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सब की होली

Published: Mar 05, 2015 07:21:00 am

सरकार गली-गली में
दारू की दुकानें खोलती है और जब नई पीढ़ी पीके टल्ली हो जाती है तो नशा मुक्ति
केन्द्र

लगता है कि सब के सब एक ही तरह होली मनाते हैं क्योंकि सबके चेहरे लाल, पीले, हरे, काले रंगों में रंगे हुए होते हैं। ऎसे में समझ ही नहीं आता कि कौन क्या है? होली के दिन कई दिल फेंक इसका फायदा उठाते हैं और चुपचाप अपनी “नायिका” के चेहरे पर गुलाल मल आते हैं। वह बेचारी समझती है कि रंगने वाला कोई जान पहचान वाला है।

हम तो अपनी कहें। हमें दीपावली से ज्यादा होली का त्योहार पसन्द है। दिवाली पर साफ-सुथरे उजले कपड़ों में हम अपने आपको बगुला भगत समझने लगते हैं लेकिन होली पर चाहे अमीर हो या गरीब पहली नजर में तो एक जैसे ही लगते हैं। होली पर सबसे ज्यादा मजे पीके उड़ाते हैं।

जब से सरकार ने नशाबंदी तोड़ी है तब से तो कहना ही क्या। धुलंडी के दिन दारू की दुकानों पर ऎसी भारी भीड़ उमड़ती है कि मानो सारी राजधानी टूट पड़ी हो। इस दिन लोग जितना चाय-पानी नहीं पीते इससे ज्यादा सोमरस गिटक जाते हैं। पता है इस दिन क्या-क्या होता है? कुछ बोध कथाएं सुनें जिनकी रचना नशेडियों के श्रीमुख से हुई है। धुलंडी से पहले होली के दिन वाली रात एक बजे पुलिस गश्ती दल एक शराबी को पकड़कर थानेदार जी के पास लाया। थानेदार ने उसे सुबह अदालत में पेश किया।

जज साब ने उससे पूछा- रात को एक बजे तुम कहां जा रहे थे। शराबी ने हाथ जोड़ कर कहा- माई बाप। मैं शराब पीने के दुष्परिणामों पर भाष्ाण सुनने जा रहा था। जज साब हैरत में पड़ गए। बोले- ऎसा कौन है जो रात को एक बजे तुम्हें भाष्ाण देता? शराबी ने हाथ जोड़ कर कहा- हुजूर मेरी बीवी। दूसरी बोध कथा स्वयं हमारे साथ गुजरी। हम पंजाब में किसी शादी में गए।

वहां पार्टी में डीजे बज रहा था। आप जानते हैं कि पंजाब में कोई शादी दारू से नहाए बगैर पूरी नहीं होती। बाराती जम कर नाच रहे थे। पीते-पीते और नाचते-नाचते सुबह हो गई। सुबह-सुबह बारातियों ने डीजे वाले को भरपूर इनाम दिया और कहा- भाई।

रात भर तुमने जोरदार ढोल बजवाया। डीजे वाला बोला- भाई साब। मैंने तो डीजे रात ग्यारह बजे बन्द कर दिया था। आप लोग तो सुबह तक जनरेटर की आवाज पर ही नाचे जा रहे थे। होली के दिन यही होता है। अब रंगों की खुमारी कम, नशे की खुमारी ज्यादा चढ़ती है।

हमारी सरकारों का हाल भी देखिए। पहले ठेके नीलाम करती है। ठेकेदारों को ज्यादा माल बेचने के लिए बाध्य करती है। गली-गली में दुकानें खोलती है और जब नई पीढ़ी टल्ली हो जाती है तो सरकारी खर्चे पर नशा मुक्ति केन्द्र भी चलाती है और यह काम वही आबकारी विभाग बखूबी करता है जो नशा बेचने का ठेका देता है।

कसम से यह उलटबांसी अपने कबीर अंकल देखते तो बड़ी हैरत में पड़ जाते लेकिन साहब आप हमें मयख्वार न समझें। हम तो उन लोगों में हैं जो कहते हैं- उस मय से नहीं मतलब, दिल जिससे हो बेगाना, मकसूद है उस “मय” से दिल ही में जो खिंचती है। दिल में खिंची हुई मय पीने वाले दुनिया में कबीर, तुलसी या विवेकानंद जैसे महानुभाव होते हैं। – राही


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