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दाम बढ़ाने की अटपटी सोच

देश में चीनी के दाम स्थिर से बने हुए हैं।
इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन का कहना है कि चीनी के दाम इतने कम हैं कि मिलों को
भारी घाटा उठाना पड़ रहा है

Apr 19, 2015 / 10:19 pm

शंकर शर्मा

Sugar

Sugar

देश में चीनी के दाम स्थिर से बने हुए हैं। इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन का कहना है कि चीनी के दाम इतने कम हैं कि मिलों को भारी घाटा उठाना पड़ रहा है। इस स्थिति में मिलें, किसानों को गन्ने की कीमतें नहीं चुका पाएंगी और कीमत चुका दी गई तो बहुत सारी मिलों पर तो ताले भी लग सकते हैं। ऎसे में चीनी के दाम में सुधार के लिए स्टॉक में रखी चीनी में से करीब 35 लाख टन चीनी को नष्ट करना जरूरी है। भारत में बेहतर कीमत पाने के लिए उत्पाद को नष्ट करने का यह सुझाव कितना सही है और कितना गलत? पढिये आज के स्पॉटलाइट में जानकारों की राय..

उत्पाद बर्बाद करने में तो कोई समझदारी नहीं
समझना होगा कि चीनी मिलों को उनकी ही कमियों के कारण हो रहे घाटे के चलते देश के गरीब आदमी के उपभोग के लिए जरूरी चीनी जैसे खाद्य पदार्थ को नष्ट करना कोई समझदारी की बात नहीं है। जरूरत इस बात की है कि चीनी मिलें तकनीकी और प्रबंध में सुधार करें। वे चीनी का उत्पादन भी बढ़ाएं और अपना लाभ भी।

सह उत्पादों का भी सही प्रकार से प्रबंधन और संग्रहण की जरूरत है। आज देश भर में पेट्रोल में औसतन तीन प्रतिशत एथेनॉल ही मिलाया जाता है जो चीनी मिलों से आता है। इसे 10 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है। गौरतलब है कि दुनिया भर में चीनी, उद्योग का सह उत्पाद ही माना जाता है क्योंकि अन्य सह उत्पादों से उन्हें भारी आमदनी होती है। आज देखा जा रहा है कि गन्ने की गुणवत्ता स्थिर सी हो गई है । पिछले 40-50 वषोंü में इसमें कोई सुधार नहीं हुआ है। सरकार और चीनी मिलें मिलकर गन्ने के बीजों की गुणवत्ता में सुधार कर सकती हैं। और इस प्रकार गन्ने से चीनी प्राप्ति की औसत में बढ़ोतरी हो सकेगी।


मिलों को खुद में करना होगा सुधार
डॉ. अश्विनी महाजन दिल्ली विश्वविद्यालय
हाल में भारतीय चीनी मिलों के संगठन इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) ने सिफारिश की है कि चीनी मिलों को संकट से बचाने के लिए देश में 35 लाख टन के चीनी स्टॉक को नष्ट कर दिया जाए। भारत जैसे देश में अभी भी चीनी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 20 किलो प्रति वर्ष से भी कम है और जहां तक गरीब आदमी का सवाल है तो उसे चाय में कहीं चीनी मिल जाए तो वह अपना दिन सफल मानता है, ऎसे में अचानक करीब 23 लाख टन चीनी नष्ट करने की सिफारिश वास्तव में चौंकाने वाली है।

इस्मा का तर्क
इस्मा का कहना यह है कि बजार में आपूर्ति ज्यादा होने के कारण चीनी की कीमत बहुत कम हो गई है। इसके चलते चीनी मिलों को नुकसान हो रहा है। चीनी के स्टॉक को नष्ट कर देने से आपूर्ति खुद ब खुद कम हो जाएगी, जिससे चीनी की कीमत बढ़ने से चीनी मिलों के नुकसान की भरपाई हो पाएगी। गौरतलब है कि वर्ष 2014-15 के लिए गन्ना किसानों का चीनी मिलों पर बकाया 17 हजार करोड़ रूपए पहुंच रहा है जिसे चीनी मिलें चुका नहीं पा रही हैं।

