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वर्दी में पनपते जा रहे हैं ‘माफिया’

Published: May 03, 2016 06:18:00 am

पुलिस बल में भ्रष्टाचार की खबरें समूचे सिस्टम को चुनौती देती नजर आती है।
जब कानून को लागू नहीं करने की एवज में पैसे लिये जाते हों तो  कानून का
राज भला कैसे संभव  हो सकेगा?

Opinion news

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एम.एल. कुमावत सेनि. आईपीएस एवं पूर्व डीजीपी बीएसएफ
पुलिस बल में भ्रष्टाचार की खबरें समूचे सिस्टम को चुनौती देती नजर आती है। जब कानून को लागू नहीं करने की एवज में पैसे लिये जाते हों तो कानून का राज भला कैसे संभव हो सकेगा? पुलिस में भ्रष्टाचार इतना आम हो चुका है कि एफआईआर दर्ज करने व न करने में भी रिश्वत के लेन-देन के मामले गाहे-बगाहे सामने आते रहते हैं। राजस्थान में कुख्यात अपराधी नंदू और उसके साथियों से सौदेबाजी करने वाले पुलिस चौकी इंचार्ज के मामले को तो समूचे सिस्टम पर एक तमाचा ही कहा जाएगा। राजस्थान ही नहीं बल्कि देश के अन्य प्रदेशों में भी ऐसे कई उदाहरण मिल सकते हैं। पुलिस की ‘वर्दी में माफियाÓ की यह छवि तो कलंकित करने वाली औैर शर्मनाक है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस मामले में जनता ने अपराधी को पकड़कर पुलिस को सौंपा था। ऐसी खबरें आने लगे तो भला पुलिस की मदद कौन करना चाहेगा? सामान्य आदमी तो पहले ही पुलिस के नाम से डरता है। ऐसे प्रकरणों में तो किसी तरह की जांच की जरूरत ही नहीं होनी चाहिए। दोषियों को बिना जांच के ही सेवा से बर्खास्त किया जाना चाहिए। संविधान का अनुच्छेद 311 (2 बी) इसकी अनुमति भी देता है।

फिर ये क्यों रहे पीछे?
पुलिस बल में भ्रष्ट लोगों को देखते हुए यह धारणा बना लेना ठीक नहीं होगा कि समूचा पुलिस तंत्र ही भ्रष्ट होगा। लेकिन, यह मानना ही होगा की सख्त कार्रवाई नहीं होने के कारण पुलिस में बैठे भ्रष्टाचारियों के हौसले बुलंद होते हैं। ऐसे मेें अदना सा सिपाही भी यह समझता है कि जब उसके ऊपर बैठे भ्रष्ट अधिकारी ही बड़े-बड़े प्रकरणों में लिप्त होने के बावजूद जिम्मेदार पदों पर बैठे हैं तो भला वह क्यों पीछे रहे? चिंता की बात यह है कि हमारे देश में तरह-तरह के माफिया पनप रहे हैं। इनमें खान माफिया, शराब माफिया, रेत माफिया, भूमाफिया और यहां तक कि प्रतियोगी परीक्षा माफिया शामिल हैं। ये माफिया नियमित पुलिसिंग के लिए बहुत बड़ा खतरा है।


राजनेताओं की शह
काफी समय पहले तक यह माना जाता था कि ये माफिया राजनेताओं को चुनाव में सपोर्ट करते हैं। अब तो हालत यह हो गई है कि माफिया ही हमारी विधायिकाओं में चुनकर जाने लगे हैं। माफियाओं को एक तरह से राजनीतिक तंत्र का मजबूत प्रश्रय मिलने लगा है। इस संगठित अपराध में माफिया के साथ नेता और पुलिस दोनों का चिंताजनक गठजोड़ बन गया है। यही कारण है कि कानून का डर खत्म होता जा रहा है। ऐसे संगठित गिरोह को तोडऩे के लिए जिस तरह से काम होना चाहिए वह दिख नहीं रहा।

कानून – कायदों की धज्जियां
नंदू प्रकरण को देखते हुए लगता है कि कानून कायदों की धज्जियां उड़ रही है। ऐसे में जब जांंच लीपापोती तक ही सीमित हो जाए तो फिर किसी के लिए भी चिंता का विषय होना चाहिए। विदेशों के उदाहरण हमारे सामने हैं, जहां सत्ता में बैठे लोग ही माफिया बन गए तो उनको सख्त सजा दी गई।

