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देशी समस्या, देशी समाधान

Published: Mar 04, 2015 06:47:00 am

बजट 2105-16, वर्तमान सरकार के पहले पूर्णकालिक बजट पर ऊपर से नीचे तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छाप

बजट 2105-16, वर्तमान सरकार के पहले पूर्णकालिक बजट पर ऊपर से नीचे तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छाप साफ नजर आती है। बजट एक से अधिक अथोंü में “गेम चेंजर” है। पहला परिवर्तन है कि यह भारत पर अधिक केंद्रित है।

भारत सरकार के अमरीका निवासी आर्थिक सलाहकार द्वारा तैयार की गई आर्थिक समीक्षा 2014-15 में जिन “बिग-बैंग” सुधारों की वकालत की गई थी, उनको नहीं अपनाने के बाद भी इस बजट को अभिजात्य समीक्षकों ने सुधारवादी और विकास उन्मुख करार दिया है। बजट ने भारत में बजट को लेकर चलने वाली सामान्य बहसों को भी बदल दिया है। पहली बार भारत के किसी बजट में राष्ट्रीय विकास के लिए प्रयासों की संकल्पना बीज रूप में है और बाहरी कारक योजक तत्व तक ही सीमित हैं।

पहली बार बदला रूख
मीडिया के तात्कालिक विमर्श में इस बजट के कई “गेम चेंजर” तत्वों पर प्रकाश नहीं डाला गया है। इसमें भी सबसे महत्वपूर्ण है अब तक अनुदान नहीं पाने वाले 5 करोड 80 लाख लघु तथा अति लघु अनौपचारिक क्षेत्र के व्यवसायों को अनुदान देने का नया एजेंडा। इनमें भी दो तिहाई से अधिक इकाइयां एससी, एसटी और ओबीसी द्वारा संचालित हैं। वे लाखों ग्रामीण और अर्ध ग्रामीण उद्यमी और 12 करोड़ 80 लाख रोजगार पैदा करते हैं।

इतनी नौकरियां पैदा करने वाला यह क्षेत्र भी अपनी सिर्फ 4 प्रतिशत जरूरतें ही बैंकों से पूरा कर पाता है। सरकारें इस क्षेत्र की उपेक्षा अब तक यह सोच कर करती आई थीं कि यह तो भूमंडलीकरण की शक्तियों के सामने सुख-मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। पर यह क्षेत्र भूमंडलीकृत भारत में सबसे तेजी से बढा है। यह एक ऎसा तथ्य है जिसकी ओर भारत के नीति निर्माताओं ने अपनी आंखें मंूद रखी थीं। यह समाचार पत्र भारत की अर्थव्यवस्था को गति देने के उद्देश्य से इस क्षेत्र के लिए नए वित्तीय ढांचे की जरूरत को आवाज देता रहा है।

यह पहली सरकार है जिसने इस क्षेत्र की रोजगार पैदा करने की संभावनाओं को महसूस किया है। मोदी सरकार ने यह भी महसूस किया कि बैंक प्रणाली इस क्षेत्र की धन जरूरतों के लिए उपयुक्त नहीं है। इसलिए इस बजट में इस क्षेत्र के लिए एक नया ढांचा खड़ा किया गया है, माइक्रो यूनिट डेवलपमेट एंड रीफाइनेंस एजेंसी (मुद्रा)। “मुद्रा” को 20 हजार करोड़ की आधार पूंजी प्रदान की गई है और उधारी गारंटी के लिए 3000 करोड रूपए की बजट सहायता भी। मुद्रा को एक अलग कानून के माध्यम से अस्तित्व में लाया जाएगा।

यह उन लाखों उद्यमियों की वित्तीय जरूरतों को पूरा करेगा जो कि अभी 120 प्रतिशत से 365 प्रतिशत की अति ब्याज दरों पर उधारी लेता है। यह देखना होगा कि इस नए उधारी ढांचे में वर्तमान निजी वित्त दाताओं को कैसे शामिल किया जाता है। भारत के इस अनोखे सर्वाधिक रोजगार केंद्रित पर वित्तीय सहायता के लिए पूर्ण रूप से मोहताज इस क्षेत्र की जरूरतों के लिए यह पूरी तरह से स्वदेशी, भारत केंद्रित और नवाचार आधारित हल है।