नई बात नहीं दाम में कमी
भारत में चीनी की कीमतों में उतार-चढ़ाव कोई नई बात नहीं है। मांग और आपूर्ति में बदलाव से यह उतार-चढ़ाव वर्ष भर होता ही रहता है। इसके अलावा यह भी देखने में आता है कि हर दो तीन साल में उत्पादन बहुत ज्यादा हो जाने के कारण चीनी की कीमतों में भारी गिरावट आ जाती है। गौरतलब है कि इस वर्ष भी यही हो रहा है। इस वर्ष गन्ना कीभारी पैदावार के कारण चीनी मिलों द्वारा गन्ने भरपूर पिराई हो रही है, इसके चलते देश में गन्ना पैदावार बढ़ रही है। यह 2012-13 में 3410 लाख टन रही जो 2013-14 में 3500 लाख टन हो गया।

पिछले वर्ष के मुकाबले 2014-15 में तो यह पैदावार और भी ज्यादा होने वाली है। यह भी देखने में आता है कि सामान्यतया किसी भी वर्ष फसल अच्छी होने से कृषि वस्तुओ की कीमतें घट जाती है और किसान को पैदावार बढ़ने से नुकसान ही होता है। लेकिन गन्ने में सामान्यतया ऎसा नहीं होता। ऎसे मे गन्ना पैदा करने वाले किसानों को सरकार के सामयिक हस्तक्षेप के कारण गन्ने की सही कीमत किसानों को मिले, ऎसा सुनिश्चित किया जाता है। पिछले कुछ समय से ऎसा ही देखा जा रहा है कि गन्ने की पैदावार भी बढ़ रही है और देश में चीनी की आपूर्ति भी।

सभी मिलों को नुकसान नहीं
देश में औसतन प्रति क्विंटल गन्नेे से करीब 10 किलो चीनी ही मिलती है। यानी गन्ने की कीमत यदि 280 रूपए क्विंटल हो तो चीनी में गन्ने की लागत 28 रूपए प्रति किलो होगी। यह सही है कि इसके अलावा चीवी उत्पान में अन्य लागतें भी जुड़ जाती है। लेकिन, इसके साथ यह भी सही है कि चीनी मिलों से एथेनॉल, बगास, सिरके समेत कई सह उत्पादों से चीनी मिलों को काफी मात्रा में कमाई भी होती है।

आंकड़ों पर उठते हैं सवाल
यह सही है कि चीनी मिलों को चीनी की कीमत कम होने से कुछ नुकसान होता है। लेकिन, कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि इन मिलों के प्रबंधन द्वारा आंकड़ों को सही प्रकार से प्रस्तुत किया ही नहीं जाता। गौरतलब है कि चीनी मिलें पिछले तीन साल से घाटे की बात कर रहे हैं लेकिन फिर भी यह देखने को मिल रहा है कि वे अपना उत्पादन बढ़ाती ही जा रही हैं। कहीं ना कहीं इस बात पर भी विचार करने की जरूरत है।

दूसरी बात यह है कि सभी मिलें एक जैसी क्षमतावान नहीं हैं। कई निजी क्षेत्र की चीनी मिलें कई प्रबंधन और उत्पादन की नई तकनीकों का प्रयोग कर और सह उत्पादों का भली-भांति उपयोग कर लाभ कमा रही हैं। जहां कई मिलें परिचालन लाभ दिखा रही हैं लेकिन मिलों के संगठन समाचारपत्रों मे ंविज्ञापन देकर नुकसान दिखा रहे हैं। तीसरी बात यह भी महत्वपूर्ण है कि अधिकतर मिलों में पुरानी तकनीकों से काम हो रहा है और उत्पादन प्रक्रिया में तकनीकी नुकसान (शुगर लॉसेज) बहुत होता है। कई मिलें तो गन्ने से आठ से नौ प्रतिशत ही चीनी ले पाती हैं और अच्छी मिलें 12 से 13 प्रतिशत तक चीनी प्राप्त कर लेती हैं। चीनी उद्योग को इसी क्षेत्र में सुधार की विशेष आवश्यकता है।

