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सबके मददगार कुलिश जी

Published: Mar 20, 2015 05:00:00 pm

कुलिशजी जैसी दोस्ती भी आज मुश्किल है। वे दोस्तों के दोस्त थे और खास बात थी कि वे ऑल वैदर फ्रेण्ड होते थे।


रिश्ते पद नहीं इंसान से
प्रद्युम्न सिंह वरिष्ठ राजनेता
कुलिश जी बड़े और समर्पित पत्रकार थे यह तो हर कोई जानता है लेकिन मैं मानता हूं कि एक इंसान के रूप में उनका कद और भी बड़ा था। वे मेरे पिताजी सेठ प्रतापसिंह जी के दोस्त थे। पिताजी 1962 में एमएलए थे और मैं बचपन से कुलिश जी को जानता हूं, मुझे वे कप्तान ही कहते थे। उन्होंने मुझे बहुत स्नेह दिया। उन जैसा इंसान मिलना मुश्किल है। उन्होंने अनगिनत लोगों की मदद की थी, हर तरह से, मदद करने का उनमें जुनून था।

पत्रकार के रूप में सच्चाई उजागर करने को तो वे सबसे बड़ा धर्म मानते थे लेकिन दिल इतना बड़ा था कि अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के दौर में भी उन्होंने लोगों की आर्थिक मदद करने का प्रयास किया। छोटे-बड़े, अपने-पराये, गरीब-अमीर सभी तरह के लोगों में घुलने-मिलने की उनकी ऎसी शानदार प्रवृत्ति थी कि मिलने के बाद कोई व्यक्ति सोच भी नहीं सकता था कि वह इतने बड़े आदमी के साथ है। मुझे याद है सालों पहले वे कोमल दादा (कोमल कोठारी) व मित्र मण्डली के साथ अचानक धौलपुर हमारे यहां रहने आए। दो-तीन दिन वे हमारे यहां रहे, पूरे परिवार से ऎसे घुले मिले जैसे वे मेहमान नहीं बल्कि बरसों से यहां रह रहे हों।


कुलिशजी जैसी दोस्ती भी आज मुश्किल है। वे दोस्तों के दोस्त थे और खास बात यह थी कि वे ऑल वैदर फ्रेण्ड होते थे। उनकी दोस्ती किसी पद प्रतिष्ठा से नहीं जुड़ी थी, वे इंसान के रूप में दोस्ती करते थे। इंसान का ही मान करते थे। उस दौर के बड़े-बड़े नेता उनके दोस्त थे, सत्ता-विपक्ष, पद-बिना पद, वे किसी भी परिस्थिति में दोस्ती कायम रखते थे।

चंदनमलजी बैद जी से भी उनकी मित्रता थी। मुझे याद पड़ता है कि बैद जी को मरूस्थलीय इलाकों में अपने क्षेत्र में जाने में बिना गाड़ी के दिक्कत होती थी। कुलिश जी ने अपनी जिप्सी उनको भेंट कर दी। बैद जी भी सिद्धान्त के पक्के थे, उन्होंने गाड़ी लेने से मना कर दिया या पैसे देने की जिद करने लगे।

कुलिश जी बोले, मेरे डेप्रिसेशन की कागजी गाड़ी है पैसा नहीं लूंगा, आप शगुन के तौर पर कुछ दे दो। आखिर मामूली रकम पर बैद जी ने गाड़ी ली जबकि कुलिश जी की वह गाड़ी 10-15 हजार रूपए में बाजार में बिकती जो उस समय छोटी रकम नहीं थी। आज के दौर में ऎसा नहीं होता। वे अपने जीवन के आखिरी पड़ाव के बीमारी के दौर में भी अपने मित्रों के घर नियमित जाते थे और सम्पर्क रखते थे।

पत्रकार के रूप में सच्चाई उजागर करने के लिए वे किसी भी हद तक जाते थे, भले ही पूरी धारा खिलाफ चल रही हो। एक घटना मेरी खुद की है। नब्बे के दशक के पूर्वार्द्ध में मेरी एक फोटो को कांग्रेस में ही मेरे विरोधी गुट वालों ने खूब प्रचारित किया। इस फोटो में मैं वसुन्धराजी (मौजूदा मुख्यमंत्री, तत्कालीन भाजपा पदाधिकारी) के साथ एक मंच पर बैठा था।