बताना होगा विदेशी खाता
बजट में अगला “गेम चेंजर” है वह कानून जो कि विदेशों में काला धन का पता लगाने के लिए प्रस्तावित है। यह पहली बार है कि जब भारत का कोई कानून किसी भारतीय पासपोर्ट रखने वाले व्यक्ति के लिए यह जिम्मेदारी प्राथमिक रूप से सुनिश्चित करेगा कि अपने विदेशी खाते की जानकारी नहीं देने पर उस व्यक्ति पर मनी लॉन्ड्रिंग का मामला दर्ज होगा, जो कि विदेशों में अवैध काला धन पता लगाने में वैश्विक सहयोग पाने के लिए जरूरी है

भारत का कॉरपोरेट वर्ग इस प्रस्तावित कानून के बारे में अनावश्यक ही आशंकित है, क्योंकि यह कानून सिर्फ विदेशों में अवैध रूप से जमा धन के बारे में ही है।

सोने पर बदला रूख
इस बजट का तीसरा “गेम चेंजर” तत्व है सोने को मुद्रा में परिवर्तन करने की प्रक्रिया की दिशा में कदम, जो कि पुन: पूरी तरह से भारत केंद्रित हल है। आधुनिक अर्थशास्त्री सोने को एक व्यर्थ का उत्पाद बताते हैं – बर्बर युग की एक निशानी। यह पश्चिम में हो सकता है पर भारत के सभी वर्ग के लोगों के उत्सवों में सोना शामिल होता है। भारत की अर्थव्यवस्था सोने के साथ द्वेष भाव रखकर नहीं चल सकती। यह बजट सोने में भारतीय तत्व को रेखांकित करता है। इस बजट में उद्योग, ग्रामीण लोगों, मध्यम वर्ग और आम आदमी के लिए काफी कुछ सकारात्मक है।

बजट में उद्योग के लिए कॉरपोरेट टैक्स कम किया गया है, “मेक इन इंडिया” अभियान की सफलता के लिए कच्ची सामग्री आयात पर शुल्क कम किया गया है, बुनियादी ढांचा विकास के लिए 70 हजार करोड़ के निवेश का प्रस्ताव और बुनियादी ढांचे में और अधिक निवेश के लिए एक “राष्टीय बुनियादी ढांचा विकास कोष” की स्थापना की गई है, सड़क, रेलवे तथा सिंचाई प्रोजेक्ट के लिए एक कर मुक्त “बुनियादी ढांचा बांड” प्रस्तावित है तथा एक व्यापार प्राप्य छूट प्रणाली शुरू की गई है जो कि मध्यम और छोटी इकाइयों को बडे कारोबारियों से उनके ऋ ण पर रियायत प्रदान करेगा।

ग्रामीण क्षेत्र में विकास को बल प्रदान करने के लिए छोटी सिंचाई परियोजनाओं के लिए 5300 करोड़, ग्रामीण बुनियादी ढांचा विकास कोष के लिए 25000 करोड़ तथा दीर्घ और लघु अवधि विकास और पुनर्वित्तीयन के लिए 75 हजार करोड़ रखे गए हैं। मध्यम वर्ग और वरिष्ठ नागरिकों के लिए साढ़े चार लाख रूपये तक की वार्षिक आय पर कर से छूट प्रदान की गई है। आम आदमी के लिए इसमें 12 रूपये प्रति वर्ष के प्रीमियम पर दो लाख का दुर्घटना बीमा, 330 रूपये प्रति वर्ष प्रीमियम की दर से 2 लाख रूपये का जीवन बीमा तथा पेंशन फं ड में किसी भी व्यक्ति द्वारा एक हजार रूपये तक के योगदान पर सरकार द्वारा उसी मात्रा में योगदान करने का प्रस्ताव रखा गया है। यह भारत में सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा की शुरूआत कही जा सकती है।

बजट घाटा चिंता की बात
इसके अलावा बजट में और भी सकारात्मक बातें हैं। पर एक चिंता की बात भी है और यह बड़ी चिंता है – राजकोषीय और राजस्व घाटा। बजट में ऎसा कोई विचार सामने नहीं आया है जो कि घाटे को कम करने के लिए उचित राजस्व उगाही की दिशा में हो। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए यह सिर्फ ग्रोथ पर निर्भर है जो कि बुद्धिमत्तापूर्ण मार्ग नहीं कहा जा सकता। मोदी की मजबूत सरकार ऎसा कर सकती है और अनिवार्यता ऎसा करना भी चाहिए।

