पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के लिए नामांकन शुरू होते ही टिकटों को लेकर राजनीतिक दलों में उठापटक शुरू हो गई है। कांग्रेस हो या भाजपा, सपा हो या बसपा अथवा आप सभी के नेता भले ही आम दिनों में राजनीति को पारदर्शी, स्वच्छ तथा भ्रष्टाचार रहित होने के बड़े-बड़े उपदेश देते रहे हों लेकिन जैसे ही चुनाव सिर पर आते हैं इन सभी के रंग गिरगिट की तरह बदलने लग जाते हैं।
मुलायम सिंह यादव की ओर से लोहिया के सिद्धांतों पर गठित समाजवादी दल में महासंग्राम अभी थमा भी नहीं था कि भाजपा से उत्तराखंड, गोवा और उत्तरप्रदेश में विरोध के स्वर उठने लगे। कांग्रेस में भी सपा से गठबंधन को लेकर पुराने दिग्गज खिन्न हैं। करीब चार दशक से कांग्रेस का उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में झंडा बुलंद करने वाले वरिष्ठ नेता, पूर्व मुख्यमंत्री और राज्यपाल रहे नारायण दत्त तिवारी अपने पुत्र रोहित संग ‘कमलÓ की शरण में चले गए।
पंजाब में पूर्व क्रिकेटर एवं सांसद नवजोत सिंह सिद्धू भाजपा छोड़कर ‘हाथÓ थाम लिया तो ‘बहनजीÓ के विश्वस्त रहे और हाल ही भाजपा में गए स्वामी प्रसाद मौर्य के अब कांग्रेस में जाने की चर्चा है। इधर भाजपा और नरेंद्र मोदी के धुर विरोधी कुमार विश्वास भी अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी से छिटककर कमल में समाने को बेचैन है। हर नेता येन-केन-प्रकारेण चुनावी वैतरणी पार करना चाहता है। किसी को नैतिकता, सिद्धांत या संवैधानिक मूल्यों की चिंता नहीं। चुनावी राज्यों में पकड़ी जा रही अवैध रूप से लाई करोड़ों की नई करेंसी भी साबित करती है कि भ्रष्टाचार का ‘नागÓ भी मतदाता को डसने को तैयार है।
इस चुनावी ‘कपटलीलाÓ के नायक हर हाल में जीत रूपी ‘नायिकाÓ का वरण करना चाहते हैं। फिर चाहे उन्हें इसके लिए ‘खलनायकÓ ही क्यों ना बनना पड़े। ऐसे माहौल में देश की निगाह चुनाव आयोग पर है कि वह कैसे निष्पक्ष, स्वतंत्र और निर्भीक माहौल में लोकतंत्र के इस यज्ञ को पूर्ण करवा पाता है। सख्ती उसे ही दिखानी होगी। आचार संहिता का कड़ाई से पालन कराना होगा।
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