पांच साल में तीन महीने चुनाव के और फिर पौने पांच साल काम ही काम। वर्ष 1952 से लेकर 1967 तक ऎसा होता रहा
भारत जैसे देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का विचार देर से आया एक दुरूस्त कदम माना जा सकता है। ऎसा विचार जो परवान चढ़ जाए तो देश की राजनीतिक व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव ला सकता है। पिछले करीब पांच दशकों से ऎसी परिपाटी बन चली है कि देश लगभग हर छह महीने में किसी न किसी चुनाव से रूबरू होता है।
लोकसभा चुनाव को अभी 10 महीने बीते हैं लेकिन उसके बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में चुनाव हुए तो फिर जम्मू-कश्मीर और इसके बाद दिल्ली के चुनाव। यानी दस महीने में चार चुनाव। चुनाव आयोग और राजनेताओं की थकान अभी उतरी भी नहीं होगी कि बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारियां शुरू होने को हैं। इसके चार महीने बाद प. बंगाल, तमिलनाडु और केरल में रणभेरी बज उठेगी। लगता है सरकारों और राजनीतिक दलों का आधा समय तो चुनावी मुकाबलों में ही गुजर जाता है। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का उदाहरण हमारे सामने है।
दिसम्बर 13 में विधानसभा चुनाव हुए, फिर अप्रेल-मई में लोकसभा चुनाव और इसके बाद नगर निगम और पंचायत चुनाव। कभी सहकारी संस्थाओं के चुनाव तो कभी कृषि उपज मंडी समितियों के चुनाव। बीच में विधानसभा उपचुनाव हुए सो अलग। यानी सोलह महीनों में चार-पांच चुनाव।
रोचक तथ्य ये भी कि इन सोलह महीनों में से आठ महीने तो आचार संहिता ही लगी रही और कामकाज नहीं हो पाया। दस महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में सरकार, राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों के चुनाव पर किए खर्च की राशि 30 हजार करोड़ पार आंकी गई। हर राज्य में चार बार चुनाव का मतलब यह राशि सवा लाख करोड़ के पार बैठती है।
संसदीय समिति ने लोकसभा व विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की जो कवायद शुरू की है उसमें स्थानीय निकाय व पंचायत चुनाव को भी जोड़ दिया जाए तो देश की राजनीतिक तस्वीर बदलने की उम्मीद की जा सकती है। पांच साल में तीन महीने चुनाव के और फिर पौने पांच साल काम। 1952 से 1967 तक ऎसा होता रहा है और आगे भी हो सकता है।
सरकार, चुनाव आयोग और तमाम दल मिल-बैठकर आम सहमति पर पहुंच सकते हैं। एक साथ चुनाव कराने के लिए कानून में जो बदलाव करने की जरूरत हो उसे 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले कर लेने चाहिए। एक साथ चुनाव के सुझाव पर शायद ही कोई दल असहमत हो।
राजनीतिक दलों के बीच तमाम मुद्दों पर असहमति के स्वर उभरना लोकतंत्र की खासियत हो सकती है लेकिन कुछ मुद्दे ऎसे भी होते हैं जिन पर रजामंदी बिठाई ही जानी चाहिए। इस मुद्दे पर रह-रहकर आवाजें उठती जरूर रही हैं लेकिन कभी कोई गंभीर प्रयास होते नजर नहीं आए। इस बार जो पहल शुरू हुई है उसे अंजाम तक पहुंचाया गया तो यह एक बड़ी उपलब्घि होगी जिससे समूचा देश लाभान्वित होगा। चुनाव सुधार की दिशा में यह एक ऎसा कदम होगा जो सुधार के दूसरे दरवाजे खोलने का काम करेगा।