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चीन की सफलता के सबक

Published: Feb 25, 2015 06:46:00 pm

यदि एक दशक पहले भारत में आर्थिक सुधार के लिए कौन
सा तरीका उपयुक्त है, इस पर कोई सुझाव देता

यदि एक दशक पहले भारत में आर्थिक सुधार के लिए कौन सा तरीका उपयुक्त है, इस पर कोई सुझाव देता तो सुधारवादी जमात ने उसे फर्जी अर्थशास्त्री घोषित कर दिया होता। अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों को अपरिवर्तनीय और सार्वभौमिक मानने वाले मुक्त बाजार हिमायतियों का कहना था कि जो सिद्धांत अन्य देशों में काम करते रहे हैं वे भारत में भी काम करेंगे।

बीसवीं सदी के दौरान पश्चिमी देशों द्वारा प्रवर्तित इसी आर्थिक सिद्धांत ने पूरी दुनिया को जकड़े रखा। इस सिद्धांत को 2005 में जाकर झटका लगा और यह 2008 में यह नीति लगभग छोड़ दी गई।

पश्चिमी देशों का यू टर्न

1990 के दशक की शुरूआत में जब समाजवाद पिघल रहा था, अमरीका में स्वरूप लेने वाली मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था सार्वभौमिक मॉडल के तौर पर स्थापित हो गई। समाजवाद छोड़ने के बाद के दौर में भारत में भी अमरीकी आर्थिक सिद्धांत हावी हो गए। भारतीयों में सांस्कृतिक और व्यावहारिक विभिन्नताओं को ध्यान में रखे बिना यह मान लिया गया कि जो सिद्धांत अमरीका में और अमरीका के लिए सही है, वही भारत में और भारत के लिए भी सही साबित होंगे। 2005 तक आते-आते खुद पश्चिम को अपने मॉडल का दुनिया के अन्य देशों के लिए सही साबित होने पर संदेह होने लगा।

1997 के एशियाई संकट और 2001 के डॉट कॉम संकट ने पश्चिम को पुनर्विचार करने को बाध्य कर दिया। वर्ष 2005 में पश्चिमी देशों ने उस “वाशिंगटन सर्वसम्मति” को पूर्ण रूप से नकार दिया जिसका प्रतिपादन मुक्त बाजार समर्थकों ने वित्तीय और व्यापारिक गतिविधियों के लिहाज से दुनिया को एकजुट करने की वकालत करते हुए किया था।

इसे ही बाद में भूमंडलीकरण का नाम दिया गया। जी-20 देशों के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों ने 15-16 अक्टूबर 2005 को घोषणा की, “हम यह मानते हैं कि सभी देशों के लिए विकास की एक समान अवधारणा नहीं हो सकती।

पिछले दशकों के वैश्विक अनुभवों के आधार पर हर देश को निरंतर विकास के लिए अपनी परिस्थिति और आवश्यकता के हिसाब से आर्थिक नीतियो का चयन करना चाहिए। इसके बाद वल्र्ड बैंक ने भी मई 2008 में कहा, दुनिया भर में काम करते हुए वल्र्ड बैंक ने समझा है कि आर्थिक विकास मॉडल सभी देशों के लिए एक सा नहीं हो सकता।

विकास का अर्थ बदलाव से है। इसका अर्थ यह है कि हर श्रेष्ठ युक्ति को आजमाया जाए, उन्हें नई परिस्थितियों की कसौटियों पर कसा जाए, और जो नीति काम ना करे, उसे हटा दिया जाए। पश्चिमी देशों की इतनी स्पष्ट स्वीकारोक्ति के बावजूद हमारे देश के अर्थशाçस्त्रयों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी।

मार्क्स और बाजारवाद दोनों गलत


खेती और व्यापारिक उद्यमिता से विमुख हुई समाजवादी अर्थव्यवस्था में सुधार का अर्थ देशी या विदेशी बड़े कॉर्पोरेट क्षेत्र को ही प्रोत्साहित करना समझ लिया गया। चीन को छोड़कर कहीं भी गैर कॉर्पोरेट कहे जाने वाले लघु उद्यमों को आर्थिक सुधार के दायरे में नहीं रखा गया। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था ने तो छोटे उद्योगों के खात्मे पर जश्न भी मनाया। छोटे उद्योगों को समाप्त कर बड़े उद्योग स्थापित होते रहे और इसे सृजनात्मक विध्वंस का नाम तक दे दिया गया।

