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मनरेगा पर दुविधा भारी

Published: Mar 01, 2015 06:18:00 pm

मनरेगा के लिए बजट आवंटन पिछले साल से भी अधिक
किया गया है। यह वही योजना है जिसका

MGNREGA photo

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मनरेगा के लिए बजट आवंटन पिछले साल से भी अधिक किया गया है। यह वही योजना है जिसका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक दिन पहले ही संसद में “गड्ढे भरने का काम” करार देकर उपहास उड़ाया था।

जिस योजना को प्रधानमंत्री खुद ही अनुपयोगी मानते हों उस योजना को ही इतने भारी-भरकम बजट आवंटन के औचित्य को किस तरह से समझा जाए? क्या प्रधानमंत्री मनरेगा की आलोचना सिर्फ इसलिए कर रहे थे कि वह पूर्ववर्ती सरकार ने शुरू की थी या फिर सरकार में इतना राजनीतिक साहस नहीं रहा कि वह एक गलत योजना को खारिज कर सके और उसकी जगह किन्हीं बेहतर और उपयोगी योजनाओं में यह पैसा लगाए। क्या है हकीकत, पढिए आज के स्पॉटलाइट में जानकारों की राय :

राजनीतिक साहस नहीं रहा सरकार में
दिल्ली में भाजपा की हार के बाद मोदी सरकार राजनीतिक साहस की कमी से जूझ रही है। इसलिए सरकार में यह साहस नहीं रहा कि वह मनरेगा जैसी नाकाम रोजगार योजनाओं को बंद कर सके। भाजपा को डर है कि अगर उसने इस तरह की योजनाओं को बंद किया तो उन्हें गरीब विरोधी करार दे दिया जाएगा।

दिल्ली की हार से भाजपा ने यह बिल्कुल गलत निष्कर्ष निकाल लिया है। दिल्ली में भाजपा की हार का कारण यह कतई नहीं रहा है कि आप पार्टी ने दिल्ली में फ्री बिजली और पानी देने का वायदा किया था। हकीकत यह है कि भाजपा को दिल्ली में उच्च, मध्यम और निम्न तीनों ही वर्ग में आप से कम वोट मिले हैं।

यह सिर्फ फ्री बिजली या पानी के वादों के कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उच्च और मध्यम वर्ग को इसका फायदा नहीं मिला है। सच यह है कि 9 माह के कार्यकाल में भाजपा ने अपने चुनावी वायदों जैसे भ्रष्टाचार, काले धन और रोजगार सर्जन की दिशा में कुछ नहीं किया था। मई 2014 के बाद से कई विधानसभा चुनाव जीतने के बाद ऎसा लगने लगा था कि उनमें भी कांग्रेस की तरह अहंकार आ गया है। इसलिए दिल्ली के लोगों ने भाजपा को सबक सिखाने के लिए आप को वोट दिया है, जिससे भाजपा से लड़ने के लिए भी कोई पार्टी रहे।

मनरेगा को जारी रखने की कतई जरूरत नहीं थी। मनरेगा को 30 हजार करोड़ से अधिक बजट का जो आवंटन किया गया है वह किसानों के कृषि प्रशिक्षण, सड़क निर्माण, सिंचाई सुविधाओं और स्वच्छ भारत अभियान के टॉयलेट आदि के निर्माण लिए किया जाता तो बेहतर होता। आखिर इन कामों के लिए भी तो लोगों को रोजगार दिया ही जाएगा। अभी मनरेगा में जो काम होता है उससे किसी स्थाई परिसंपत्ति का निर्माण नहीं हो सकता।

मनरेगा में अधिक से अधिक लोगों को काम दिए जाने के उद्देश्य से यह प्रावधान जोड़ा गया है कि इस योजना के अंतर्गत भारी मशीन और महंगी निर्माण सामग्री आदि का इस्तेमाल नहीं हो सकता। मिट्टी, पत्थर आदि से ही निर्माण कार्य किया जाता है। इसलिए मनरेगा में अगर कोई सड़क बनती भी है तो वह एक ही बारिश में धुल जाती है। किसी भी स्थाई बुनियादी ढांचे जैसे पक्की सड़क, नहर आदि खोदने का काम इसमें नहीं होता और निम्न गुणवत्ता वाली परिसपंत्तियों को निर्माण ही इसमें होता है।

इस योजना के क्रियान्वयन में सरकार अब भी परिवर्तन तो कर सकती है पर इसमें वह राजनीतिक साहस नहीं बचा है। सरकार को लगता है कि अगर वह ऎसा कुछ करेगी तो उसे गरीब विरोधी समझ लिया जाएगा। बजट के बाद सरकार पर ऎसे आरोप पहले ही लग चुके हैं कि सारा पैसा कॉर्पोरेट के पास जा रहा है।

