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अलग-अलग काल से गुजरता यह पर्व

Published: Mar 05, 2015 07:30:00 am

फिर आ गया उत्साह और उमंग का वासन्ती
पर्व होली। होली और दिवाली उत्तर भारत के दो ऎसे प्रमुख पर्व हैं जो

फिर आ गया उत्साह और उमंग का वासन्ती पर्व होली। होली और दिवाली उत्तर भारत के दो ऎसे प्रमुख पर्व हैं जो मुहावरों तक में रच बस गए हैं। वैसे किसी न किसी रूप में ये सारे देश में मनाए जाने वाले राष्ट्रीय पर्व हैं।

होली तो अन्तर्राष्ट्रीय पर्व कहा जा सकता है क्योंकि वसंत के आरम्भ में इस प्रकार के उत्सवों की परम्परा, जिसमें सारी कटुताओं और संकोच को भुलाकर सभी वर्गो के नर-नारी उन्मुक्त हास-परिहास और स्वच्छंद विचरण करते हैं, विश्व के सभी देशों में पाई जाती है।

वेदकाल : भारत में यह उत्सव वेदकाल से ही किसी न किसी रूप में चला आ रहा है। वेदकालीन यज्ञों में वैश्वदेव का नाम यज्ञ फाल्गुन की पूर्णिमा को किया जाता था, जिसमें सभी देवताओं के लिए भोज्य पदार्थ बनाए जाते थे। इसी प्रकार नया धान आने पर उसे पहले आहुति के रूप में देवताओं को समर्पित कर उसके बाद ही उपयोग में लिए जाने की परम्परा थी।

वर्षों में फसल के समय किए जाने वाले इन यज्ञों को आग्रयण या नवधान्येष्टि कहा जाता था। वेदकालीन यह परम्परा अब तक चली आ रही है। होली की अग्नि में नए धान को भूनने की प्रथा अब भी है। लगता है यह वैदिक परम्परा के इस यज्ञ का ही प्रतीक है।

ऎसी परम्पराएं चाहे किसी न किसी रूप में सदा से चलती रही हों, इस उत्सव का सबसे अधिक महत्वपूर्ण पहलु मदनोत्सव या वसंत के प्रारम्भ में खुली उमंगों की अभिव्यक्ति के उत्सव के रूप में मनाए जाने वाला आनंद बन गया। इस दृष्टि से यह एक बहुत बड़ा पर्व है।

प्राचीन भारत : होली के साथ प्रहलाद की जो धार्मिक कथा जुड़ गई है, उसे विद्वान बहुत बाद की घटना मानते हैं। प्राचीन ग्रंथों में इन दिनों में मनाए जाने वाले जिन उत्सवों का वर्णन मिलता है वे पूर्णत: नागरिक और सामाजिक उत्सव हैं। वात्स्यायन के कामसूत्र में फाल्गुन मास में मनाए जाने वाले अनेक वासंती उत्सवों का विवरण है।

पुष्पावचायिका नामक क्रीडा भी इस समय की जाती थी, जिसमें पुष्प क्रीड़ा और नृत्य गीत आदि का रिवाज था। इसी ऋतु में बाहर जाकर पिकनिक मनाने जैसी क्रीड़ा भी की जाती थीं। आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व हुए कामसूत्रकार वात्स्यायन ने अभ्यूषखादिका नाम की एक ऎसी क्रीड़ा का वर्णन किया है, जिसमें घर से बाहर किसी उद्यान में कंडों पर चूरमा या बाटी जैसी चीजें बनाकर खाई जाती थीं।

सुवसन्तक और मदनोत्सव जैसे वासन्ती उत्सवों का भी कामसूत्र तथा अन्य प्राचीन साहित्य में उल्लेख है। लगता है सुवसन्तक की परम्परा वसन्त पंचमी के रूप में और मदनोत्सव की परम्परा पूरी होली के उत्सव के रूप में आज भी अक्षुण्ण चली आ रही है।

युवक-युवतियां की स्वच्छंद रंग क्रीड़ा के जिस उत्सव का उल्लेख प्राचीन काव्यों में मिला है, आज तक इसका वैसा ही रूप चला आ रहा है। साहित्य के लिए ही नहीं हिन्दी फिल्मों के लिए भी यह उत्सव उन्मुक्त अठखेलियों और हंसी-खुशी का मुधकोष लुटाने वाला एक अटूट खजाना खोल देता है।


साहित्य : शालिवाहन का “गाथा सप्तशती” प्राकृत गाथाओं का अनूठा संग्रह है, जिसमें जनपदों के निश्छल लोकजीवन और अछूती लोक भावनाओं का अद्भुत रूप से सरस वर्णन मिलता है।

युवक-युवतियों की जो क्रीडाएं मदनोत्सव के अवसर पर इन गाथाओं में हैं उनसे दोनों परम्पराएं स्पष्ट हो जाती हैं, रंग क्रीड़ा की यहां तक कि कीचड़ मलने और गुलाल उछालने की उन्मुक्त क्रीड़ाओं की परम्परा तथा श्ृंगार भावनाओं की खुली अभिव्यक्तियों की परम्परा। रंग क्रीड़ाओं के वर्णनों का आधार लेकर हिन्दी कवियों ने भी अनेक सुललित पद्य लिखे हैं। इसी का आधार लेकर बिहारी सतसई में महाकवि बिहारी ने भी एक दोहा लिखा है-

मैं लै दयो, लयो सु कर,
छुअत छनक गौ नीर।
लाल तिहारो अरगजा
उर ह्वै लग्यौ अबीर H


मध्य काल : होली के अवसर पर उन्मुक्त विहार, अबीर-गुलाल के खेल तथा नृत्य-गीत आदि के प्रमोदों की परम्परा भारत में सदियों से रही है। मुगलकाल में बादशाहों और सामन्तों ने भी इस परम्परा को बखूबी निभाया। जहांगीर से लेकर वाजिद अली शाह तक के काल में रंग और गुलाल से किस प्रकार होली खेली जाती थी, उसका प्रमाण तत्कालीन लघु चित्रों में स्पष्ट देखा जा सकता है।

कलानाथ शास्त्री, सदस्य, संस्कृत आयोग

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