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खतरनाक शुरूआत

Published: Mar 05, 2015 07:17:00 am

यह तो शुरूआत भर है। जम्मू-कश्मीर में भाजपा-पीडीपी गठबंधन छह साल चल गया तो ना
जाने क्या गुल

सत्ता का नशा होता ही ऎसा है कि एक बार चढ़ जाए तो उतरने का नाम ही नहीं लेता। यह न राजनीतिक दल को पहचानता है और न किसी राजनेता को। भारतीय जनता पार्टी और उसके नेताओं पर भी इन दिनों सत्ता की खुमारी सवार है।


जनसंघ के गठन से लेकर आज तक भारतीय जनता पार्टी सत्ता का स्वाद तीन-चार बार चख चुकी थी लेकिन अपने दम पर पूर्ण बहुमत का नशा इतना गहरा है कि नौ महीने बाद भी उतरने की बजाए गहराता जा रहा है।

जम्मू-कश्मीर में पीपुल्स डेमोके्रटिक पार्टी के साथ सरकार बनाने को लेकर भाजपा और संघ का एक धड़ा पक्ष में नहीं था। यह धड़ा जानता और मानता था कि पीडीपी के साथ मिलकर सत्ता का सुख तो भोगा जा सकता है लेकिन इससे पार्टी को बड़ा नुकसान झेलना पड़ेगा। लेकिन इस धड़े के तर्क चल नहीं पाए जिसका नतीजा जम्मू-कश्मीर में मुफ्ती सरकार के रूप में सामने है। मुफ्ती मोहम्मद के शपथ लेते ही पीडीपी ने जो तेवर दिखाए वह भाजपा को बेशक शर्मसार नहीं लगें, आम देशवासी इन तेवरों से अपने आपको जरूर शर्मसार महसूस कर रहा है।

पीडीपी नेता सरेआम केन्द्र सरकार से आतंककारी अफजल गुरू के अवशेष्ा मांग रहे हैं और भाजपा खामोश बैठी है। पीडीपी भाजपा के साथ मिलकर सरकार नहीं चला रही होती तो उसके बयान पर भाजपा पूरे देश को सिर पर उठा लेती। यह दिखाने के लिए कि उनसे बड़ा देशभक्त दूसरा है ही नहीं। अफजल गुरू इस देश का, सवा सौ करोड़ लोगों का दुश्मन था और उसके साथ वही हुआ जो एक आतंककारी के साथ होना चाहिए। भाजपा तो पिछले नौ महीने से केन्द्र में शासन चला रही है लेकिन पीडीपी विधायकों ने यह मुद्दा इस रूप में कभी नहीं उठाया।

शपथ लेते ही मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद का राज्य में शांतिपूर्ण चुनाव के लिए पाकिस्तान और आतंककारियों को धन्यवाद देना और फिर अफजल गुरू के अवशेष्ा मांगना सोची-समझी रणनीति के सिवाय कुछ नहीं।

संसद में गृहमंत्री भले सईद और पीडीपी विधायकों के बयान से पल्ला झाड़ लें लेकिन ऎसे दल के साथ सत्ता सुख भोगने के बारे में वे चुप क्यों हैं? देश के सम्मान सेऊपर एक राज्य तो क्या समूचे देश की सत्ता भी कोई मायने नहीं रखती। यह तो शुरूआत भर है। जम्मू-कश्मीर में भाजपा-पीडीपी गठबंधन छह साल चल गया तो ना जाने क्या गुल खिलाएगा? भाजपा को अभी महसूस नहीं हो रहा होगा लेकिन सिद्धांतों और विचारधारा के साथ समझौता करना किसी भी हाल में हितकारी नहीं होता।

नेताओं के लिए सत्ता मोह सबसे बड़ा हो सकता है लेकिन इन राजनेताओं को गद्दी पर बिठाने वाली जनता के लिए देश के आत्म-सम्मान से बढ़कर और कुछ नहीं होता। अच्छा हो भाजपा भी इस भावना को समय रहते समझ जाए।

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