घाटा तो इस तरह ही संभलेगा
देवेंद्र शास्त्री, वरिष्ठ पत्रकार
इस बार हमारे देश में चीनी का उत्पादन इतना हो गया है कि आपूर्ति के दबाव में कीमतें लगातार गिरती जा रही हैं। नौबत यहां तक पहुंच गई है कि चीनी उद्योग ने अधिशेष (सरप्लस) स्टॉक को तत्काल नष्ट करने का सुझाव दे दिया है। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में खाने के सामान को नष्ट करने का सुझाव बचकाना लगता है लेकिन चीनी मिल मालिकों को अपनी जान की पड़ी है। ऎसा अनुमान है कि अगर चीनी मिलों को उनके उत्पाद का पूरा पैसा नहीं मिला तो उन्हें किसानों को गन्ने का मूल्य चुकाने में परेशानी होगी और अगर इतने बड़े घाटे के बाद भी मिलों ने किसानों को गन्ने के पैसे दे दिए तो मिलों पर ताले पड़ जाएंगे।

मिलों को जबर्दस्त घाटा
भारत में चीनी मिलों के सामने कोई न कोई संकट खड़ा ही रहता है। गन्ने की कीमतों पर विवाद हर साल का है और आखिर सरकारी दखलंदाजी से ही मामला निपटता है। लेकिन, इस बार का संकट कुछ ज्यादा गंभीर है। सरकार भी मदद करने में नाकाम साबित हो रही है। घरेलू बाजार में चीनी की कीमतों में लगातार आ रही गिरावट ने मिल मालिकों की नींद उड़ा दी है। मिल मालिकों को 9 रूपए तक प्रति किलो घाटा उठाना पड़ रहा है। लिहाजा मालिक चाहते हैं सरकार अनुदान (सब्सिडी) के जरिए इस घाटे को तो पूरा करे ही और कीमतों में और गिरावट से संभावित घाटे को रोकने के लिए भी उपाय करे। इंडियन शुगर मिल एसोसिएशन (इस्मा) के महानिदेशक अबिनेश वर्मा ने तो सुझाव दे दिया है कि सरप्लस चीनी को नष्ट कर दिया जाए।

सस्ते आयात का है डर
चीनी कारोबार का सीजन अक्टूबर से शुरू हो कर अगले वर्ष सितंबर में खत्म होता है। इस बार चालू सीजन के अंत में अनुमान लगाया जा रहा है कि देश में 90 लाख टन अतिरिक्त चीनी का भंडार देश में पड़ा होगा जिसमें चीनी मिलों की करीब 27 हजार करोड़ रूपए की कार्यशील पूंजी (वकिंüग कैपिटल) ब्लॉक यानी रूक जाएगी। इस्मा का मानना है कि मिलों के पास पैसा नहीं है। वे बैंकों से पहले ही मिल कर्ज ले चुकी हैं। ताजा कर्ज देने के लिए बैंक तैयार नहीं है। एसोसिएशन का अनुमान है कि देश की करीब 500 चालू चीनी मिलों में से करीब 25 फीसदी अगले सीजन में अपना काम चालू नहीं रख सकेंगी। उन्हें गन्ना पिराई बंद रखनी होगी।

केंद्र सरकार ने चीनी मिल मालिकों को संकट से उबारने के लिए हर संभव उपाय कर लिये हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत के मुकाबले सस्ती चीनी उपलब्ध है। लिहाजा सस्ते आयात का डर बना हुआ था। सरकार ने आयात रोकने के लिए आयात शुल्क 24 से बढ़ाकर 40 फीसदी कर दिया है। मिल मालिक चाहते हैं कि उन्हें गन्ने की कीमतों में भी राहत दी जाए। रंगराजन समिति ने गन्ने की कीमतों को बाजार भाव से जोड़ने करने का सुझाव दिया है। कुछ राज्यों में चीनी पर 5 फीसदी वैट भी लागू है जिससे चीनी दूसरे देशों के मुकाबले महंगी हो जाती है। मिल एसोसिएशन ने वैट समाप्त करने का भी सुझाव दिया है। साथ ही सरकार से कहा है कि वह चीनी मिलों के सह उत्पाद एथेनोल को पेट्रोल में मिलाना जरूरी करे ताकि उन्हें अपना घाटा कम करने में मदद मिल सके।

