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निराले रंग होली के…

चिंतक की परेशानी यह है कि वह होली पर भी चिंतन
करने से बाज नहीं आता। चिंतक को पता ही नहीं कि अब

Mar 05, 2015 / 07:26 am

मुकेश शर्मा

चिंतक की परेशानी यह है कि वह होली पर भी चिंतन करने से बाज नहीं आता। चिंतक को पता ही नहीं कि अब देश हुरिहारों के कब्जे में है और बाजार में विचारों की होली जलाई जा रही है। विचार को प्रकट होने की मनाही है या फिर हर विचार बाजार में मच रही होली के हवाले कर दिया जाएगा।

वे उसे आग में झोंकें, उसका मुंह ऎसा काला करें कि विचार की असली सूरत ही बदल जाए, या उसे प्रकट होने के बावजूद गायब कर दें- यह सब बाजार की हुरियारी शक्तियों की मर्जी पर निर्भर हैं। फिर? चिंतक क्या करे? सलाह दी गई कि तुम तो भांग लो।

भांग के हवाले कर दो विचारों को। उड़ने दो उन्हें। होली पर इतना अभी भी किया जा सकता है। इसकी अनुमति है। तो यही सही। होल पर कुछ भांगवादी विचार प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए, कृपया।

एक विचार यह है कि मान लो कि होलिका दहन की जमीन को वे भूमि अधिग्रहण कानून के तहत अपने कब्जे में ले लें, तो देश का आम आदमी होली कहां जलाएगा? मान लो कि अध्यादेश के टेढ़े पांव लेकर कोई भूमि कानून देश में भूत की तरह घुसे और तभी दिल्ली की जमीन हिलने लगे और उस कानून के पांवों तले की जमीन खिसकने लगे तो? यह भी सोचता हूं कि “सबै भूमि गोपाल की” वाली पंक्ति का “गोपाल” कौन है? कहीं यह सरकारी डंडा लिए, बाजार तो नहीं है? पता नहीं। भांग के नशे में विचार गaमa हो रहे हैं।

एक भांग का विचार भांग के बारे में ही आया है। मान लो कि किसी को सत्ता की भांग चढ़ जाए तो क्या उसका इलाज “झाड़ू” मारना है? या यह प्रतीक्षा करना होगा कि नाली में गिरोगे तो खुद ही होश आ जाने वाला है? पता नहीं। भांग खाया आदमी हंसता है तो हंसता ही चला जाता है। उसे कुछ का कुछ दिखने लगता है। होली पर मुझे बहुत से ऎसे हंसते चेहरे न जाने क्यों ऎसे ही लग रहे हैं? देश में जब रोने को इतना है, तब ये राजधानी में बैठकर इतना हंस क्यों रहे हैं? हंसना हमने कभी रामलीला में देखा था- रावण ऎसे ही हंसता दिखाते थे। होली पर रावण क्यों याद आ रहा है मुझे?

एक और विचार पेश है। मुलाहिजा फरमाएं। मान लो टोपियां बनाने वाला एक कारीगर हो जो गांधीवादी टोपी, “आप” वालों जैसे नारेवादी टोपी, गोल जालीदार टोपी, केसरिया टोपी- सब एक ही तागे से बनाए पर ये टोपियां अलग-अलग खोपडियों पर लगते ही वे सब एकदम विपरीत काम करने लगें तो दोष्ा किसका- कारीगर का, तागे का, टोपी का, या उस खोपड़ी का? टोपी के नीचे की खोपड़ी ही यदि शातिर हो तो गांधी टोपी क्या करे? “आम आदमी” लिखकर टोपी को पहन लो पर खोपड़ी में सामंतवाद भरा हो तो टोपी क्या कर लेगी?

टोपी मात्र सजावट का हिस्सा है या यह किसी विचार का प्रतीक है, या यह विचार का स्वांग मात्र है? पता नहीं। हमने कभी कोई टोपी पहनी नहीं और जिन्हें पहने देखा तो प्राय: टोपी पर ही तरस आया है, सो बताना मुश्किल है।

एक और विचार मेरी बिना टोपी की खोपड़ी में आया है। मान लो कि देश की राजनीति में, सत्ता की होली में सब के ही मुंह एक से काले हों तो आम आदमी इनका असली चेहरा कैसे पहचानेगा? और ये काले मुंह एक दूसरे को कैसे पहचान पाते होंगे? या कहीं काले मुंह को ही अपनी पहचान मानकर इतराते तो न होंगे? यह प्रश्न भी उठता है कि बाकी के बढिया-बढिया रंगों का क्या हुआ? क्यों हमारी राजनीति ने बस काले रंग से ही सत्ता की होली खेलना तय पाया है? यह कैसी होली है कि भांग पीने के बाद भी विचार ऎसे डरावने आ रहे हैं। इस होली पर इस बात पर भी विचार कीजिएगा। भांग पीकर या फिर यूं ही। पर होली के फेर में विचार करना मत छोड़ देना क्योंकि विचारों के चटकीले रंग ही असली होली की जान है। ज्ञान चतुर्वेदी, व्यंग्यकार

