लगता है देश में कष्ट उन्हीं लोगों को उठाना पड़ रहा है जो नियम-कानूनों की पालना करते हैं। नियम-कानूनों को अपनी जेब में रखने की सोच वालों पर शिकंजा कसने की कोई सोचता भी नहीं। हां, कहते सभी हैं। देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी पूर्व वित्त मंत्रियों की तरह एक बार फिर लोन नहीं चुकाने वालों पर शिकंजा कसने का बयान जारी कर रस्म अदायगी कर दी लगती है। बैंक प्रबंधन परेशान हैं बैंकों की ‘गैर निष्पादित आस्तियों’ यानी एनपीए के अस्वीकार्य स्तर पर पहुंचने को लेकर। लेकिन सरकारें सिर्फ बयान देकर ही अपने कर्तव्यों की पूर्ति कर लेना चाहती हैं।
तभी तो बैंकों का कर्ज नहीं चुकाने वालों की तादाद दिनो-दिन बढ़ती जा रही है। देश के तमाम बैंकों का तीन लाख करोड़ रुपए कर्ज डूबत खाते पड़ा है। खास और चौंकाने वाली बात ये है कि इनमें तीस बड़े उद्योगपतियों के नाम एक लाख 21 हजार करोड़ रुपए का कर्ज बोल रहा है। कुल कर्जे का 73 फीसदी एक करोड़ से अधिक कर्ज लेने वालों का है। इससे एक बात तो साफ हो जाती है कि देश के गरीब और मध्यम वर्ग को अब भी कानून और नियमों का डर है जबकि उच्च वर्ग और उद्योगपतियों को इसकी परवाह कम लगती है।
ताजा उदाहरण जाने-माने उद्योगपति विजय माल्या का है। लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद स्टेट बैंक ने माल्या को जान-बूझकर कर्ज नहीं चुकाने वाला चूककर्ता घोषित किया है। माल्या ने स्टेट बैंक समेत 17 बैंकों से 2010 की शुरुआत में 6900 करोड़ रुपए का कर्जा लिया था। जनवरी 2013 से माल्या ने बैंकों का कर्ज चुकाना बंद कर दिया। मामला अदालत तक पहुंचा लेकिन माल्या की कम्पनी ने कर्ज चुकाने की जहमत नहीं उठाई।
माल्या जैसे दूसरे उद्योगपतियों के नाम बैंकों का कर्ज बढ़ता जा रहा है लेकिन उसे वसूलने वाला कोई नहीं। लोन नहीं चुकाने वालों पर शिकंजा कसता जरूर है लेकिन आम आदमी पर। दस-बीस हजार का कर्ज नहीं चुकाने वालों के घर पर बैंक प्रबंधन भी डुग्गी पिटवा कर उन्हें मोहल्ले में बदनाम कर देते हैं। लेकिन बड़े हाथियों के आगे या तो उनकी चलती नहीं या फिर चलने नहीं दी जाती।
देश की अर्थव्यवस्था मजबूत करनी है तो उसके तमाम रास्ते हैं और बैंकों के डूबे कर्जे को वसूल करना उनमें से एक रास्ता है। बैंकों का डूबा कर्ज आखिर है तो जनता का ही धन। प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री और अधिकारियों को ऐसे उपाय खोजने चाहिए जिससे कर्जे की वसूली तय समय पर हो सके। बैंकों की आर्थिक स्थिति मजबूत होगी तो फायदा देश को ही होगा। वित्त मंत्री जो भी बयान दें, उसके अमल की व्यवस्था का भी ख्याल रखें। तभी लगेगा कि सरकार जो कह रही है वह करती भी नजर आ रही है।