विदेश में होता है सरप्लस उत्पाद बर्बाद
चीनी मिल मालिक चाहते हैं कि सरप्लस चीनी को नष्ट करने का विकल्प इस्तेमाल करना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय बाजारों में किसानों और व्यापारियों को कीमतों की गिरावट के कारण होने वाले नुकसान से बचाने के लिए सरप्लस फसल या उत्पाद को नष्ट करने का रिवाज पहले से मौजूद है। अमरीका और आस्ट्रेलिया की सरकारों ने अपने किसानों को मदद करने के लिए अनाज के सरप्लस स्टॉक नष्ट किए हैं। हमारे यहां भी यह विकल्प इस्तेमाल किया जा सकता है। असल में भारतीय चीनी मिलों के संकट में अंतरराष्ट्रीय बाजार का योगदान ज्यादा बड़ा है। चीनी उत्पादन के मामले में ब्राजील सबसे आगे है और वहां की मिलें भारतीय मिलों के मुकाबले करीब 9 रूपए प्रति किलो सस्ती चीनी पैदा करती हैं। लिहाजा वे ही बाजार को नियंत्रित करती है।

भारत के पास ब्राजील से कीमतों के स्तर पर मुकाबले करने के लिए जरूरी साधन नहीं है। देश में जरूरत से करीब 20 लाख टन चीनी ज्यादा तैयार हो गई है पर इसका कोई खरीदार नहीं है। घरेलू बाजार में जैसे ही अतिरिक्त चीनी आना शुरू होगी, कीमतें फिर गिरेंगी। चीनी मिलों ने केंद्र सरकार से मदद की गुहार लगाई है किंतु छोटी- मोटी राहत के सिवाय कुछ हो नहीं सकता। सरकार पीडीएस के नाम पर चीनी की खरीद कर सकती है पर वो चीनी असल में बाजार में ही होगी और इससे कीमतों को गिरने में ही मदद मिलेगी।

उपायों को लेकर सरकार असमंजस में
चीनी मिल मालिकों के कई प्रतिनिधिमंडल केंद्र सरकार से मिल चुके हैं पर राहत के नाम पर कुछ खास मदद नहीं हो सकी है। ऊपर से राज्यों की किसान राजनीति इन हालात को और भयावह बना रहे हंै। कोई भी किसानों को नाराज नहीं करना चाहता। चीनी मिल वालों के पास यही एक चारा है जिससे उन्हें कुछ राहत मिल सकती है। वो है सरप्लस चीनी को नष्ट करना। चीनी नष्ट होगी तो चीनी मिलें बचेंगी। पर हमारे देश में सरकार के इस फैसले का भारी विरोध होगा। सरकार के लिए असमंजस की स्थिति बन गई है। सरकार के यदि इस तरह का कोई कदम उठाया तो विपक्षी दलों को सरकार पर निशाना साधने का एक और हथियार मिल जाएगा। इन हालात में सरकार किसानों की नाराजगी का जोखिम उठाएगी, इसमें संदेह है।

उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में शुगर मिल लॉबी बेहद प्रभावशाली हैं। राज्य सरकारों पर ही नहीं केंद्र सरकार पर भी चीनी मिल मालिकों का लगातार दबाव बना हुआ है कि कोई ना कोई उपाय किए जाएं। लेकिन, वोट बैंक की राजनीति के चलते सरकार असमंजस में पड़ी है। पूर्व कृषि मंत्री शरद पवार महाराष्ट्र में चीनी मिल मालिकों पर भारी रसूख रखते हैं। वे केंद्र सरकार से भी बात कर सकते हैं पर अभी तक कुछ खास हरकत हुई नहीं है।

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