मनरेगा की दूसरी खामी है कि यह उस योजना से भी खराब है जिसकी नकल के आधार पर यह बनाई गई। महाराष्ट्र में 1970 से एक “रोजगार गारंटी योजना” चली आ रही थी जो कि मनरेगा लागू होने के बाद बंद हुई है। इस योजना के अंतर्गत हर उस जरूरतमंद को सिर्फ 100 दिन नहीं, सालभर काम देने का प्रावधान था, जो कोई भी सरकार के पास काम मांगने जाता था। पर इसमें एक ही शर्त थी कि इसमें मजदूरी बाजार भाव से कम रखी गई थी।

यह भी एक तरह की सब्सिडी ही थी, पर इस तरह की योजनाओं को “क्लीन सब्सिडी” कहा जाता है। क्योंकि इसमें अपने आप ही सिर्फ जरूरतमंद ही काम मांगने आते थे। इसमें काम करने वाले श्रमिक बाजार में बेहतर मजदूरी की तलाश भी करते रहते थे। जैसे ही उनको बाजार में अच्छी मजदूरी मिल जाती, वे यहां काम छोड़ देते। जबकि काम की गारंटी कानून से पोषित हो रही मनरेगा योजना हकीकत में न तो काम की गारंटी सुनिश्चित करती है (सिर्फ 100 दिन काम की गांरटी है) और न ही वर्ष भर न्यूनतम आय का सहारा ही बन सकती है।

न्यूनतम मजदूरी बाजार से ज्यादा निश्चित करने और कानूनन काम की गारंटी का अधिकार दिए जाने से मनरेगा में काम पा सकने वाले अब बाजार में काम ढूंढ़ने का प्रयास ही नहीं करते। जबकि इन लोगों को 100 दिन के बाद काम से हटाया जाता है, जो कि पुरानी स्कीम में नहीं होता था। साथ ही, पुरानी स्कीम में जो निर्माण कार्य होते थे वो भी स्थाई होते थे। इसलिए मनरेगा को वर्तमान रूप में जारी रखने का औचित्य नहीं है। पार्थ जे शाह सेटर फॉर सिविल सोसायटी


क्यों फैलाएं हाथ…
एक ओर प्रधानमंत्री द्वारा संसद में मनरेगा पर कटाक्ष करना और दूसरी ओर वित्त मंत्री द्वारा बजट में उसी योजना के लिए आवंटन बढ़ाना राजनीतिक दोगलापन दर्शाता है। नरेंद्र मोदी सत्ता में आने के पहले भी इस योजना पर कटाक्ष करते थे और सत्ता में आने के बाद भी वह यही बात कह रहे हैं।

उन्होंने संसद में कहा कि मैं मनरेगा को इसलिए जीवित रखना चाहता हूं क्योकि यह कांग्रेस की समाप्ति का प्रतीक है। अब सवाल है कि फिर मोदी इसे अपना प्रतीक क्यों बनाए रखना चाहते हैं? दरअसल, जब यह योजना बनी थी, तभी सेे भ्रष्टाचार की आशंकाएं प्रकट होने लग गई थीं। माना जाता है कि मनरेगा के लिए आवंटित राशि का 30 फीसदी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। अब सवाल यह है कि इस योजना से गरीबी हटाने में कितनी मदद मिलती है या मिलती ही नहीं है?


एक सर्वमान्य तथ्य यह है कि मनरेगा सरीखी नकद राशि प्रदान करने वाली योजनाएं न केवल प्रशासनिक स्तर पर दुरूपयोग का शिकार होती हैं बल्कि जिस परिवार को नकद धनराशि मिलती है, वहां भी इसका दुरूपयोग होता है। भारत में कई क्षेत्रों में मनरेगा में पुरूष की बजाय महिलाएं काम करती हैं और उससे होने वाली आय को पुरूष नशे आदि में खर्च कर देते हैं। इस योजना की अनिवार्यता भी है कि परिवार के किसी भी वयस्क को काम देना होता है, भले ही वह शराबी हो, नशेड़ी हो। मनरेगा के पीछे भावना यह थी कि इसका उपयोग उत्पादक सम्पत्ति निर्माण में होगा पर देखा यह गया है कि लोग केवल मिट्टी उठा रहे हैं।

कई जगह अनपढ़ लोगों के अंगूठे के निशान लेकर उनकी मजदूरी हड़पी जा रही है। हालांकि एक अच्छी बात यह है कि मनरेगा के बाद ग्रामीण इलाकों में दैनिक मजदूरी बढ़ी है और गरीबों को आंशिक लाभ भी हुआ है। पर रोजगार के बारे में एक शाश्वत नियम यह है कि ऎसा रोजगार दिया जाए, जो उत्पादक हो और उससे अर्जित आय से व्यक्ति की क्रय शक्ति बढ़े और वह सम्मानपूर्वक अपना जीवन चला सके। इस पर मनरेगा खरी नहीं उतरती है। इसमें लोगोें को सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है, जो कि भीख की तरह भी है। इससे गरीबी का स्थायी निदान नहीं होता है।