आधुनिक अर्थशास्त्र हमें सिखाता है कि उत्पादन ही महत्वपूर्ण है। लघु उद्योगों के समाप्त होने पर आंसू बहाने या उन्हें बचाने का प्रयास करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। कार्ल मार्क्स के सिद्धांत पारिवारिक खेती और लघु उद्यमों को निजी पूंजीवाद मानते थे लेकिन पूंजीवादी सिद्धांत उन्हें न तो पूंजीवादी मानता है और न ही समाजवादी।


पूंजीवादी सिद्धांत के मुताबिक ये निरंतर समाप्त होने की ओर अग्रसर कुछ समय के मेहमान हैं। यहीं पर आकर मार्क्स और बाजारवाद दोनों गलत साबित हो जाते हैं। सिद्धांत और व्यावहारिक धरातल पर छोटी जोत वाले किसान और लघु उद्यमी न तो समाजवादी थे और न ही पूंजीवादी।


पूंजीवाद और समाजवाद दोनों की सोच ही गलत थी कि बड़े उद्योग ही बचे रहेंगे, छोटे उद्योगों के लिए कोई स्थान ही नहीं बचेगा। वास्तव में इन लघु उद्यमों ने इस धारणा को गलत साबित कर दिया।

चाहे अमरीका का बाजारवाद हो या चीन का समाजवाद, लघु उद्यम ही अधिकाधिक रोजगार उपलब्ध कराता है और अर्थव्यवस्था को बढ़ा रहा है। अब देखते हैं कि कैसे समाजवादी विचार ने पारिवारिक खेती और छोटे उद्यमों को नष्ट किया।


चेनोव सही, लेनिन गलत


रूस और चीन जहां पूर्ण रूप से समाजवादी अर्थव्यवस्थाएं रही हैं, वहां समाज के सबसे निचले तबके की आर्थिक गतिविधियों को समाप्त कर दिया गया। खेती करने वाले परिवारों की जमीनें और स्वरोजगार करने वालों के रोजगार छिन गए। दोनों को ही सरकारी नौकरियां दी गईं। रूस में अलेक्जेंडर चेनोव जो समझदार समाजवादी थे, ने पारिवारिक खेती को अर्थव्यवस्था के लिए अधिक प्रभावी बताया और इसे समाजवादी धारा में शामिल करने से रोकने की कोशिश की।

लेनिन ने उन्हें कैद किया और बाद में स्टालिन ने उन्हें मरवा दिया। चेनोव पारिवारिक अर्थव्यवस्था को समाजवादी और पूंजीवाद अर्थव्यवस्था से अलग बताते थे। उनकी मौत के दशकों बाद आज बहुत से आर्थिक विचारक मानते हैं कि वे बहुत सही थे और समाजवादी व पूंजीवादी सोच के अर्थशास्त्री कितने गलत।

अब, कई अर्थशास्त्री मानते हैं कि बड़ी खेती के मुकाबले लघु और पारिवारिक खेती आर्थिक और पर्यावरण की सुरक्षा के लिहाज से बहुत बेहतर है। लम्बे समय तक पूर्ण समाजवादी रहे रूस में अब समाजवाद ढीला पड़ने पर लोगों के पास कृषि योग्य भूमि का तीन प्रतिशत हिस्सा है। इसी तीन फीसदी भूमि से रूस में खाने योग्य सामग्री का 50 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त होता है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 3.5 करोड़ से अधिक परिवार घरेलू खेतीबाड़ी में संलग्न हैं।


यह घरेलू खेती रूस को 92 फीसदी आलू, 77 फीसदी अन्य सब्जियां, 87 फीसदी फल उपलब्ध कराती है। इसी क्षेत्र से 59 फीसदी मांस और 49 फी सदी दूध भी मिलता है। यह व्यवस्था ना तो समाजवादी है और ना ही पूंजीवादी। यह केवल पारिवारिक अर्थव्यवस्था है। भारत में क्या ऎसा कोई आधुनिक अर्थशास्त्री है जिसने चेनोव की बात पर ध्यान दिया हो?


माओ थे गलत, डेंग सही

इसी तरह 1950 के दशक में चीन द्वारा की गई भारी भूल को सत्तर के दशक के उत्तरार्घ में डेंग शियाओपिंग ने महसूस किया और “नगर तथा गांव उद्यम” के द्वारा स्वरोजगार तथा रोजगार को पुनर्जीवित करना शुरू किया। चीन में आर्थिक सुधार की शुरूआत लाखों लोगों की सरकारी नौकरी से छंटनी और उन्हें स्वरोजगार के लिए मजबूर करने के माध्यम से हुई।

