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कैसी दिवाली! यहांं तो कुलदीपकों ने ही बुझा दिए अपने बागवां की आंखों के ‘दीये’

locationमुरादाबादPublished: Oct 28, 2016 03:45:00 pm

Submitted by:

lokesh verma

ऐसे बुजुर्गों की अनकही कहानी जो अपनों के होते हुए भी गुमनामी में आंसुओं से भीगी दिवाली मना रहे हैं

Moradabad

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जय प्रकाश/मुरादाबाद. ‘जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अंंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…’ कवि की ये पंक्‍ितयां का मकसद शायद यही था कि हमारी खुशियों के साथ उन सभी को भी खुशियांं नसीब हों जिनके अपने नहीं हैं और जब तक उनके चेहरों पर मुस्कान नहीं तब तक कोई त्यौहार पूरा नहीं है। अब जब हम हर साल की तरह दिवाली मनाने जा रहे हैं तो क्या हम खुश हैं कि हम दिवाली मना रहे हैं ये एक ऐसा त्यौहार है जब सारा परिवार साथ मिलकर दीपक जलाकर खुशियांं मनाता है, लेकिन हमारे समाज में कुछ ऐसे कुलदीपक भी हैं जिन्होंने अपने ही हाथों से अपने बागवां की आंंखों के दीपक बुझा दिए। जी हांं हम बात कर रहे हैं इस दिवाली पर ऐसे बुजुर्गों की जो अपनों से तिरस्कृत ऐसे बुजुर्गों की जो अपनों के होते हुए भी गुमनामी में आंसुओं से भीगी दिवाली मना रहे हैं। टीम पत्रिका ने ऐसे ही कुछ बुजुर्गों का हाल जाना जो आज संपन्न होते हुए भी अपनों से दूर हैं।

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शहर में ऐसे कई वृद्धा आश्रम या निजी आश्रय स्थल हैं, जिनमेंं सैकड़ों बुजुर्ग अपनों से झिड़़की खाए तनहा अपना जीवन काटने को मजबूर हैं। कुछ ने अपने आप को संभाल लिया, लेकिन कुछ नहीं संभाल पाए। जब पूूछा तो आंंखेंं भर आई और बोले की बेटा किस्मत में यही लिखा है। अब क्या करें… इस दौरान कई कड़़वी कहानियां भी मिली जिससे कई सवाल उठे कि हम बिना बागवां के परिवार की कल्पना कैसे कर सकते हैं वो बागवां जो ये कहते हुए आज उनकी आंंखेंं भर आईं की आप पूछ लो जो पूछना हो, लेकिन मेरे बच्चों का नाम न आये। इतने तिरस्कार के बाद मांं-बाप का अपने बच्चों के लिए ये प्यार देखकर कलम भी कुछ देर रुक गई और बहुत देर तक बूढ़ी़ आंंखों में आया पानी देखती रहीं जो उनकी बेबसी को जाहिर कर रहा था। ऐसे ही शहर के वानप्रस्थ आश्रम में रह रहे मनोहर लाल भाटिया की भी कहानी है। जीवन के 77 बसंत देख चुके मनोहरलाल पिछले तीन सालों से आश्रम में रह रहे हैं और सहारनपुर में कॉलेज से रिटायर होने के बाद मुरादाबाद आकर अपना एक्सपोर्ट का काम शुरू किया। चारों लड़कों को पाल पोसकर बड़ा किया, लेकिन आज उनके साथ कोई नहीं है। मनोहर कहते हैं कि बुजुर्गों को सम्मान चाहिए जब वो ही नहीं मिल रहा तो क्या करें वहां रहकर अब यहांं इन सब लोगों के साथ मेरा अपना परिवार है। यही नहीं मनोहर लाल आज भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते हैं और ऐसे अपनों से तिरस्कृत बुजुर्गों की कहानियों का संग्रह भी लिख रहे हैं। दर्द उनकी आंंखों में भी था, लेकिन अब उन्होंने उसे अपनी ताकत बना लिया है।

बाजार गंज में टेंट हाउस चलाने वाले धर्मपाल ढींगरा अपना दर्द नहीं छुपा पाए और पूछते ही आंंखेंं फफक आयीं। दो बेटे हैं, लेकिन कोई भी अपने साथ उन्हें नहीं रखना चाहता। बोले समाज कहता है की बेटा बुढ़ापे की लाठी बनेगा, लेकिन वही दुत्कार देगा ऐसा सोचा भी नहीं था। ढींगरा अपनी पत्नी संतोष ढींगरा के साथ आश्रम में रह रहे हैं। 

वहींं मुजफ्फरनगर निवासी कुछ कहानी इन्द्रेश कौशिक की भी है वे पत्नी योगेश कौशिक के साथ आश्रम में रह रहे हैं। पिछले तीन सालों से तीन बेटियां थी जो शादी के बाद नहीं पलटी। ऐसी कई कहनियांं मिली जिनमेंं सिवाय इस उम्र अफ़सोस के आलावा कुछ नजर नहीं आ रहा था।

वहींं इससे इतर जाने माने समाजशाष्त्री डॉ. विशेष कुमार गुप्ता देश में वृद्धों की स्थिति को लेकर ख़ासा चिंतित नजर आये। उनकी मानेंं तो ये स्थिति बाजारवाद की वजह से आई क्योंकि बच्चे कमाने के लिए बाहर चले गए और फिर लौट नहीं पाए क्‍योंकि हर कोई इतना सक्षम नहीं हो पाया जो इतना बड़ा परिवार चला सकता है फिर बुजुर्ग भी बदलते माहौल में ढल नहीं पाए। उन्होंने कहा ये बहुत बड़ी चिंता का विषय है इसके लिए समाज को जिम्मेदारी लेनी होगी ऐसे बुजुर्गों की और एक ऐसी संस्था प्रणाली की जिससे इन बुजुर्गों को सही राह और ठिकाना मिल सके।

बहरहाल ये उनका अपना समाजशास्त्रीय अध्यन होगा और सरकार की अपनी मजबूरियां, लेकिन ये देखकर हैरानी होती है की समाज किस तेजी से बदल रहा है और हम उस पेड़ को ही काट रहा है जिसके नीचे बैठकर वो पला बढ़ा। इस खबर से बहुत कुछ बदल जाएगा ऐसा दावा तो नहीं अगर कुछ भी हलचल होती है तो निश्चित रूप से कुछ बदल जाएगा। तो आओ इस दिवाली ये संकल्प जरुर लें की अगर कोई ऐसा बागवां मिले तो उसकी आंंखों में खुशियों के दीपक जला सकें। शायद लक्ष्मी बुलाने का इससे बेहतर त्यौहार नहीं होगा।
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