सिर मुड़ाते ही ओले पडे
पार्टी जब अपने वादों को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ रही हो, ऎसे
समय में शीर्ष नेतृत्व में टकराहट
दिल्ली विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित जीत हासिल करने वाली आम आदमी पार्टी में खींचतान की खबरें चौंकाने वाली हैं। चौंकाने वाली इसलिए कि दिल्ली की सत्ता संभाले एक महीना भी पूरा नहीं हुआ और शीर्ष नेतृत्व में टकराव की खबरें सामने आने लगीं। खबरें यहां तक तैर रही हैं कि पार्टी के संस्थापक सदस्य योगेन्द्र यादव को राजनीतिक मामलों की समिति से बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है।
किसी भी राजनीतिक दल में फैसले लेने वाला एक समूह होता है जिसमें समय-समय पर बदलाव होना आम बात है। अन्ना आंदोलन के गर्भ से निकली आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में ऎसे लोग हैं जिनका राजनीति से कभी सरोकार नहीं रहा। पार्टी के मुखिया और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने सरकारी सेवा छोड़कर राजनीति में कदम रखा तो मनीष सिसोदिया, आशुतोष और आशीष खेतान सक्रिय पत्रकारिता छोड़कर समाज में बदलाव के लिए आगे आए।
जाने-माने वकील प्रशांत भूषण और चुनावी राजनीति के विशेषज्ञ समझे जाने वाले योगेंद्र यादव भी आम आदमी की आवाज बुलंद करने के लिए पार्टी के साथ जुड़े। अलग-अलग धाराओं से आने वाले इन तमाम लोगों का मकसद बदरंग होती राजनीति में नए रंग भरना था। भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और जाति-धर्म की राजनीति को बदलकर ये लोग योग्य और ईमानदार छवि के लोगों को राजनीति में लाने के पक्षधर थे। सवा साल पहले दिल्ली विधानसभा चुनाव में दूसरे नंबर की पार्टी बनकर इन्होंने दिखा दिया कि जनता ऎसे लोगों के समर्थन को तैयार है।
कांग्रेस से मिलकर दिल्ली में सरकार बनाने की इनकी रणनीति कारगर भले ना हुई हो लेकिन आम जनता ने आम आदमी पार्टी पर विश्वास बनाए रखा। लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बावजूद पार्टी ने हौसला नहीं खोया और पिछले महीने हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में सभी दलों का सफाया करके ऎतिहासिक जीत हासिल की। पार्टी जब अपने वादों को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ रही हो, ऎसे समय में शीर्ष नेतृत्व में टकराहट आम आदमी के लिए पीड़ादायक मानी जाएगी।
आम आदमी पार्टी की दिल्ली जीत एक राज्य में सत्ता हासिल करने से अधिक उस आंदोलन की जीत मानी जाएगी जिसे आम आदमी ने सफल बनाके दिखाया था। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में मत-भिन्नता होना बड़ी बात नहीं।
किसी भी लोकतांत्रिक दल में मत-भिन्नता का होना उसकी ताकत का अहसास कराता है लेकिन इस मत-भिन्नता के टकराहट में बदलने को उचित नहीं ठहराया जा सकता। पार्टी नेतृत्व अपने को नेता समझने की बजाय कार्यकर्ता समझें और मिल-बैठकर हल निकालें। साथ ही प्रयास ऎसे हों ताकि बंद कमरे की बात बाहर निकलकर बतंगड़ न बनने पाए।
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