दरअसल वह फोटो धौलपुर में अम्बेडकर जयंती कार्यक्रम का था जिसमें सभी दलों के लोग और मेरी शिकायत करने वाले गुट के नेता भी मंच पर थे। विरोधियों ने सिर्फ मेरा व वसुन्धरा जी का फोटो काट कर प्रचारित किया कि मैं चुनाव में वसुन्धराजी का प्रचार कर रहा हूं। फोटो के साथ शिकायत मिलने पर आलाकमान ने मुझे पार्टी से निकाल दिया। हालात ये बने कि मैं मूल फोटो लेकर अपनी बात कहता रहा लेकिन कोई वरिष्ठ नेता मेरी बात सुनने को तैयार नही।

विरोधियों का प्रभाव व माहौल ऎसा बना कि अन्य अखबार वालों ने भी मेरी बात को तवज्जो नहीं दी। मैंने कुलिशजी को सारी बात और फोटो बताई तो उन्होंने साफ कहा कि पहले वैरिफाई करूंगा और सच हुआ तो छापुंगा। मैंने उनको फोटो दे दी… उन्होंने अपने स्तर पर सच्चाई का पता लगाया और प्रमुखता से सच उजागर किया। खबर छपने के बाद मैं दिल्ली में आलाकमान के नेताओं से मिला और कांग्रेस से मेरा निलम्बन समाप्त हुआ। ऎसा माद्दा कुलिशजी का ही था। कुलिशजी की जयंती पर उन्हें शत-शत नमन्।
(जैसा उन्होंने आशुतोष शर्मा को बताया।)


हर व्यक्ति पाता था अपनापन
एसआर मेहताजाने-माने फिजीशियन
श्रीकर्पूर चंद्र जी कुलिश से मेरी मित्रता तीन दशक से ज्यादा लम्बी रही है। यह उनके विराट व्यक्तित्व का अद्भुत मोहपाश ही था कि उनसे मिलने वाला हर व्यक्ति बहुत सारा अपनापन लेकर लौटता था। सो मैंने भी लिया। वे ऎसे पत्रकार थे जिन्होंने पूर्ण रूप से पत्रकारिता का धर्म निभाया। वे बहुत प्रतिभाशाली एवं प्रकाशमान व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने जनमानस की स्मृति से विलुप्त से हो रहे वेदों को नये और सहज भाव में समाज के सामने रखने का प्रयास किया। न केवल पत्रकारिता अपितु उनका योगदान समाजसेवा में भी हमेशा याद किया जाएगा।

वेदों के अध्ययन करने में भी उनकी बहुत रूचि थी। जब कुलिश जी जय क्लब के अध्यक्ष थे तो कुलिश जी एवं तत्कालीन एडवोकेट जनरल गुलाबचंद कासलीवाल मेरे निवास स्थान अस्पताल से आए। मैं उन दिनों एसएमएस मेडिकल कॉलेज का प्राचार्य था। तब उन्होंने मुझे जय क्लब का अध्यक्ष बनने के लिए कहा।

मेरे मना करने पर उन्होंने कहा कि वे तभी जाएंगे जब आप इस नामांकन पत्र पर हस्ताक्षर करेंगे। अंतत: मुझे उनके आग्रह को स्वीकार करना पड़ा। वो मुझ पर अपना अधिकार समझते थे। तीन दशक से अधिक समय तक हम नियमित रूप से मिला करते थे। इसके बाद मैं करीब 3 साल तक क्लब का अध्यक्ष रहा। दरअसल कुलिश जी का व्यक्तित्व ही ऎसा था कि उनके संपर्क में रहने वाला व्यक्ति उनका कायल ही रहता था।


जो ठान लेते थे, उसे पूरा करके ही मानते थे
पं. कलानाथ शास्त्री करीबी मित्र
कुलिश जी का स्मरण आते ही आज भी गला भर आता है। स्मृतियों के सागर में डुबकी लगाओ तो अनगिनत दृश्य सजीव हो उठते हैं। अनेक अवसरों पर उनसे मिलने, कुछ सीखने का अवसर मिला लेकिन धारावाहिक “गीत गोविंद” के निर्माण के दौरान चार-पांच सालों का साथ बहुत कुछ सिखा गया।