परिणाम? नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री रोनॉल्ड कोअर्स ने निंग वांग के साथ लिखी अपनी किताब ” चीन कैसे बना पूंजीवादी” (2013) में लिखा है कि “चीन मेंअस्सी के दशक के आरंभ में स्वरोजगार में लगे हुई नाई तथा ठेले लगाने वाले लोग सर्जन और परमाणु वैज्ञानिक से अधिक कमा रहे थे तथा स्वरोजगार आधारित पारिवारिक व्यवसायों की संख्या 1978 में 140000 से बढ़कर 1981 में 26 लाख हो गई थी।” 1980 में मात्र 4 प्रतिशत ग्रामीण श्रमिक अपने छोटे व्यवसाय चलाने में लगे हुए थे। 2007 में स्वरोजगार निर्भर ग्रामीण श्रमिकों की संख्या (जो कि घर पर ही रहते थे) बढ़कर 15 प्रतिशत हो गई थी। चीन में गरीबों की संख्या भी इस दौरान 15 करोड़ 40 लाख कम हो गई, जो कि चीन के सुधार के तीन दशक के समय में सबसे अधिक रही।


इस दौर के चीन में गरीबी कम करने में विदेशी निवेश की भूमिका नाम मात्र की रही। विदेशी निवेश की पूंजी से संचालित व्यवसायों में रोजगार की संख्या 1985 में 60,000 थी तथा यह 1990 में बढ़कर 660000 हो गई थी। जबकि इसी दौर में यह संख्या “नगर तथा गांव उद्यम” के लिए क्रमश: 6 करोड़ 98 लाख से बढ़कर 9 करोड़ 27 लाख हो गई थी। 1970 के दशक में चीन की आर्थिक वृद्धि की शुरूआत और अगले दो दशकों में गरीबी कम करने में मिली सफलता पूरी तरह से इसके ग्रामीण विकास के प्रयासों और सामान्य आंतरिक सुधारों का परिणाम थी।


“नगर व गांव उद्यम” ही सही राह


अब 2 करोड़ 80 लाख “नगर तथा गांव उद्यम” लगभग 12 करोड़ 80 लाख चीनियों को रोजगार देते हैं जो कि चीन के विनिर्माण रोजगारों का दो-तिहाई हिस्सा है। यह तो थी चीन के आरंभिक आर्थिक सुधारों की बात। डेग ने चीन को कैसे बदला इस विषय पर सबसे प्रामाणिक पुस्तक “डेंग शिआयोपिंग और चीन का रूपांतरण” में लेखक ने कहा है “डेग ने महसूस किया कि वह विदेश से कोई पूरी प्रणाली ही आयात नहीं कर सकते, क्योंकि कोई अनजानी प्रणाली चीन की अनोखी जरूरतों पर खरी नहीं उतर सकती थी – जिसके पास अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत होने के साथ जो विशाल, विविध और गरीब भी था। डेंग ने महसूस किया कि, जिसे कि मुक्त बाजार के चिंतक महसूस नहीं कर सके, कि सिर्फ बाजार को खोल देना समस्याओं का हल नहीं हो सकता। संस्थाओं का धीरे-धीरे निर्माण जरूरी है। वह अधिकारियों को सभी जगह जाने और यह सीखने के लिए प्रोत्साहित करते कि सफलता कैसे मिलती है…पर उन्हें देश में प्रयोग करना था कि क्या इससे चीन में सफलता मिल सकती है।” डेंग की सफलता का जो सूत्र था वही नीति आयोग का मूल विचार है।

क्या सुनी जाएगी नीति आयोग की


रूसी राज्याधारित पूंजीवाद में खत्म हो चुकी छोटी खेती-किसानी को रूस को पुनर्जीवित करना पड़ा था तथा चीन के समाजवादी दौर में मिट चुके स्वरोजगार को चीन को पुन:स्थापित करना पड़ा था। पर भारत के आंशिक समाजवाद में दोनों का ही अस्तित्व बना रहा और अर्घ-समाजवाद हो या फिर अर्घ -मुक्त बाजार दोनों ही गतिविधियां फलती-फूलती रहीं। आर्थिक सुधारों के बारे में सामान्य समझ है कि इसमें निजी अथवा विदेशी कॉरपोरेट पूंजी को प्रोत्साहित किया जाता है, इसके विपरीत रूस में इसका आशय रहा है निजी खेती को भी पुनर्जीवित करना तथा चीन में “नगर तथा गांव उद्योग” के नाम से छोटे व्यवसायों को पुन: पैदा करना।

इसलिए भारत में आर्थिक सुधार का असल में आशय क्या होना चाहिए? मोदी का नीति आयोग ठीक यही बात कहता है। क्या एनडीए की सरकार मोदी के विचारों को सभी स्तरों पर समाहित कर उसी के अनुसार काम करेगी।

एस. गुरूमूर्ति, कॉर्पोरेट सलाहकार
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