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जानें कितनी महत्वपूर्ण हैं जीवन में बचपन की सीखी गईं बातें 

Published: Aug 22, 2015 06:57:00 pm

अपने आर्थिक संसाधनों की सुखद सीमाओं के भीतर रहने की बचपन की आदत बहुत खुशियां प्रदान करती है

Anand munshi

Anand munshi

जयपुर। मुझे अपने बालपन के वे दिन याद हैं, जब दिनभर के काम के बाद मेरे पिता घर लौटते, तो घर के उन कमरों की बत्तियां बुझा दिया करते थे, जिनमें उनकी जरूरत नहीं होती। इसमें भी अच्छी बात यह थी कि बजाय हमें ऎसा करने के लिए कहने के वे खुद यह काम किया करते थे। मैं सोचता हूं कि खुद एक अच्छी मिसाल कायम करना, सिखाने का बेहतर तरीका था। और सिर्फ इतना ही नहीं, पानी की बर्बादी रोकने के लिए वे उन नलों की तरफ भी हमारा ध्यान आकर्षित करते थे, जिनमें बेवजह काफी पानी बह रहा होता।

उनके लिए समाज के संसाधनों की बर्बादी बहुत गम्भीर अपराध है और यह हमारे उस स्वार्थी नजरिये का परिचायक है, जिसमें हम दूसरों के बारे में सोचे बिना सिर्फ अपनी सुविधाओं का ही खयाल करते हैं। और खास तौर पर तब तो वे कुछ ज्यादा ही अधीर हो उठते थे, जब हम छोटे बच्चे बहुत देर तक टेलीविजन देखा करते। इसी संदेश की निरंतरता में मैं और मेरे भाई बहन पले-बढ़े हैं।

आज मैं स्वीकार करता हूं कि तब मुझे घर में उनका “बर्बादी मत करो, बचाना सीखो” वाला नारा अच्छा नहीं लगता था। लेकिन आज मैं महसूस करता हूं कि बचपन की उनकी मूल्य निर्माण करने वाली इन छोटी-छोटी सीखों ने ही मेरे व्यक्तित्व का आधार तैयार किया है। जब मैंने निजी जीवन में बहुत कठिनाइयों का सामना किया, तब मुझे इन सीखों ने बहुत बड़ा सम्बल प्रदान किया। मैं बहुत शिद्दत से यह बात महसूस करता हूं कि आपकी कामयाबी बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि आपके पास जो संसाधन हैं या जिन्हें आप कदाचित प्राप्त कर सकते हैं, उनका आप कितने प्रभावशाली तरीके से इस्तेमाल करते हैं। यहां बात यह नहीं है कि कैसे आप अधिक से अधिक प्राप्त करें, बात यह है कि आपके पास जो है, उसका आप कैसे अधिकतम प्रभावी प्रयोग करें।

हालांकि आप तर्क दे सकते हैं कि गैर जरूरी बत्तियों को न बुझाने या आपके घर पर पिछली रात हुई डिनर पार्टी में से बचे हुए खाने को कचरा पात्र में न फेंक देने या पानी का गैर जरूरी इस्तेमाल न रोक देने से महीने के आखिर में कुछ सौ रूपयों का ही तो फर्क पड़ेगा। दरअसल, जहां तक रूपयों का सवाल है, अमीर परिवारों के लिए तो यह बचत कुछ खास है ही नहीं। लेकिन हमें यह बात समझनी चाहिए कि पैसा हमारा सर्वश्रेष्ठ संसाधन है और वह समाज की सम्पत्ति है। उपभोग के लिए भारी संसाधन जुटाने की बजाय एक समाज के रूप में हमें यह सीखना चाहिए कि कैसे हम अपनी जरूरतों को बेवजह बढ़ाए बिना और कीमतों को बढ़ाए बिना समुचित मात्रा के संसाधनों से सुख के साथ गुजारा कर सकते हैं, ताकि आने वाली पीढियों के लिए भी पर्याप्त बचा रह सके और वह आम आदमी की पहुंच से परे न हो जाए।

बीस बरस पहले की तुलना में आज भारत के लोगों की क्रय शक्ति काफी बढ़ चुकी है। एक राष्ट्र के रूप में हमने आहिस्ता-आहिस्ता आर्थिक विकास भी किया है और ऎसी कोई भी सोच, जो हमें सीमित संसाधनों में गुजारा करने की सलाह देती है, हमें उपभोक्तावाद और उस मान लिए गए विकास की विरोधी प्रतीत होती है, जिसकी मांग बाह्य पर्यावरण हमसे करता है। आपके पास जितना अधिक होता है, आपको उतना ही सफल समझा जाता है। अपने पड़ोसियों और रिश्तेदारों से अधिक संजोने की या जितने की आपको जरूरत हो, उससे ज्यादा जुटा लेने की चूहा दौड़ को फौरन बदलने की जरूरत है।

अपने आर्थिक संसाधनों की सुखद सीमाओं के भीतर रहने की बचपन की आदत आपको बहुत खुशियां प्रदान करती है, क्योंकि ऎसा करके आप गैर जरूरी चीजों के लिए कठोर श्रम करने के अनावश्यक तनाव से बच जाते हैं। हम देखते हैं कि अपनी आर्थिक सम्पन्नता के शिखर के काल में तो लोग अमीर और वैभवशाली लोगों वाली आदतें पाल लेते हैं, लेकिन जब उन पर बुरे दिन आते हैं, तो वे सिकुड़ी हुई सुविधाओं और उनकी आर्थिक ताकत के साथ चली जाने वाली चीजों के अभाव के साथ तालमेल नहीं बिठा पाते हैं। लेकिन यदि आप एक बार अपनी सीमाओं में रहना सीख जाएं, तो आप कठिन समय में भी भली भांति गुजारा कर सकते हैं। जैसा किसी ने कहा है, जब आपका जीवन स्तर ऊंचा उठे, तब सिर्फ अपने खर्च को ही न बढ़ाएं, अपने दान को भी बढ़ाएं। – आनंद मुंशी मोटिवेशनल स्पीकर और मैनेजमेंट गुरू
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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