आखिर कौन बदल देना चाहता है बचत के पुराने नियम?
लखनऊPublished: Dec 05, 2016 06:54:00 pm
क्या पुरानी परंपराओं को लील जाएगी प्लास्टिक मनी
– मधुकर मिश्र
अंटी से लेकर आंचल तक में छुपाए जाने वाले पैसे को बचाने के लिए भले ही हमने तमाम तरीके खोज लिए हों लेकिन घर का गुल्लक अब भी लोगों की बचत करने का सबसे बड़ा जरिया रहा है। अर्थव्यवस्था की अच्छी बुरी स्थिति के बीच प्लास्टिक मनी से मोबाइल मनी के युग में प्रवेश करने की भी कवायद जारी है। ऐसे में सवाल उठता है कि जाने-अनजाने इस प्रयास में कहीं हम उन परंपराओं की बलि देने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं जो कभी हमारे जीवन का अहम हिस्सा हुआ करती थीं?
यदि ऐसा है तो क्या होगा दादी के उस आंचल का जिसमें गठियाया हुआ पैसा बच्चे तब तक नहीं छोड़ते थे, जब तक वह चवन्नी या अठन्नी निकाल कर दे नहीं दिया करती थीं? क्या होगा उस परंपरा का जिसमें कथा-पूजन या विवाह के समय स्त्री और पुरूष की गांठ जोड़ते समय शुभता के लिए सिक्के बांधे जाते थे? क्या अब गांठ बांधने के लिए सिक्कों की जगह डेविड और क्रेडिट कार्ड प्रयोग में लाए जाएंगे?
क्या अब तमाम बरातों में मिलने विदाई पेटीएम के जरिए दी जाएगी या फिर कलेवा की थाली में रखा जाने वाला 10, 20 और 50 का नोट अब मोबाइल मनी के जरिए ट्रांसफर किया जाएगा? क्या होगा उस न्योछावर की परंपरा का जो अक्सर खुशी के मौके पर घर का बड़ा या प्रियजन उतार कर दिया करता था? क्या होगा उस बचत की आदत का जिसके सहारे लोग अपनी ख्वाहिशें पूरी किया करते थे?
बचत की बात करते ही मुझे पड़ोस वाले खन्ना जी का परिवार याद आता है, जिनके परिवार के सभी सदस्य अपनी एक ख्वाहिश को पूरा करने के लिए दूध वाली बॉल्टी में पैसे इकट्ठे किया करते थे। खन्ना जी की पत्नी घर की जरूरतों से पैसे बचाकर तो उनके बच्चे जेब खर्च और ट्यूशन पढ़ाकर पैसे जमा किए करते थे। वहीं खन्ना जी ऑफिस जाते वक्त रिक्शा लेने की बजाए पैदल ही परेड किया करते थे। एक दिन उन सभी के द्वारा की गई बचत की कोशिशें रंग लाई और दो पहियों वाली कॉइनेटिक होंडा का हार्न बजाते हुए जब खन्ना जी ने मोहल्ले में प्रवेश किया तो पूरा परिवार खुशी से झूम उठा था।
बचत के किस्से-कहानी सिर्फ शहरों तक ही सीमित नहीं हैं, गांवों में तो पैसे जुटाने का तरीका ही अलहदा था। कोई फसल कटने के बाद मिलने वाली रास को तो कोई पशुओं के दूध से तैयार घी को बेचकर पैसा इकट्ठे किया करता था। जबकि बच्चोें के पास तो रिश्तेदारों से मिलने वाले पैसे ही जमापूंजी हुआ करते थे। मुझे याद है कि गांव के लल्लन चाचा, जिन्हें कमेंट्री सुनने का बड़ा शौक था, ने बचत के पैसे से जब रेडियो खरीदा तो उसे सुनने के लिए क्या बच्चे, क्या बूढ़े सभी उनके दरवाजे पर किसी न किसी बहाने जाकर डेरा डाल दिया करते थे।
हिंदुस्तान में बचत के जरिए पैसे जुटाने की परंपरा काफी पुरानी है। दादी-नानी के जमाने में तब भी पैसे जुटाए जाते थे, जब सिक्के सोने-चांदी और तांबे के हुआ करते थे। बदलते परिवेश में भी बचत के तमाम तरीके आजमाए जा रहे हैं। फिक्स डिपॉजिट से लेकर तमाम तरह के बांड और इंश्योरेंस से जुड़ी पॉलिसी ने लोगों को पैसे बचाने का नया तरीका सिखा दिया है। और आप न भी इन तरीकों को सीखना या अपनाना चाहें तो दिन-प्रतिदिन टेलीकॉलरों के आने वाले फोन इस दिशा में आपको सोचने के लिए जरूर मजबूर कर देेते हैं।
लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि प्लास्टिक मनी क्या वाकई उन तमाम परंपराओं को लील जाने को तैयार है जिसके साथ हम पले-बढ़े हैं? क्या खुल्ले की समस्या को खत्म करने के चक्कर में उन रस्मों-रिवाजों की बलि देने की केाशिश की जा रही है जो हमारे तमाम धार्मिक संस्कारों का हिस्सा हुआ करती है?