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दांव पर विश्वसनीयता

Published: Jun 28, 2015 10:24:00 pm

देश में विदेशी धन के रूप में सहायता प्राप्त करने
वाले गैर सरकारी संगठन सरकार के निशाने पर हैं। नये नियमों के मुताबिक इन संगठनों
को विदेशी सहायता की जानकारी देना अनिवार्य

 Foreign funds

Foreign funds

देश में विदेशी धन के रूप में सहायता प्राप्त करने वाले गैर सरकारी संगठन सरकार के निशाने पर हैं। नये नियमों के मुताबिक इन संगठनों को विदेशी सहायता की जानकारी देना अनिवार्य किया गया है। अब तक 10 हजार से अधिक ऎसे संगठनों के लाइसेंस सरकार रद्द कर चुकी है। आखिर क्यों चुभ रहा है सरकार को इनका काम करने का तरीका? क्या भारत के अलावा अन्य देशों में भी ऎसे संगठनों के प्रति यही रूख अपनाया जा रहा है? जानिए ऎसे ही सवालों पर जानकारों की राय, आज के स्पॉटलाइट में…

भारत भूषण, वरिष्ठ पत्रकार
ग्रीनपीस, फोर्ड फाउंडेशन और कुछ अन्य गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) सहित जो सरकार की आंखों की किरकिरी बने हैं, उस फेहरिस्त में नया नाम है केरिटास इंडिया का जिसे वेटिकन से धन प्राप्त होता है। केरिटास को स्पष्ट रूप से डच संस्था स्टिचटिंग कोर्डेड से अनुदान मिलता रहा है। भारतीय गैर सरकारी संगठनों को कोडनकुलम न्यूक्लियर पावर प्रोजेक्ट के विरोध के संदर्भ में 2011-12 के दौरान कोर्डेड से अनुदान मिला था इसीलिए केरिटास को मिला अनुदान भी भारत सरकार की जांच के दायरे में आ गया है। जिस तरह नरेंद्र मोदी सरकार हमले कर रही है उससे, एनजीओ और सिविल सोसाइटी संगठनों को लगने लगा है कि नियम कायदे ही इन्हें कमजोर करने के उपकरण बन गए हैं। इन सारी बातों का गुप्त रहस्य यही है कि सरकार कामकाज के विश्लेषण के नाम पर गैर सरकारी संगठनों की गतिविधियों को नियंत्रित, नियमित करते हुए उस पर निगाह रखने के प्रबंध कर रही है।

अंतरराष्ट्रीय संदर्भ
गैर सरकारी संगठनों को नियंत्रित करने का शुरूआती स्त्रोत अंतरराष्ट्रीय है। अक्टूबर 2001 में फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) ने भौगोलिक ढांचा विकसित किया जिसके माध्यम से इन संगठनों को मिलने वाले विदेशी धन पर निगाह रखी जानी थी कि कहीं यह हवाला के काम में तो नहीं आ रहा है। इस शुरूआत को संयुक्त राष्ट्र और जी-7 देशों का समर्थन मिला। बाद में इसकी सहायता से एनजीओ को मिलने वाली विदेशी धन पर निगाह रखी जाने लगी। सदस्य देशों को यह संदेह रहा कि यह धन आतंकी संगठनों की मदद के लिए काम आता है।

आज एफएटीएफ पेरिस स्थित ऑर्गेनाइजेशन फॉर को-ऑपरेशन एंड डेवेलपमेंट के मुख्यालय से अपने कार्य संचालित करता है। एफएटीएफ की ” विशेष सिफारिशें -8″ वैश्विक स्तर पर बेहतर प्रशासन का एजेंडा बन गई जिसे भारत सहित 180 देशों ने स्वीकार किया। ये सिफारिशें आतंकी संगठनों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने वाली ताकतों पर कानूनी शिकंजे को कसने और पारदर्शिता लाने के संबंध में है।

