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निर्बन्ध : वर

Published: Dec 11, 2015 04:11:00 am

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afjal

उनकी उपेक्षा वह कर नहीं सकता था। पर द्रोण को तो उसने स्वयं चुना था, नहीं तो उसकी सेना में महीपों का कोई अभाव नहीं था। आज इन शूरवीर क्षत्रियों की पोल खुल गई थी। कितने पानी में थे वे। 

mahabharat

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उनकी उपेक्षा वह कर नहीं सकता था। पर द्रोण को तो उसने स्वयं चुना था, नहीं तो उसकी सेना में महीपों का कोई अभाव नहीं था। आज इन शूरवीर क्षत्रियों की पोल खुल गई थी। कितने पानी में थे वे। 

शस्त्र पकड़ना तो सबको आता है किंतु उस पर नियंत्रण भी तो होना चाहिए। द्रोण को आज द्रुपद याद आ रहे थे। द्रुपद ने कहा था कि मित्रता तो समानता के आधार पर होती है। आज देखे द्रुपद कि उन दोनों में क्या समानता है। 

द्रोण कदाचित् संसार के सबसे समृद्ध राजा के प्रधान सेनापति हैं और द्रुपद युधिष्ठिर की सेना में एक साधारण महारथी है। उसके वर्तमान रहते, पांडवों ने उसके पुत्र को प्रधान सेनापति बना रखा है। और पांडवों की स्थिति क्या है? उनके पास अपने राज्य के नाम पर एक ग्राम भी नहीं है। बेचारे विराट की भूमि पर अपना डेरा डाल कर युद्ध करने आए हैं।

आज द्रोण को अनुभव हो रहा था कि राजकीय पद का क्या अर्थ होता है। पहले वे राजकुमारों के गुरु थे। सेना के मार्गदर्शक थे। सुविधाएं तो उनको तब भी थीं। एक प्रकार से अधिकार भी थे किंतु यह तो युद्ध की स्थिति में प्रधान सेनापति बन कर ही समझ में आता है कि अधिकार क्या होता है। 

यह सारी सेना उनकी थी। अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आए महीप गण भी उनकी सेना के मात्र महारथी थे। उन सबको द्रोण की आज्ञाएं माननी होंगी। उनके किरीट अब द्रोण की आज्ञाओं के सम्मुख नतमस्तक थे। 

द्रोण जिसे चाहेंगे, बचा लेंगे और जिसे चाहेंगे, मृत्यु के मुख में धकेल देंगे। ‘राजन्!Ó सहसा द्रोण ने कहा, तुमने मुझे आज प्रधान सेनापति बनाया है। समारोह भी बहुत है। तुमने मुझे बहुत कुछ दिया है। मेरी इच्छा है कि आज मैं भी तुम्हें कुछ दूं। इस अवसर पर आज तुम मुझ से एक वर मांग लो।
दुर्योधन ने आचार्य की ओर देखा ‘चढ़ गई बुड्ढे को। वर दे रहा है।Ó

वह जानता था कि आचार्य द्रोण को प्रधान सेनापति बनाकर जब वह राजकीय महत्त्व देगा तो यह कंगाल ब्राह्मण उस सुख को झेल नहीं पाएगा। वह उसकी उच्चतम भौतिक अपेक्षाओं से भी कुछ ऊपर ही होगा। उसके पग भूमि से ऊपर उठ ही जाएंगे। 

हवा में लटकने लगेगा बूड्ढा! तब दुर्योधन इसे जिस ओर चाहेगा, घुमाता रहेगा। दुर्योधन ने द्रोण को भी देखा था और अश्वत्थामा को भी। उनका अतीत अभावों भरा अवश्य था किंतु वर्तमान में ऐसा कोई कष्ट उन्हें नहीं था। पर अतीत के उस भूत ने उनका पीछा कभी नहीं छोड़ा था। 

द्रोण सदा भविष्य के प्रति आशंकित रहते थे कि कहीं उनका अतीत पुन: लौट कर न आ जाए… और अश्वत्थामा का लोभ कभी तृप्ति की सीमा को छू नहीं सका। वह निरंतर बढ़ता ही गया था। आपकी कृपा है आचार्य! सोचता हूं एक वर मांग ही लूं। आप आज युधिष्ठिर को बंदी कर मुझे ला दीजिए जीवित।

द्रोण जैसे आकाश से गिरे। उनके पगों को यथार्थ के कंकड़ चुभने लगे। वे दुर्योधन की सेना के प्रधान सेनापति थे। दुर्योधन की सेना में उनका महत्त्व सर्वोपरि था किंतु पांडवों की सेना पर तो उनका कोई नियंत्रण नहीं था। 

पांडव योद्धा तो उनकी आज्ञा के अधीन नहीं थे। वहां अर्जुन था। वह क्या अपने भाई और राजा को जीवित बन्दी करने देगा। अपने राजा की रक्षा के लिए पांडव सेना अपना सारा बल लगा देगी।
द्रोण ने दुर्योधन की ओर देखा, वह जानता भी है कि वह क्या मांग रहा है? उसे नहीं मालूम कि वह असंभव मांग रहा है। वर देते हुए, वर देने वाले की क्षमता का भी ध्यान रखना चाहिए। 

क्रमश: – नरेन्द्र कोहली
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