नई दिल्ली। मोदी सरकार ने अपने फैसले के बाद ब्रिटिश काल से चलती आ रही परंपरा को खत्म कर दिया है। रेल बजट को आम बजट में शामिल करने से जहां पैसे और समय की बचत होगी वहीं इसके कुछ राजनैतिक मायने भी है। रेल बजट ब्रिटिश राज के समय से ही किसी न किसी रूप से राजनीतिक मुद्दा रहा है।
रेल बजट को लेकर खूब होती रही है राजनीति
भारत सरकार द्वारा देशव्यापी स्तर पर संचालित ये सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को लेकर राजनीति इस कदर होती रही है कि पहले तो रेल मंत्रालय को लेकर हाय तौबा मचती है और उसके शुरू होता है अपने क्षेत्र रेल लाइन, रेलगाड़ी और किराये में कमी के सौगातों की झड़ी। यह सिलसिला हमेशा से चलता रहा है। यही वजह है कि ऐसा करते वक्त रेल मंत्री इस बात का ख्याल नहीं रखते कि रेल बजट व्यावहारिक है भी या नहीं। जो घोषणा वो करने जा रहे हैं वो पूरा होगा भी नहीं।
यही वजह है कि रेल मंत्रालय राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों के लिए अहम रहा है। ताकि वे अपने तरीके से वोटरों को प्रभावित कर सकें। खासतौर से देश में विगत 15 वर्षों के गठबंधन सरकार के दौर में इसको लेकर काफी खींचतान मची नही है। इस दौरान यूनाइटेड फ्रंट्र एनडीए और यूपीए की सरकारों का दौर रहा।
रेल बजट को अलग से प्रस्तुत करने की जरूरत नहीं थी
रेल बजट को आम बजट में शामिल करने का सभी नेताओं ने स्वागत किया है। बीजेडी नेता भरतहरि माहताभ जो रेलवे कन्वेंशन कमेटी के अध्यक्ष हैं कहते हैं कि रेलवे बजट को अलग से पेश करने का कोई मतलब तो नहीं था। सरकार में ऐसे कई विभाग हैं जिनके बड़े बजट हैं। रेल बजट की लोकप्रियता की वजह से पिछले बजटों के दौरान घोषित हुए 300 प्रोजेक्ट को पूरा होने के लिए 3 लाख करोड़ रुपए चाहिए। यात्रियों पर कम से कम बोझ डालने की वजह से रेलवे पर हर साल 30 हजार करोड़ का बोझ बढ़ जाता है। जिन रूट्स पर कम लोग सफर करते हैं ऐसे रूट्स पर ट्रेनों की घोषणा करने से ट्रांसपोर्टर कंपनियों पर बोझ बढ़ रहा है।
Home / Miscellenous India / आम बजट में शामिल होने के बाद अब लोकप्रिय नहीं रहेगा रेल बजट