बड़े शहरों में लोगों को अपने कार्यस्थल पर पहुंचने के लिए घंटों यात्रा करनी पड़ती है। महानगरों में घर से ऑफिस जाने में एक घंटा और वापस घर लौटने में एक घंटा लगना आम है। असल में घर से कार्यस्थल की बढ़ती दूरी के कारण लोगों को रोज दो या तीन घंटे तक लग जाते हैं। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि यदि आप अपने दिन का दस प्रतिशत समय बिना कुछ अर्जित किए महज कार्यस्थल पर आने-जाने में गंवा देते हैं, तो यह आपकी ऊर्जा का बड़ा भारी नुकसान है। आप इस तरह उस समय को भी गंवा रहे हैं, जो आप अपने परिवार को दे सकते थे।
कार्य और जीवन के बीच संतुलन के अभाव में वे परिवार को पर्याप्त समय नहीं दे पाते हैं और इससे भारत में कई सामाजिक और पारिवारिक समस्याएं पैदा हो रही हैं, जो पहले नहीं थीं। उनके परिवार के अन्य सदस्यों के साथ प्रगाढ़ संबंध नहीं रह पा रहे हैं। बढ़ते बच्चों पर ध्यान देने के लिए अभिभावकों के पास पर्याप्त समय नहीं होने से बच्चे उच्छृंखल हो रहे हैं। यही वजह है कि बच्चे वीडियो गेम्स और सोशल मीडिया जैसे वर्चुअल मनोरंजन के साधनों के आदी हो रहे हैं।
पश्चिमी देशों की तुलना में यह समस्या भारत में ज्यादा गंभीर है, जहां भारी संख्या में काम करने वाले लोग केवल दस से पंद्रह शहरों में हैं। लोग बड़े महानगरों में काम पाने के लिए अपने होम टाउन और छोटे शहरों को छोड़ते हैं। सैकड़ों-हजारों लोग रोजाना शहर जाते हैं, हर सप्ताह लगभग 24 घंटे लगाकर। यह सप्ताह में लगभग एक दिन का सफर हो गया। ये लंबे घंटे उनके पारिवारिक जीवन से घट जाते हैं और इससे उनका सामाजिक जीवन प्रभावित होता है और आगे चलकर सेहत भी।
इस संदर्भ में यूरोप की कोर्ट का एक फैसला स्वागत योग्य है। अब कर्मचारियों का आने-जाने में लगने वाला समय भी काम के वक्त में जोड़ा जा सकता है। ताकि वे आते-जाते लगने वाले समय में काम कर सकते हैं और उन्हें ऑफिस में कम समय काम करना पड़ेगा। लिहाजा जो अतिरिक्त घंटे बचेंगे, उसका उपयोग पारिवारिक रिश्तों को सुधारने में लगाया जा सकता है। इससे पहले कि कार्य और जीवन के बीच का असंतुलन और नकली विकास हमारे समाज को स्थाई रूप से लील जाए, भारत में ऎसे सुधार की अत्यंत आवश्यकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
– आनंद मुंशी, मोटिवेशनल स्पीकर और मैनेजमेंट गुरू