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ढीली पड़ रही प्रशासनिक पकड़

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में गंभीरता और
स्वीकार्यता के साथ सही समय पर सही सोच प्रकट करने की अद्भुत क्षमता है।

May 28, 2015 / 10:58 pm

मुकेश शर्मा

Narendra Modi

Narendra Modi

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में गंभीरता और स्वीकार्यता के साथ सही समय पर सही सोच प्रकट करने की अद्भुत क्षमता है। नौकरशाहों के साथ उनका तारतम्य भी त्रुटिविहीन है। वे एक ऎसे सिस्टम को विकसित कर रहे हैं जो लोकशाही और नौकरशाही के बीच विश्वास की बढ़ती खाई को पाटने का काम करेगा।


बहुत समय बाद देश में एक ऎसे प्रधानमंत्री सत्तासीन हैं जो अपने नौकरशाहों से निरंतर मिलते हैं, उन्हें उत्साहित करते हैं, उनके अच्छे विचारों को मौका देते हैं। मोदी को पता है कि अफसरों की सही सोच ही विकास के रास्तों की रेखाएं खींच सकती है। इसलिए उन्हें राष्ट्रवादी और उद्देेश्यपूर्ण सोच बांटना जरूरी है।


नौकरशाहों संग काम करने की इन्हीं खासियतों ने उन्हें गुजरात की सत्ता में वर्षाें बनाए रखा। उनकी सोच हमेशा यही रहती है कि सुस्त नौकरशाही में उत्साह से भरपूर एक सही विचार ही जीवन भर सकता है। गुजरात में जब तक उन्होंने सत्ता संभाली, इसी सोच के साथ नौकरशाही से कंधे से कंधा मिलाए रखा।


पर, आज मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं, एक राज्य के मुख्यमंत्री नहीं। उनकी जिम्मेदारी का आकार और सोच का दायरा भी बढ़ चुका है। राज्य के मुकाबले उनकी सरकार के आकार और मापन में बहुत अंतर है।


दरकने लगा सत्ता केंद्र

गांधीनगर में रहते हुए भले ही उन्होंने अपने नौकरशाहों से सीधे संबंध बनाए हों, पर नई दिल्ली में ऎसा कर पाना संभव नहीं है। फिर भी कुछ चुनिंदा अफसरों की “किचन केबिनेट” (वृहद आकार वाला पीएमओ) मोदी के साथ ऊर्जावान विचारों को बांटकर राष्ट्रहित में कार्यरत है।


सत्ता की शुरूआत से ही कुछ मंत्री और सचिवों को अन्य के मुकाबले काफी तवज्जो मिल रही है क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री के “सपनों” को सार्थक करने की ललक जो दिखाई है।


उनकी सोच में कहीं न कहीं ये बात जन्म ले रही है कि कभी न कभी वे प्रधानमंत्री के बाद सत्ता के केंद्र में होंगे। पर, ऎसी स्थिति में सत्ता का मुख्य केंद्र दरकने की दहलीज पर पहुंच सकता है। ये कहना गलत नहीं होगा कि ऎसा होना शुरू हो गया है।

दबाव में हैं अफसर


प्रधानमंत्री के सपनों को जमीं पर उतारने के लिए जो कुछ चल रहा है, उससे नौकरशाह आहत हैं। यह तकलीफ कई मंत्रालयों में मंत्रियों संग उनके विवाद के रूप में सामने भी आई है। 40 फीसदी विभागों और मंत्रालयों में नौकरशाह उस “ऊर्जावान सोच” से दूरी बनाने लगे हैं। “मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस” का जो नारा मोदी ने आम चुनावों के दौरान दिया था, वह क्षीण हो रहा है। प्रधानमंत्री जिस तेजी के साथ बदलाव चाहते हैं, बदलाव की उस रफ्तार को एक आज्ञाकारी तंत्र कभी एक सा बनाए नहीं रख सकता। प्रधानमंत्री ने कहा था कि 2019 में जब लोकसभा चुनाव होंगे, तो वे जनता के सामने अपना रिपोर्ट कार्ड लेकर जाएंगे।


उनकी सोच में नित नए विचार बन रहे हैं, पर बदलाव के लिए समय चाहिए। इस बात को समझने की जरूरत है कि राजनीति सिर्फ सोच विकसित कर सकती है, इस सोच को क्रियान्वित करने का दायित्व नौकरशाही का होता है। अफसर यदि दबाव में है तो सियासी सोच से कदम मिलना मुश्किल रहता है।

नहीं होते सीधे फैसले


वर्तमान में, कुछ विकासवादी विचार धरातल पर हैं, तो कुछ कागजों में। अहम चुनावी वादों को मूर्त रूप देने का वक्त कब का, बीत चुका है। अब तो सरकार को जवाब देना है। लेकिन, सरकार तब जवाब देगी, जब अफसर विचारों का खाका उन्हें सौंपेंगे। पर, ये खाका अभी नहीं बना है क्योंकि अफसरों का ज्यादातर समय विभागीय रिपोर्ट बनाने, पुरानी रिपोर्ट को पूरा करने और उन्हें प्रधानमंत्री तक एक के बाद एक आलाकमान को दिखाने में बीता है।


प्रधानमंत्री के दफ्तर और केबिनेट सचिवालय का ज्यादातर समय अधिकारियों की तैनाती और समीक्षाओं में बीता। सत्ता में आने के बाद सपनों को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री के पास प्रशिक्षित नौकरशाहों की टीम तैयार करने का मौका था, जो अब दूर जा चुका है। प्रधानमंत्री कार्यालय में भी स्थिति ठीक नहीं है। वहां अब सीधे फैसले लेने वाली वैसी व्यवस्था नहीं है, जैसी अटल राज के प्रधानमंत्री कार्यालय में बृजेश मिश्र ने विकसित की थी।

बड़ा हो केबिनेट सचिवालय


वैसे सत्ता में जब भी कोई सरकार आई, उनसे सरकारी संस्थाओं की विश्वसनीयता को भंग करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। संवैधानिक संस्थाओं तक की अनदेखी की गई। ऎसा ही इस सरकार ने भी किया। आज भी ऎसी कई संस्थाएं हैं जिनके उच्च पद खाली पड़े हैं। सरकार को यह सोचना चाहिए कि एक प्रभावशाली और अच्छी सरकार तभी बन सकती है जब उसके मंत्री संस्थाओं के साथ कदम मिलाकर चलें।



जो भी फैसले हों, संयुक्त रूप से लिए जाएं। ऎसे व्यक्ति मंत्री बनें जो संस्थाओं के साथ सामंजस्य बनाकर चल सकें, ताकि योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए एक सोच विकसित हो सके। प्रत्येक मंत्रालय में केबिनेट सचिवों को काम बांटा जाए, ताकि मंत्रियों से काम का बोझ कम हो सके।
प्रधानमंत्री यदि अपने सपनों को 2019 तक साकार करना चाहते हैं तो उन्हें वरिष्ठ और अनुभवी मंत्रियों की एकदम नई टीम बनानी होगी।


केबिनेट सचिव को यह जिम्मेदारी दी जाए कि वह अनुभवी और योग्य नौकरशाहों की टीम हरेक मंत्री के लिए तैयार करे। इसके अलावा प्रधानमंत्री कार्यालय को थोड़ा छोटा कर केबिनेट सचिवालय को आकार में बड़ा करें। आर्थिक बदलावों की तरह ही प्रशासनिक बदलाव को तवज्जो दें।


अमिताभ पांडे, सेवानिवृत्त आईएएस

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