इन सिफारिशों के माध्यम से एफएटीएफ की मंशा रही है कि सदस्य राष्ट्र गैर सरकारी संगठनों के पंजीकरण से लेकर काम करने के लाइसेंस देेने तक की सभी प्रक्रियाओं में पारदर्शिता के लिए कड़े कानूनी प्रावधान करें। खासतौर पर आतंकी संगठनों की सहायता को लेकर भी नियंत्रण किया जा सके। जुलाई 2010 में एफएटीएफ ने निरीक्षण में पाया कि भारत इन सिफारिशों के मामले में कोताही बरत रहा है। उसने भारतीय अधिकारियों को इस मामले में ठोस कार्रवाई करने के लिए कहा।

भारत में कार्रवाई
एफएटीएफ की रिपोर्ट प्रकाशित होने के पहले ही 2010 में भारत सरकार ने कठोर कदम उठाते हुए विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) बनाया और एफटीएफ की रिपोर्ट से पहले ही कुछ गैरसरकारी संगठनों को राजनीतिक छत्रछाया में लाते हुए उन्हें विदेशी सहायता प्राप्ति के मामले में बचाया गया। इस तुरत-फुरत कार्रवाई के पीछे कारण दुनिया के देशों को यह दिखाना भी था कि भारत हवाला और आतंकी संगठनों के खिलाफ ठोस कार्रवाई करना जानता है। लेकिन, इसके साथ-साथ इस कानून ने सरकारों को असहमति की आवाजों को दबाने और मानवाधिकारों के लिए लड़ने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार भी दे दिया।

अब नरेंद्र मोदी सरकार 10 हजार से अधिक गैर सरकारी संगठनों के लाइसेंस रद्द कर चुकी है और साथ में उसने नए दिशानिर्देश भी जारी किए हैं जो विदेशी सहायता प्राप्ति की घोषणा को लेकर हैं। नए नियम आमजन की राय के लिए पेश किए गए हैं। नए नियमों के अनुसार गैर सरकारी संगठनों को विदेश से प्राप्त सहायता राशि की सात दिनों में घोषणा करनी होगी। जिन बैंकों के माध्यम से यह विदेशी राशि गैर सरकारी संगठन के खाते में जमा होगी, उन्हें यह जानकारी 48 घंटे के भीतर देगी होगी। इसी तरह गैर सरकारी संगठनो को अपने धन को देश के लिए घातक गतिविधियों में इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं है। वे अपना धन राष्ट्रहित में, जनहित में, आर्थिक और सुरक्षा के हितों को ध्यान में रखते हुए ही खर्च कर सकेंगे। मोदी सरकार ने भी मनमोहन सिंह सरकार की तरह ही गैर सरकारी संगठनों पर हमले जारी रखे। कार्यकर्ताओं और विरोध प्रदर्शकारियों की आवाज को दबाया गया।


बांग्लादेश तो भारत के मुकाबले कहीं आगे हैं। उसने ब्लॉक स्तर के अधिकारियों को गैर सरकारी संगठनों को बंद कराने के अधिकार दे दिए हैं। पाकिस्तान में भी 3000 से अधिक गैर सरकारी संगठनों को राष्ट्रहित में काम नहीं करने के कारण कामकाज समेटने को कहा गया। श्रीलंका में पूर्व राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे ने तो गैर सरकारी संगठनों के प्रेस कॉन्फ्रेंस करने पर पाबंदी लदा गी। वहां रक्षा और शहरी विकास मंत्रालय में पंजीकरण के बाद अनुमति लेकर ही विदेशी सहायता हासिल की जा सकती है।

भारत में गैर सरकारी संगठनों से घृणा की स्थिति नहीं रही है बल्कि कई सरकारी विभाग तो इनकी सहायता से अपने कार्यक्रम तक संचालित करते रहे हैं और बहुत से एनजीओ को तो सरकार से इन कामों के लिए पैसा भी मिलता रहा है। हालांकि कई बार भारत में सरकारों को एनजीओ और सिविल सोसाइटी संगठनों के कार्यो के चलतेे परेशानी होती है।