इसके बाद भी सरकार ने इस पक्ष की ओर से आंखें क्यों मूंद लीं यह स्पष्ट नहीं है। अगर इस एक पक्ष को छोड़ दिया जाए तो यह बजट नि:संदेह इस बारे में है कि भारत में और भारत के लिए उचित क्या होगा। एस गुरूमूर्ति, कॉरपोरेट सलाहकार

वो बजट तो नहीं जिसका था इंतजार
बहु-प्रतीक्षित बजट आ गया है। निराशा और भ्रम के बढ़ते दायरे के बीच, जिसमें दिल्ली में दर्शनीय चुनावी हार का उल्लेख न भी करें तो, यह बजट मोदी सरकार के लिए करो या मरो के रूप में प्रतिष्ठित किया गया था। पर बजट आकांक्षाओं के प्रतिकूल साबित हुआ है।

बजट में आर्थिक वृद्धि और बुनियादी ढांचे में निवेश पर काफी जोर दिया गया है, कई कर सुधार हैं और लोक लुभावन कदमों का स्वागतयोग्य अभाव है। पर उम्मीदें उफान पर थीं और इसमें संदेह नहीं कि कई लोगों को लगता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह वह निर्णायक क्षण नहीं था जिसका वे अनुमान लगा रहे थे।

नहीं है रोजगार की चिंता
मेरी नजर में एक महत्वपूर्ण क्षेत्र जिसे बजट पर्याप्त रूप से संबोधित करने में विफ ल रहा है वह है रोजगार। जिन सबसे कठिन चुनौतियों का सामना भारत कर रहा है उसमेें एक है पर्याप्त मात्रा में रोजगार न पैदा होना। भारत में 70 करोड़ लोग गरिमाहीन जीवन जी रहे हैं जिनको रोजगार और आजीविका के माध्यम से उनके जीवन की विषम परिस्थितियों से उबारना आवश्यक है।

इसमें भी सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भारत के जिस “जनसांख्यिकीय लाभांश” (डेमोग्राफिक डिविडेंड) की बात की जा रही है वह यह आवश्यक बनाता है कि भारत अपने उन 1 करोड़ 30 लाख लोगों को उत्पादक रोजगार दे सके जो कि प्रतिवर्ष भारत की श्रमशक्ति में शामिल हो जाते हैं। इसके विपरीत, वर्ष 2005-2010 के अपने चरम के दौर में भी भारतीय अर्थव्यवस्था ने सिर्फ साढ़े पचास लाख रोजगार ही प्रतिवर्ष पैदा किए।

इसलिए यह रोजगार अंतराल बहुत बड़ा है। मोदी सरकार इस उम्मीद में विनिर्माण पर बहुत जोर देती आई है कि भारत अगला चीन बन सकता है। पर बजट इस दिशा में खास कुछ नहीं कहता। कारोबार सहूलियत में सुधार, बुनियादी ढांचा बेहतरी, इलेक्ट्रॉनिक घटक सामग्री पर आयात शुल्क में कमी से सहायता तो मिलेगी पर यह कतई स्पष्ट नहीं है कि यह प्रयास भारत के विनिर्माण क्षेत्र को जरूरी उछाल देने के लिए पर्याप्त हैं।

उद्यमिता प्रोत्साहन भी नहीं
बजट में इससे भी बड़ी निराशाजनक बात यह है कि यह उद्यमिता के जोरदार प्रोत्साहन की लिहाज से विफल है। भारत अपने रोजगार घाटे को ठीक से संबोधित कर सके इसके लिए जरूरी है कि हम रोजगार मांगने वाले देश से अधिक रोजगार पैदा करने वाले देश बनें। छोेटे शहरों और कस्बों में रहने वाले युवाओं की महत्वाकांक्षा भी रोजगार मांगने की बजाय उद्यमी बनने की होना चाहिए।

