डॉक्टर खिलाफ हो गए हैं। वो पसोपेश में आ गए हैं। वे कह रहे हैं कि यह आदेश नहीं है। मात्र सलाहभर है।
नई दिल्ली. मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) ने जेनरिक दवा का नाम लिखने से जुड़ा एक नोटिफिकेशन जारी किया है। इसमें कहा गया है कि डॉक्टरों को मरीज के लिए दवा लिखते समय दवा कंपनी के नाम की जगह जेनरिक दवा का नाम लिखना चाहिए। यानी अगर बुखार है तो क्रोसिन (ब्रांड) की जगह पैरासिटामोल लिखें। डॉक्टर अब इसके खिलाफ हो गए हैं। वो पसोपेश में आ गए हैं। वे कह रहे हैं कि यह आदेश नहीं है। मात्र सलाहभर है।
डॉक्टर के विभिन्न समुदाय अपने हिसाब से इस नोटिफिकेशन की व्याख्या कर रहे हैं। कोई कह रहा है कि केवल सलाह दी गई है। ऐसा करना अनिवार्य नहीं है तो किसी का कहना है कि यह आदेश है। बहरहाल, एमसीआई ने ताजा नोटिफिकेशन में कहा कि सभी डॉक्टरों को अंग्रेजी के कैपिटेल लैटर में जेनरिक दवा का नाम लिखना चाहिए। डॉक्टरों को दवा कंपनी व दवा के ब्रांड नाम न लिखने के लिए कहा है। दरअसल, ऐसा इसलिए कहा गया है ताकि मरीजों को महंगी ब्रांडेंड दवाओं की जगह सस्ती दवा मिल सके। जेनरिक दवा से किसी कंपनी का नाम न जुड़ा होने पर वो बेहद सस्ती मिलती है। बता दें कि साल 2002 में एमसीआई ने जेनरिक दवा का नाम लिखने के लिए डॉक्टरों से अपील की थी। इसके बाद तीन साल तक इस पर विवाद हुआ था।
आईएमए ने कहा, कैमिस्ट की मनमर्जी बढ़ेगी
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने इस नोटिफिकेशन को सलाह बताया है। आईएमए कॉलेज के डीन विनोद मोंगा कहते हैं कि अगर डॉक्टर दवा के पर्चे पर केवल जेनरिक दवा का नाम लिखेंग तो कैमिस्ट अपनी मनमर्जी चलाकर कंपनियों को फायदा पहुंचाएंगे। वो उन कंपनियों की दवा मरीजों को देंगे जिससे उन्हें महंगे तोहफे आदि मिलते हैं। हैदराबादा स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रीशियन के वरिष्ठ अधिकारी बी दिनेश कुमार कहते हैं कि डॉक्टरों को ऐसा करने में मुश्किलें आएंगी क्योंकि वो इसके आदी नहीं हैं। हालांकि बंगाल में अधिकतर सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर जेनरिक दवा का नाम ही लिखते हैं।
कपंनियां देती हैं पैसा
साल 2007 में इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एतिक्स में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, दवा कंपनिया डॉक्टरों को अपनी कंपनी की दवा का नाम लिखने के लिए पैसा देती है। एसी से लेकर कारें तोहफे के रूप में दिए जाते हैं
जेनरिक और एथिकल दवा में क्या है फर्क
दवाइयां दो प्रकार की होती हैं जेनरिक व एथिकल ब्रैंडेड। सभी दवा बनाने वाली कंपनियां दोनों प्रकार की दवा बनाती हैं। दोनों प्रकार की दवाइयों में कंपोजिशन समान होता है। दोनों की गुणवत्ता, क्वॉलिटी व परफोरमेंस समान होती है। इन्हें बनाने का तरीके में भी कोई फर्क नहीं है। जेनरिक दवाइयों की मार्केटिंग व ब्रांडिंग पर कंपनियां पैसे खर्च नहीं करती हैं। इन्हें कंपनियां अपनी लागत मूल्य के बाद कुछ प्रोफिट रखकर आगे बेच देती हैं। उधर, एथिक ल ब्रैंडेड दवाओं के लिए कंपनियां जमकर मार्केटिंग करती हैं। डॉक्टरों को इन दवाओं के अधिक से अधिक मरीजों को प्रिसक्राइब करने के लिए कमीशन और कीमती गिफ्ट आदि दिए जाते हैं। इसके चलते दवाओं की कीमत काफी बढ़ जाती है। नैशनल ड्रग प्राइस कंट्रोल अथॉरिटी समय- समय पर दवाओं की अधिकमत कीमत तय करती है। लेकिन कंपनियां दवाओं को अधिकतम कीमत पर ही बेचती हैं।