हमें ऐसे मामलों में नजीर पेश करनी होगी ताकि कोई इस तरह का दु:साहस नहीं करे। कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए तीन अहम वर्ग सरकार, जनता व पुलिस हैं। जिनमें तीनों से ही अपेक्षा की जाती है कि वे अपना काम जिम्मेदारी से करे। सिस्टम से कोई भी अपराध और अपराधियों को संरक्षण देने का काम करने लग जाए तो फिर कानून का डर खत्म होते देर नहीं लगती। पुलिस किसी को पकडऩे के बाद भी कमजोर तहकीकात करे या अदालत में कमजोर साक्ष्य रखें तो अपराधी तो छूटेगा ही।

संगठित अपराधों के लिए एक कानून
आज हालत यह है कि न तो हमारी पुलिस के पास ऐसे संगठित अपराधों का कोई आंकड़ा ही नहीं। होना यह चाहिए कि राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे गिरोह और उनके सरगनाओं की सूचना देश भर की पुलिस के पास उपलब्ध हों। जिस तरह से हमारा इंटेलिजेंस ब्यूरो प्रदेशों को अलर्ट जारी करता है उसी तरह से संगठित अपराधों से जुड़े गिरोह के लोगों की आवाजाही के बारे में भी एक-दूसरे प्रदेशों की पुलिस को समय-समय पर जानकारी मिलनी चाहिए। अभी सिर्फ महाराष्ट्र और दिल्ली में ही संगठित अपराध नियामक कानून लागू है। जरूरत है सख्त प्रावधान कर समूचे देश में संगठित अपराधों की रोकथाम के लिए एक जैसा कानून लागू किया जाना जाए।

संगठित अपराधों के लिए एक कानून
आज हालत यह है कि न तो हमारी पुलिस के पास ऐसे संगठित अपराधों का कोई आंकड़ा ही नहीं। होना यह चाहिए कि राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे गिरोह और उनके सरगनाओं की सूचना देश भर की पुलिस के पास उपलब्ध हों। जिस तरह से हमारा इंटेलिजेंस ब्यूरो प्रदेशों को अलर्ट जारी करता है उसी तरह से संगठित अपराधों से जुड़े गिरोह के लोगों की आवाजाही के बारे में भी एक-दूसरे प्रदेशों की पुलिस को समय-समय पर जानकारी मिलनी चाहिए। अभी सिर्फ महाराष्ट्र और दिल्ली में ही संगठित अपराध नियामक कानून लागू है। जरूरत है सख्त प्रावधान कर समूचे देश में संगठित अपराधों की रोकथाम के लिए एक जैसा कानून लागू किया जाना जाए।

पदस्थापन में भी रसूख
चिंता केवल इतनी ही नहीं कि पुलिसबल में भ्रष्टतंत्र हावी है। बड़ी चिंता यह भी है कि दागी पुलिस वाले राजनेताओं के साथ सांठगांठ के बूते वापस अच्छी पोस्टिंग पा जाते हैं। हमारे सिस्टम में बड़ी खामी यह भी है कि थानों और यहां तक कि जिलों में पुलिस फोर्स के मुखिया तक की तैनाती में राजनेताओं का दखल होता है। ऐसे में पोस्टिंग पाने वाला अफसर भी सम्बन्धित एमएलए/एमपी को ही अपना सब कुछ मानता है और उसके इशारे पर ही काम करता है।

जवाबदेह बनाना होगा
ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर पुलिस को जवाबदेह कैसे बनाया जाए। यह बात सही है कि पुलिस की चयन प्रक्रिया में किसी व्यक्ति के बारे में इस बात की बारीकी से पड़ताल संभव नहीं है कि वह चारित्रिक रूप से कैसा होगा? लेकिन, फिर भी कुछ मापदण्ड तय कर भर्ती की जा सकती है। इसके बाद बारी आती है प्रशिक्षण की।

आज तो हालत यह है कि अपराधियों के पास पुलिस से ज्यादा आधुनिक हथियार हैं। जब तक पुलिस बेड़े को संगठित अपराध गिरोहों से निपटने का प्रशिक्षण नहीं दिया जाएगा वह कमजोर ही साबित रहने वाला है। और रही बात पुलिस की, पुलिसबल में शामिल भ्रष्ट लोगों की समय रहते सफाई नहीं की गई तो यह बड़ा नासूर बन कर उभरेगा इसमें संशय नहीं।
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