उनमें से अधिकांश इन्फोसिस या फ्लिपकार्ट न होकर सूक्ष्म उद्यम ही होंगे जिनमें मुटीभर लोगों को रोजगार मिलेगा। इनमें से अधिकांश उद्यम बेंगलूरू या मुंबई में न होकर पटियाला, कोल्हापुर और सेलम में होंगे। पर इन सैकड़ों हजार सूक्ष्म उद्यमों का सामूहिक असर बहुत बड़ा होगा।

तो बजट में उद्यमिता को प्रेरित करने के लिए क्या किया गया है! एक सौ करोड़ का नवाचार कोष तथा 150 करोड़ रूपये उन बड़ी चुनौतियों के लिए जिनसे नवाचारों के लिए प्रेरणा मिलेगी, इनका निश्चित रूप से स्वागत है। पर पूरे देश में उद्यमियों की एक लहर पैदा करने के लिए कई और ठोस कदमों को उठाए जाने की जरूरत थी, जैसे छोटे कस्बों में उद्यम “इन्क्यूबेटर” के लिए अनुदान, पूंजी उगाने के लिए वैश्विक स्तर पर अधिक उदार प्रणाली, उद्यमियों के लिए निम्न लागत ऋ ण का इंतजाम, कारोबार शुरू करने और चलाने के लिए स्थितियों में नाटकीय सुधार। संभवत: ये वो विस्तार हैं जो आने वाले दिनों में आ सकते हैं।

रोजगार सर्जन का इससे भी बड़ा और उपेक्षित अवसर भारत की सहकारी समितियों को पुन: जीवित करने में निहित है। भारत में सहकारी समितियों के असाधारण रूप से सफल मॉडल उपलब्ध हैं जैसे डेयरी में अमूल तथा पॉल्ट्री में सुगुना, जिनका अनुकरण किया जा सकता है।

उदाहरण के लिए 25 करोड़ कारीगर 6 लाख सहकारी समितियों में संगठित हैं। दु:खद यह है कि ये अविश्वसनीय रूप से कुशल कारीगर प्राय: गरीबों में भी सबसे गरीब होते हैं क्योंकि ये अकुशल बाजार तथा शोषणकारी आपूर्ति श्रृंखला के जाल में फंसे हुए हैं तथा उनकी पंूजी, डिजायन इनपुट अथवा बाजार तक कोई पहुंच नहीं है।

परिणाम स्वरूप वे सस्ती और बडे पैमाने पर उत्पादित वस्तुओं के सामने हार रहे हैं और उनके बच्चे सदियों पुरानी शिल्प परंपरा को छोड़कर पहले ही अत्यधिक बोझ से जूझ रहे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। ऎसे समय में जबकि हस्त कुशलता से उत्पादित किए गए सामानों, अनोखी डिजाइनों और समकालीन पर ऎसी दस्तकारी वस्तुओं के लिए जिनके साथ एक भावात्मक कहानी जुड़ी है, की वैश्विक मांग तेजी से बढ़ रही है, भारत ने अपने कारीगरों -दस्तकारों को अधर में ही छोड़ दिया है।

सहकार मार्ग है जरूरी
यह सब भारत में सहकारी आंदोलन को पुनर्जीवित करने की जरूरत की ओर इशारा कर रहे हैं। इस पुनर्रूद्धार में निजी क्षेत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। सामाजिक उद्यम जैसे कारवॉ क्राफ्ट, गो कूप, क्राफट विला और “इंपैक्ट निवेशक” जैसे “आविष्कार” तथा “यूनिटस” यह दिखा रहे हैं कि डिजाइन इनपुट, प्रबंधकीय कौशल और बाजार तक पहुंचने व आपूर्ति श्रृंखला की कुशलता के लिए तकनीक की जानकारी से शिल्पकार की आजीविका में नाटकीय परिवर्तन लाया जा सकता है।

पर इसको बडे पैमाने पर ले जाने और बड़ा असर देखने के लिए सरकारी एजेंसियों को समर्थकारी वातावरण का निर्माण कर बड़ी भूमिका निभानी है। उदाहरण के लिए व्यापक स्तर पर निम्न लागत इंटरनेट सुविधा, अनुकूल नीतियां, कारोबारी सहूलियत, सस्ती शिक्षा और प्रशिक्षण तथा प्राथमिकता वाले क्षेत्र को निम्न लागत पर ऋण उपलब्ध कराए जा सकते हैं।