गरीबी का स्थायी निदान
जिन ग्रामीण इलाकों में केवल बारिश से ही सिंचाई होती है, वहां अगर सरकार सिंचाई का प्रबंधन कर दे तो उस भूमि का उत्पादन बढ़ सकता है। इससे गरीबी का एक स्थायी निदान भी होगा। मनरेगा में दिया जाने वाला पैसा वैकल्पिक तौर पर जल संधारण या जलग्रहण योजना में लगाया जाए तो बेहतर होगा। भारत की 82 फीसदी ग्रामीण आबादी में से 60 फीसदी बिना सिंचाई की सुविधा में रहता है।

इन क्षेत्रों की गरीबी हटाने के लिए मनरेगा के 34 हजार करोड़ रूपए सिंचाई सुविधा में लगा दिए जाएं तो वहां कृषि उत्पादकता 1.1 टन प्रति हैक्टेयर से बढ़कर चार टन प्रति हैक्टेयर हो सकती है। इससे गरीबी, कुपोषण का स्थायी निदान होगा। लोग अपनी क्रयशक्ति का अधिकारपूर्वक इस्तेमाल कर सकेंगे। जब तक लोग सरकार के आगे हाथ फैलाते रहे तब तक वे सम्मान से नहीं जी सकते। मनरेगा जैसी योजनाओं से होने वाला भ्रष्टाचार भी खत्म हो जाएगा। मोदी मनरेगा के खर्च का उत्पादक लाभ सुनिश्चित करें और गरीबी के निदान की ओर काम करें। गरीबों को सरकारी शिकंजे से छुटकारा मिले। सोमपाल शास्त्री, पूर्व कृषि मंत्री


रोजगार योजना तो चाहिए
भारत में पिछले तीस-चालीस वर्ष से कोई न कोई रोजगार योजना चलती रही है। वह चाहे जवाहर रोजगार योजना हो, स्वर्ण जयंती रोजगार योजना हो या फिर मनरेगा जैसी योजना जो कि यूपीए सरकार ने शुरू की थी। मोदी सरकार ने भी मनरेगा को बंद नहीं किया है। इसी से यह जाहिर है कि सरकार इसकी जरूरत तो महसूस कर रही है। वह जरूरत राजनीतिक भी हो सकती है। लेकिन गरीबों के लिए काम की गारंटी देने वाली कोई योजना हो, इसकी जरूरत देश में है।

जहां तक मनरेगा में अधिक बजट आवंटन की बात है तो वाजपेयी की एनडीए सरकार के दौरान जो स्वर्ण जयंती रोजगार योजना चलती थी उसमें बजट का आवंटन जीडीपी के अनुपात की तुलना में 0.4 प्रतिशत था। यह आवंटन वर्तमान में मनरेगा को जीडीपी के अनुपात की तुलना में 0.27 प्रतिशत आवंटन से अधिक है। पर इस योजना का वो असर नहीं दिखा था जो कि मनरेगा का हुआ।

मनरेगा एक बेहतर योजनाबद्ध तरीके से बनाई गई योजना है। सरकार की सभी रोजगार योजनाओं की तरह गड़बडिया इसमें भी हैं। एक कमी तो यही है इसमें बहुत अच्छी परिसपंत्तियों का निर्माण नहीं हो सकता। इस दिशा में योजना में जरूरी परिवर्तन किए जाने चाहिए। पर हमारे देश में रोजगार योजना की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता। प्रो. अभिजीत सेन पूर्व सदस्य, योजना आयोग

राजनीतिक लागत की चिंता
मनरेगा की सबसे बड़ी कमी यह रही है कि उसमें जो काम होते थे वो बहुत उत्पादक नहीं हुए। इसलिए मनरेगा की आलोचना होती रही है। अभी सरकार ने मनरेगा के लिए सिर्फ बजट आवंटन ही किया है। बजट के बाद भाजपा की ओर से जो बयान आए हैं उससे यह लगता है कि वह योजना के क्रियान्वयन में कुछ परिवर्तन भी करना चाहती है।

बजट में क्रियान्वयन संबंधी पहलू उजागर किए जाएं यह जरूरी भी नहीं होता। पर यह सच है कि राजनीतिक रूप से मनरेगा जैसी योजना को हटाना एकदम संभव नहीं है। भारत में किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा जैसी योजनाओं के अभाव में इस तरह की योजनाएं वंचित तबके को सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराती हैे। इसलिए मनरेगा को खत्म करने से सरकार पर गरीब विरोधी होने का आरोप लगेगा। भाजपा को इसी वर्ष बिहार में चुनाव लड़ना है। इसके अलावा राज्यसभा में भी सरकार के पास बहुमत नहीं है। वहां सरकार अन्य दलों के समर्थन पर आश्रित है। प्रो. अंशुमान गुप्ता
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