनकी रोजी रोटी का साधन था। सपेरें, रघुनाथ नाथ बताते हैं कि वे शादियों में बीन बजाते हैं पर वो काम भी साल में दो-चार दिन ही मिलता है, जिसमें परिवार पालना मुश्किल हो गया है। हलांकि भारत में वाइल्ड लाइफ प्रिवेंशन एक्ट (1972) के तहत सांपों को पालना अपराध है. इस नियम को सपेरों के ऊपर 2011 से सख्ती से लागू किया गया है। 

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