अंत में, बजट आखिरकार एक निश्चित अवधि के लिए स्पष्ट निर्धारित राजस्व और खर्चे को इंगित करने वाला परिमाणात्मक रूप से व्यक्त वित्तीय योजना ही तो है। शायद हम भारतीयों में राजकोषीय बजट कैसा होना चाहिए इसको लेकर अपेक्षाएं यथार्थवादी नहीं हैं। जरूरत इस बात की है कि बजट में रोजगार को लेकर चरणबद्ध स्पष्टता हो – कि कैसे भारत पर्याप्त संख्या में आजीविका पैदा करने जा रहा है। रवि वेंकटेशन, पूर्व प्रमुख, माइक्रोसॉफ्ट इंडिया

महंगाई थामने की कोशिश
पिछले वषोंü में राजकोषीय घाटा खासा बड़ा रहता रहा है। पिछले साल के संशोधित अनुमानों के अनुसार यह जीडीपी का 4.1 प्रतिशत रहा। बजट में वित्तमंत्री ने राजकोषीय घाटे को अगले साल 3.9 प्रतिशत और अगले तीन सालों में 3 प्रतिशत तक ले जाने की बात कही है। गौरतलब है कि राजकोषीय घाटा वर्ष 2008-09 में 6.0 प्रतिशत तक पहुंच गया था।

पिछले सालों में लगातार बढ़ती महंगाई के पीछे यह एक प्रमुख कारण था। गौरतलब है कि इस घाटे की पूरी भरपाई उधार से न पाने के कारण सरकार को रिजर्व बैंक से ऋ ण लेना पड़ता है और इस कारण से ज्यादा नोट छपते हैं और महंगाई बढ़ती है। पिछले 4 साल का जायजा यदि लें तो हर साल करेंसी की मात्रा 9 से 17 प्रतिशत तक बढ़ी, जो महंगाई का प्रमुख कारण रही। आशा की जा सकती है कि राजकोषीय घाटे को काबू में रखने की प्रतिबद्धता आम आदमी के लिए महंगाई पर अंकुश लगाएगी।

आयतित सामान न हों सस्ते
“मेक इन इंडिया” इस सरकार का नारा रहा है, जिसका मतलब है कि भारत में ही वस्तुओं का उत्पादन। गौरतलब है कि आज हमारे टेलीकॉम के आयात 100 अरब डॉलर तक पहुंच रहे हैं, आज देश में कम्प्यूटर चिप से लेकर कम्प्यूटर, मोबाइल फोन समेत विभिन्न प्रकार के टेलीकॉम उत्पाद आयात किए जा रहे हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि इन वस्तुओं के आयात पर कम शुल्क लगता है, जबकि देश में उत्पादन करने पर ज्यादा टैक्स देने पड़ते हैं, यह बात पहली बार आर्थिक सर्वेक्षण में भी स्वीकार की गई।

ऎसे में स्वभाविक ही था कि सरकार “मेक इन इंडिया” कार्यक्रम के अनुसार इस विसंगति को दूर करे। बजट में आयातित कलपुर्जे पर शुल्क कम करने का प्रावधान रखा गया है। सरकार का कहना है कि इससे “मेक इन इंडिया” को बल मिलेगा और तैयार माल के आयात घटेंगे। इसके साथ ही यह जरूरी था कि विदेशों से इन वस्तुओं के आयातों पर शुल्क को बढ़ाया जाता ताकि भारत में बना सामान प्रतिस्पर्धा में टिक सके।

शिक्षा पर नहीं पर्याप्त ध्यान
उच्च शिक्षा पर पिछले साल के बजट से मात्र 244 करोड़ रूपए ही ज्यादा खर्च का प्रावधान है, जबकि स्कूली शिक्षा पर पहले से 100 करोड़ रूपया कम खर्च किया जाएगा। स्वास्थ्य पर भी खर्च मामूली बढ़ा है। हो सकता है सरकार पर इन खचोंü को कम करने के लिए खासा दबाव रहा हो। यद्यपि यह कोशिश बेहतर होती कि सरकार गैर-योजना खर्चो में कमी कर योजना खर्च बढ़ाती। अश्विनी महाजन, दिल्ली विवि
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