उनकी जिंदादली भी और काम के प्रति उनकी लगन और निष्ठा भी। पत्रकारिता उनका पेशा भले रहा हो लेकिन धारावाहिक निर्माण के दौरान एक-एक मुद्दे पर चिंतन-मनन और सवाल जवाब करना अजीब सुकून देता था। समर्पण इतना गहरा कि घर से गाड़ी चलाकर खुद ही मेरे घर आ जाते और मुझे लेकर पहुंच जाते आमेर स्थित टीवी के स्टूडियो। “गीत गोविंद” धारावाहिक का निर्माण उनका ऎसा सपना था जिसे वे हर हाल में पूरा करना चाहते थे और वो भी नए अंदाज में।

उन्हें पता था कि “गीत गोविंद” का बंगला और उडिया में धारावाहिक निर्माण हो चुका है। लिहाजा वे कुछ नया करना चाहते थे। शायद इसीलिए उन्होंने इसमें राजस्थानी धुनों का समावेश किया। फिल्म अभिनेत्री माधुरी दीक्षित और विनोद शर्मा की आवाज धारावाहिक में समावेश करवाई। धारावाहिक के निर्माण में उन्होंने ना समय की चिंता की और न धन की। धारावाहिक बना भी, चला भी और सराहा भी गया। धारावाहिक निर्माण के क्षेत्र में विशेष जानकारी नहीं होने के बावजूद उन्होंने इस काम को अंजाम तक पहुंचाया तो इसकी वजह सिर्फ एक थी। उनका मानना था कि दुनिया में कोई भी काम असंभव नहीं। बेशक करने की दृढ़ इच्छाशक्ति हो। कुलिश जी धुन के पक्के थे और जो ठान लेते थे पूरा करके ही दम लेते थे। (जैसा उन्होंने अनंत मिश्रा को बताया।)


वे सगे संबंधियों जैसे मिलते थे

गोकुल प्रसाद शर्मा करीबी मित्र
कुलिश जी से जुड़ी अपनी यादों को रोहित तिवारी के साथ ताजा करते हुए बॉम्बे हॉस्पिटल के दशकों तक अधीक्षक रहे गोकुल प्रसाद जी ने कहा कि उन्होंने जब राजस्थान पत्रिका की नींव रखी थी तो मुझे भी बुलाया था। वे हमारे बहुत अच्छे मित्र थे। वे मुझसे काफी प्यार भी करते थे। वे अपने मित्रों से बहुत ही अच्छे से मिलते थे और उनसे अखबार की उन्नति से संबंधित विचार-विमर्श भी किया करते थे। वे जब भी मुंबई आते थे या जब मैं जयपुर जाता था तो उनसे मुलाकात अवश्य होती थी। वे मिलते भी ऎसे थे कि मानो अपने किसी घर के सगे-संबंधी से मिल रहे हों। उनकी याददाश्त काफी अच्छी थी। यानी कोई व्यक्ति उनसे कितने भी वर्ष बाद मिले, वे उससे इस ढंग से मिलते थे कि सामने वाले को पुरानी मुलाकात जस की तस याद आ जाती थी ।

राजस्थान पत्रिका के ज्यादातर समारोहों में आगे की कुर्सियों के बजाय पीछे बैठते थे। उनका मानना था कि पीछे बैठने से उनकी नजर आगे बैठने वाले सभी लोगों पर रहती है। इवेंट में अगर उन्हें कुछ कहना होता था तो वे अपने साथियों को इशारे में ही बोल दिया करते थे। वे साहित्यिक इंसान थे।

कवि और साहित्य प्रेमी के रूप में ही उनका नाम लिया जाता था। उनकी मित्रता अधिकतर कवियों से हुआ करती थी। एक खास बात मुझे याद आती है, जब भी कोई कवि मित्र उनसे मिलने आता था तो वे अपने ऑफिस के ऊपरी तल से नीचे आ जाया करते थे। यानी सामने वाले को ऊपर न बुलाकर, वे खुद उससे मिलने नीचे आते थे । अपने साथ ही उसे चाय-पानी कराते थे।

हिंदी की करते थे चर्चा
कुलिश जी को अपने पिता जी से बात करने में बहुत प्रसन्नता होती थी। आपस में वे हिंदी और पेपर के उत्थान के बारे में चर्चा किया करते थे। इसके अलावा कुलिश जी भंडारी जी के संपर्क में भी रहा करते थे। भंडारी जी ही ऎसे इंसान थे, जो उनके संपर्क में हमेशा रहा करते थे। पेपर से संबंधित हर बात वे भंडारी जी से ही शेयर किया करते थे।