आनंद का खजाना

प्रो. इच्छाराम द्विवेदी पुराणों के विद्वान

होली का अर्थ ही है- “हो हो इत्युल्लासे लीयते सा होली। अर्थात् हो हो कह कर अट्टहास करते हुए आनन्द में लीन हो जाने का प्रमोद पर्व है होली। यह होलिकोत्सव वैसे तो किसी-न-किसी रूप में सर्वत्र मनाया जाता है परन्तु भारत की होली अपनी वर्णच्छटा में सबसे अनूठी है। भारत की होली में रंग है, संग, विजया भवानी भंग है, तरंग और हास-परिहास सबके आस-पास है।

भारत में होलिकोत्सव या मदनोत्सव का प्रारम्भ वैदिक काल से ही बसंत पंचमी के दिन से होता रहा है। बासंती पंचमी माघ शुक्ल पंचमी तिथि को होती है जो भगवती विद्याधिष्ठात्री सरस्वती का प्राकट्य दिवस है। उस दिन निम्ब की कोंपल, आम्र की मंजरी, सरसों के पीत-पुष्पों से सरस्वती, रति और काम की पूजा की जाती है। प्रथम बार गुड़ या मावे की चन्द्रकला (गुंझिया) का मिष्ठान्न देवों को समर्पित होता है।

बसन्तोत्सव का यह उल्लास बढ़ते-बढ़ते फाल्गुण शुक्ल एकादशी तक आ पहुंचता है जिसे श्रीरंग एकादशी कहा जाता है। एकादशी के दिन पुष्य नक्षत्र आ जाए तो सर्वोत्तम मानना चाहिए। इस दिन प्रथम बार समस्त गृह मन्दिरस्थ देवों को गंगोदव, पंचामृत, केशरवासित जल से एवं अबीर गुलाल आदि से पूजित कर होलिकोत्सव का शुभारम्भ करना चाहिए।

उत्सव का चरम बिन्दु होता है पूर्णिमा को। समग्र नगर ग्रामवासी किसी चतुष्पथ (चौराहे) पर होली का निर्माण करते हैं और रात्रि के समय भद्रादि दोष्ारहित काल में इकट्ठे होकर उसका दहन करते हैं।

पूजन करते हैं और फिर हास-परिहास, छेड़छाड़ करते हुए घर लौटते हैं। प्रतिपदा को सारे देश में रंगों की होली खेली जाती है। अन्तत: रंग पंचमी को इस उत्सव की पूर्णता होती है। होलिकोत्सव की परंपरा वैदिक एवं स्मार्त है।

श्रीराम त्रेतायुग में अवतीर्ण हुए थे। शिवसंहिता में उल्लेख मिलता है कि श्रीराम राज्याभिषेक के पश्चात् समस्त अयोध्यावासी एवं भारतीय प्रजा उनके कठोर अनुशासित जीवन को प्रमाण मानकर जीने लगी। किन्तु यह मानवीय स्वभाव है कि वह दक्षता, अनुशासन, महत्ता भी चाहता है और विश्रामार्थ थोड़ी-सी शिथिलता या छूट भी। श्रीराम ने देखा कि कठोर अनुशासन में आबद्ध प्रजा धीरे-धीरे अकुलाने लगी है तो उन्होंने अपने गुरूदेव वशिष्ठ से पूछा – इस उदासीनता और अकारण तनाव का कारण क्या है? वशिष्ठ जी ने कहा- अतिमर्यादित जीवन।

तो इसको सहज बनाने का उपाय क्या हो? श्रीराम ने अगला प्रश्न किया तब वशिष्ठजी ने कहा कि धर्मानुमोदित समग्र मानवीय संवेदनाओं को सुखद एवं जाग्रत रखने वाला कोई महोत्सव मनाने का अवसर दिया जाए। आपने महाविष्णु नृसिंहावतार में भक्त प्रह्लाद की रक्षा की थी किन्तु उसके पिता हिरण्यकशिपु का एवं उसकी बहन ढुण्ढा (होलिका) का भी वध करना पड़ा था।

आपके पावन करकमल से संस्पृष्ट जीव पूज्य हो जाता है। अत: इस होलिकोत्सव को प्रहलाद जी के परिवार से जोड़ दिया जाए। श्रीराम ने सहष्ाü इसकी अनुमति दी और त्रेता में सर्वप्रथम फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को होलिकोत्सव मनाने का शुभारंभ हुआ।

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