यूरोप के करीब आधा दर्जन देशों में बुर्के पर प्रतिबंध के बाद अब जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने भी जर्मनी में बुर्के पर प्रतिबंध के संकेत दिए हैं। पूरी दुनिया में बुर्के और हिजाब को लेकर इन दिनों बहस छिड़ी हुई है। बुर्का पहनने पर प्रतिबंध फ्रांस, इटली, स्पेन, बेल्जियम, रूस, नीदरलैंड सरीखे देशों ने कोई यूं ही नहीं लगाया होगा। इसका बड़ा कारण आतंकी गतिविधियों को माना जा रहा है। जाहिर है बुर्के की आड़ में आतंकी गतिविधियों को आसानी से अंजाम दिया जा सकता है।
पूरे मसले पर बहस इसलिए छिड़ी हुई है क्योंकि इसे ज्यादातर लोग धर्म विशेष के पहनावे और कुछ निजता बनाए रखने की आजादी से जोड़कर देखते हैं। मेरा मानना है बुर्के पर रोक को लेकर यूरोप और दुनिया के दूसरे देशों में जो माहौल बना है उसका सबसे बड़ा कारण आतंकी घटनाओं में बढ़ोतरी ही है। रहा सवाल, बुर्के पर प्रतिबंध से जुड़े धार्मिक पहलू का तो सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि अािखर इस्लाम में बुर्का प्रथा या हिन्दुओं में घूंघट प्रथा क्यों शुरू हुई?
महिलाओं को पर्दे में रखने के नियम-कायदे आखिर किसने और क्यों बनाए? इसके फायदे और नुकसान की बातें बाद की है। हमारे समाज में सदियों से कई बातें ऐसी हुई हैं जो बाद में परम्परा का रूप लेने लगी। बुर्का और घूंघट दोनों को उसी परम्परा का हिस्सा माना जाना चाहिए। जो लोग बुर्का को इस्लाम से जोड़ते हैं उनको तो यह भी पता नहीं है कि आखिर बुर्का की अनिवार्यता का जिक्र कहां है? इस्लाम का पवित्र ग्रंथ कुरान है और उसमें भी कहीं नहीं लिखा कि मुस्लिम महिलाओं को बुर्का पहनना जरूरी है। हां इतना जरूर है कि कुरान महिलाओं को संजीदा तरीके से रहने की नसीहत देता है। लेकिन इसे पहनावे से जोड़कर देखना ठीक नहीं।
समय के साथ-साथ समूचे समाज में बदलाव का दौर भी आया है। ऐसे में यदि कोई परिपाटी बदलना भी चाहे तो उसमें किसी को दिक्कत क्यों होनी चाहिए? महिलाओं में पर्दा प्रथा का दौर सब धर्म-समुदायों में रहा है। इसके तात्कालिक कारण भी थे। आज की तरह सुरक्षा का माहौल था भी नहीं कि महिलाएं बेखौफ होकर बाहर निकल सके। कहीं-कहीं आक्रांताओं के डर ने भी महिलाओं को पर्दानशीन होने को मजबूर किया।
इटली और रोम में तो ईसाई व पारसियों तक में पर्दे का चलन काफी समय तक रहा है। हजारों साल पहले रोम व सीरिया में सभ्रांत घरानों से सम्बद्ध रखने वाली महिलाएं तो आम तौर पर बाहर निकलती ही नहीं थी। इनको सांस्कृतिक तौर पर सुपीरियर समझा जाता था। वे महिलाएं ही घर से बाहर आ पाती थीं जिन्हें रोजी-रोटी कमाने की चिंता रहती थी। बाहर निकलने वाली ऐसी महिलाओं के सुरक्षा की दृष्टि से पहने जाने वाले परिधान को ही बुर्का के रूप में इस्लाम ने अपना लिया।
जिस समय यह पहनावा अपनया गया उस समय परिस्थितियां भिन्न थी। अब बदलाव के दौर में यदि महिलाएं खुद बुर्का हटाने की बात कहती हैं तो उसका भी स्वागत किया जाना चाहिए। मोटे तौर पर यह समझा जा सकता है कि बुर्का या किसी अन्य किस्म का पर्दा सिर्फ सामाजिक परिपाटी थी इसे किसी धर्म -समुदाय से जोडऩा उचित नहीं कहा जा सकता। रही बात बुर्के पर प्रतिबंध लगाने वाले देशों की, मेरा मानना है कि वे सही फैसला ले रहे हैं।
आतंकवाद ने दुनिया के देशों को इतना डरा दिया है कि यह कब किस रूप में दस्तक दे, दे कहा नहीं जा सकता। पिछले कुछ उदाहरण सामने आए भी हैं जब बुर्का पहने आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया गया। अब भला यह कैसे तय किया जाएगा कि जिसने बुर्का पहन रखा है वह पुरुष है या महिला। बुर्के की आड़ में कोई भी बम और दूसरे घातक हथियारों का इस्तेमाल कर आतंकी घटनाओं को अंजाम दे बैठे तो क्या होगा?
बुर्के को लेकर इस्लाम पर हमले की हायतौबा मचाने वाले यह भी कहते हैं कि इसकी आड़ में इस्लाम को मानने वालों को प्रताडि़त किया जा रहा है। मैं खुद यूरोप व अमरीका में कई बार जाकर आई हूं। मुझे कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि मुसलमान होने के नाते दूसरे दर्जे का बर्ताव हुआ हो। एक बड़ी समस्या दुनिया में शरणार्थियों की है। भारत समेत कई देशों में बुर्का पहने घुसपैठियों व शरणार्थियों की तादाद बढ़ रही है।
जाहिर है कि कोई ‘मानव बमों’ को अपने यहां आने की इजाजत नहीं देगा। बुर्के की वकालत करने वाले देशों के उदाहरण भी हमारे सामने हैं जहां आतंकी घटनाएं बुर्का पहनकर ही अंजाम दी गई। पाकिस्तान में तो ऐसी घटना के बाद आतंकी को बुर्का पहनकर भागते देखा गया। ऐसे में मेरा मानना है कि आंतरिक सुरक्षा के लिहाज से कोई देश यदि किसी पहनावे विशेष पर रोक लगता है तो उसमें किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए।
जर्मन चांसलर ने अपने देश में बुर्के पर रोक लगाने के संकेत देकर कुछ गलत नहीं किया। सब देशों को अपने यहां सुरक्षा संबंधी कानून बनाने और उनकी पालना कराने का अधिकार है। यदि किसी को ये कानून पसंद नहीं आते तो उन्हें स्वाभाविक रूप से वह देश छोड़ देना चाहिए। सीधी सी बात है जिस देश में आप रहते हैं या जाते हैं तो उस देश का कानून तो मानना ही होगा। इसे धर्म-समुदाय का मसला बनाना ठीक नहीं।
प्रो.फरीदा खानम इस्लामिक अध्येता