जस का तस है नाता
उन्हीं की बदौलत राजस्थान पत्रिका परिवार से हमारा नाता आज भी जस का तस ही बना हुआ है। आज भी हमारे पास पत्रिका से संबंधित किताबें आती रहती हैं। अखबार तो नियमित देखते-पढ़ते ही हैं । उनके बेटे गुलाब कोठारी में भी मुझे उन्हीं की छाप नजर आती है। बिल्कुल कुलिश जी की ही तरह। मिलना-जुलना और सबका आदर-सम्मान करना । कभी लगता ही नहीं कि कुलिश जी जैसी हस्ती आज हमारे बीच नहीं है।


बेधड़क लिखने-बोलने वाले
ओम थानवी वरिष्ठ पत्रकार
देश फिर ऎसे दौर से गुजर रहा है, जब अक्सर सुनने को मिलता है कि पत्रकार चुप क्यों हैं। खासकर धार्मिक और सामुदायिक अनर्थ के मामले में सत्ता के खिलाफ उनकी आवाज नहीं उठती। और तो और खुद पत्रकारों के मुंह से पत्रकारों की “चुप्पी” के बारे में सुनने को मिलता है। यह सच्चाई है कि बेधड़क लिखने-बोलने वाले पत्रकार घट गए हैं। पर इसके लिए जिम्मेदार आखिर कौन है?

इस संदर्भ में मुझे कुलिशजी का एक दृष्टांत स्मरण होता है। कुलिशजी कहते थे – पत्रकार जब-तब अपनी आजादी को लेकर बहुत चिंतित होते हैं। लेकिन सौ बात की एक बात यह है कि कितने लोगों ने लिखा और उनका लिखा छप नहीं सका? इसके विरल उदाहरण ही मिलेंगे। आप लिखें जो जरूरी और सार्थक समझते हैं, जो लिखते हैं कभी कोई उनका हाथ नहीं पकड़ता। कोशिशें होंगी तब भी आप लिखेंगे; अगर ईमानदार अनुभूति है छपने से आपका लिखा सचमुच रोका गया, तो आप अपनी राह खोज लेंगे।

इसलिए कहता हूं, पहले लिखने का साहस तो दिखाइए। बगैर लिखे न लिखने के कारण ढूंढ़ना आसान होता है, लिखना नहीं। अपनी बात के समर्थन में वे खुद की एक आपबीती सुनाते थे। तब कुलिशजी “राष्ट्रदूत” में रिपोर्टर थे। नवंबर 1955 में जब सोवियत नेता ख्रुशचेव और बुल्गानिन भारत आए तो तफरीह के लिए जयपुर की राह पकड़ी।

जयपुर की मुख्य सड़कों पर रंगाई-पुताई हुई। मगर मजा यह रहा कि राजप्रमुख और जयपुर के पूर्व महाराजा मानसिंह ने रूसी मेहमानों के प्रवास के नाम पर सरकारी खजाने से राजमहल में भी रंग-रोगन करवा लिया। कुलिशजी ने इस पर दो टिप्पणियां “घुमक्कड़” नाम से छपने वाली डायरी में लिख दीं। तब भी उनका हाथ तो किसी ने नहीं पकड़ा, पर उन पर पहरा जरूर बैठ गया। कुलिशजी बताते थे, स्तंभ लिखने के वक्त एक वरिष्ठ सहयोगी उनकी बगल में आकर बैठ जाते थे। जाहिर था, वे मालिकों के कहे का पालन भर कर रहे थे।

तब से कुलिशजी पहरे में लिखने की उस विवशता का तोड़ तलाशने में लग गए। अंतत: उधार के पांच सौ रूपए जुटाकर खुद का अखबार शुरू किया। बाकी दास्तान तो अब “पत्रिका” का इतिहास हो चुकी है।

इसका मतलब यह कतई न लें कि उनकी हिदायत हर पत्रकार को अपना-अपना अखबार निकाल लेने की थी। उनका संकेत इतना भर था कि लिखने वाला लिखता है और न लिखने वाला न लिखने के कारण खोजता है। उनकी यह बात मुझे जब-तब खयाल आती रहती है, खासकर तब जब लोग न लिखने के “घुटन भरे” माहौल की चर्चा बढ़-चढ़ कर करते हैं। कभी-कभी लोग मौजूदा परिवेश को आपात्काल तक जा जोड़ते हैं। मुझे कुलिशजी के उक्त हवाले की रोशनी में ऎसी बातें अतिरंजना में लिपटी प्रतीत होती हैं।


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