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पाक को किनारे करने का एक और कदम

पाकिस्तान के इस्लामाबाद में नवम्बर में प्रस्तावित दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के सम्मेलन

Sep 29, 2016 / 03:35 am

मुकेश शर्मा

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पाकिस्तान के इस्लामाबाद में नवम्बर में प्रस्तावित दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के सम्मेलन में भाग लेने से भारत समेत चार देशों ने मनाही कर दी है। वहीं सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे नेपाल ने इसके स्थगन की घोषणा कर दी है। मौजूदा परिस्थिति पाक प्रायोजित आतंकवाद का ही नतीजा है। पहले पठानकोट और अब उरी मेें आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान को अलग-थलग करने के भारत के अभियान में इस कदम को बड़ी सफलता के रूप में देखा जाना चाहिए। दक्षिण एशिया के आठ सदस्य देशों के इस सम्मेलन में इन देशों के राष्ट्राध्यक्ष शामिल होते हैं।


यह पहली बार है जब भारत ने सार्क में हिस्सा लेने से इनकार किया है। यह भारत की बड़ी कूटनीतिक सफलता मानी जा सकती है। इससे विश्वव्यापी संदेश जाएगा। दुनिया को मालूम चलेगा कि पाकिस्तान आतंक का केंद्र बन चुका है और पड़ोसी देश उसके फैलाए आतंक से परेशान हैं। अमरीका सहित पश्चिमी देशों भी पाक के आतंक को गंभीरता से लेना पड़ेगा। भारत की संयुक्त राष्ट्र संघ में भी पैठ बढ़ेगी। जिस तरह से अन्य सार्क देशों ने भारत का साथ दिया है उससे सभी को लगेगा कि भारत दक्षिण एशिया प्रतिनिधित्व करता है।


सार्क का गठन वर्ष 1985 में दक्षिण एशिया के राष्ट्रों के बीच पारंपरिक संबंधों को बढ़ावा देने के मकसद से किया गया था। इसमें आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सहयोग शामिल था। सार्क के गठन के समय दो मुख्य नियम निर्धारित किए गए थे। पहला यह कि सार्क के निर्णय सर्वसम्मति से लिए जाएंगे और दूसरा नियम था कि सार्क में द्विपक्षीय मुद्दों पर चर्चा नहीं की जाएगी। सार्क का धीरे-धीरे विकास हुआ तो नए मुद्दे सामने आते गए। पर्यावरण, ऊर्जा जैसे मुद्दों पर चर्चा की जानी लगी। इसी दौरान दक्षिण एशिया में आतंकवाद जोर पकडऩे लगा। भारत, श्रीलंका जैसे देशों में पनपते आतंकवाद के मद्देनजर 1987 में सार्क में आतंकवाद के खिलाफ सहयोग को लेकर भी समझौता हुआ। सार्क में व्यापार की सुगमता के लिए 1996 में समझौते की पहल की गई जो 2006 में जाकर पूरा हुआ।


 भारत ने नेपाल, बांग्लादेश और भूटान जैसे छोटे देशों को व्यापारिक रियायतें दी। कुछ देशों को मोस्ट फेवर्ड नेशन(सर्वोच्च वरीयता वाले राष्ट्र) का दर्जा दिया जिसमें पाकिस्तान भी शामिल है। इसमें किसी तरह की अतिरिक्त सुविधा नहीं दी जाती लेकिन यह निश्चित किया जाता है कि उस देश के साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा। हम यह देख रहे हैं कि इन सबके बावजूद दक्षिण एशिया के इन देशों के बीच आपसी व्यापार कुल व्यापार का पांच फीसदी से भी कम है। सार्क में आपसी विवाद पहले भी हावी रहे हैं। आपसी विवाद की वजह से ही सार्क सम्मेलन 1998 के बाद 2002 में हो पाया। भारत की मंशा शुरू से ही क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा देने की रही है पर अन्य राष्ट्रों खासकर पाकिस्तान की वजह से इसमें कई बार बाधाएं आ जाती हैं। पाकिस्तान अन्य देशों के आंतरिक मामलों में दखल कर रहा है।


इसका सबसे बड़ा शिकार बांग्लादेश बना है। वहां पाकिस्तान की खुफिया एंजेंसी आईएसआई आतंकी संगठनों के साथ मिलकर आतंकवाद को बढ़ावा देती रही है। अफगानिस्तान में तालिबान को भी पाक बढ़ावा दे रहा है। अफगान सरकार सुरक्षा मामलों में पाकिस्तान से सहयोग चाहती थी पर यह सहयोग नहीं मिलने से भी वह पाक से रुष्ट है। भूटान और भारत के संबंध बहुत बेहतर हैं और दोनों एक-दूसरे का साथ देते रहे हैं। सार्क सम्मेलन के बहिष्कार की बांग्लादेश ने पहल की और कहा कि जो देश इसका आयोजन कर रहा है वह दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर आतंकवाद का सर्मथन करता है। इसलिए बांग्लादेश सम्मेलन में शामिल नहीं होगा। इन देशों का साथ आना सरकार की ‘सबसे पहले पड़ोसीÓ की नीति की जीत है। सार्क देशों के साथ भारत ने सदैव सहयोग की नीति अपनाई है।


 प्रधानमंत्री मोदी के शपथग्रहण समारोह में सार्क देशों के प्रमुखों को आमंत्रित किया गया। उन्होंने रिश्ते सुधारने के लिए लाहौर की यात्रा तक की पर पाक के रवैये में कोई सुधार नहीं हुआ। भारत ने पिछले सार्क सम्मेलन में सार्क सैटेलाइट की घोषणा की थी पर पाक इससे पीछे हट गया। सार्क पावरग्रिड की बात हो या सार्क कनेक्टिविटी की, पाक ने हर बार अडंग़ा लगाया। इन कारणों से पाक सार्क में पहले ही अलग-थलग हो गया था।


 भारत ने सार्क के इतर संगठन बनाए जिनमें पाक शामिल नहीं रहा। इन संगठनों में बांग्लादेश, भूटान, इंडिया और नेपाल के लिए (बीबीआईएन) व भारत, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, थाईलैंड, भूटान, नेपाल (बिम्सटेक) शामिल है। हालांकि भारत ने इन संगठनों के माध्यम से पाक को अलग करते हुए पड़ोसी देशों से संबंध और मजबूत किए। अफगानिस्तान को सार्क में शामिल कराने में भी भारत की भूमिका ही रही। यह माना जाना चाहिए कि अब संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी मजबूत होगी। द.एशिया से भारत स्वाभाविक दावेदार माना जाएगा।

प्रो.संजय भारद्वाज दक्षिण एशिया मामलों के जानकार

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