आमतौर पर ये कार्य आम जन के जीवन की रक्षा के अधिकार से लेकर राज्यों की ओर होने वाली हिंसा के विरोध के संबंध में होते हैं। विकास के नाम पर गरीब लोगों के विस्थापन, मुआवजे, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन, जंगल से निकालकर शहरों में बसने के लिए बहुत ही थोड़ी जगह देने के विरूद्ध भी एनजीओ संघर्ष करते हैं। कभी शिक्षा की गुणवत्ता और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए एनजीओ आवाज बुलंद करते हैं।

जब बड़ी परियोजनाओं के लिए किसी स्थान पर रहने वालों को सरकार हटाती है तो एनजीओ मानवाधिकार के नाम पर विरोध करते हैं। कई बार ये संगठन पर्यावरण संरक्षण के नाम पर विरोध करते हैं। ऎसे में यह बहुत ही स्वाभाविक है कि इन एनजीओ को विदेशी सहायता मिलना सरकारों को नागवार तो गुजरेगा ही। इस विदेशी धन के माध्यम से मौन रहने वालों को भी आवाज मिलने लगती है तो सरकार को लगता है कि मामला राष्ट्रहित के विरूद्ध है। उस समय सरकार की यही चाहत रहती है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक ही आवाज सुनी जाए, वो है सरकार की और उसके प्रतिनिधियों की।

सरकार को जब लगता है कि एनजीओ स्वीकारयोग्य विकास की गतिविधि में सहायक नहीं हो रहे हैं तो वह कॉर्पोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) के माध्यम से धन जुटाती है। भारत में तो कंपनी अधिनियम के तहत यह अनिवार्य कर दिया गया है कि जो कंपनियां 5 करोड़ या या इससे अधिक का शुद्ध मुनाफा कमा रही हैं उनके लिए दो फीसदी सामाजिक उत्तरदायित्व के तहत खर्च करना अनिवार्य बनाया गया है।

इस प्रकार जुटाया गया धन गैर सरकारी संगठनों को नहीं जाता। भाजपा जब बड़े कॉर्पोरेट्स की सहायता से सत्ता मे आई तो उसने इसी एजेंडे को आगे बढ़ाया। यह बात खास पर तीन बार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने के साथ जाहिर हुई। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि भाजपा देश में कार्यरत सबसे बड़े एनजीओ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनैतिक शाखा है, जिसका उद्देश्य भारत का हिंदूकरण करना है।

उस आरएसएस के सैकड़ों छोटे-छोटे एनजीओ कार्यरत हैं जो अपने अन्य सहयोगी संगठनों के कार्यो को आगे बढ़ाते हैं। आरएसएस पूर्व में अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों को साम्यवादी मोर्चे का घटक बताने का संदेह करता रहा है। अब यह पश्चिमी उदारवादी विचारों से प्रेरित और एकीकृत हिंदू समाज में मतभेद पैदा करने वाला बताता है। कुल मिलाकर इतना कहा जा सकता है कि विदेशी धन की सहायता प्राप्त करने वाले गैर सरकारी संगठनों की निगरानी और नियंत्रण जो भारत सरकार द्वारा किया जा रहा है, उसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय समुदाय की मंशा को पूर्ण करना नहीं है बल्कि यह लोकतंत्र का आवाज को दबाने वाला अधिक है।


जासूसी में भी मददगार!
अरूण भगत पूर्व निदेशक, आईबी
राष्ट्रविरोधी कार्य उन्हें माना जाता है जो देश की प्रगति में बाधक बनते हैं। ऎसे कार्य विदेशी फंडिंग लेने वाले कई एनजीओ भारत में करते आए हैं। तमिलनाडु के कुडनकुलम में बनने वाले परमाणु ऊर्जा संयंत्र का विरोध करने वाले एनजीओ की मंशा पर सवाल उठते रहे हैं। इसी प्रकार भारत में कई पिछड़े-आदिवासी इलाकों में सरकार द्वारा की जा रही विकास गतिविधियों का विरोध कई एनजीओ जानबूझकर रोड़ा डालने के लिए करते हैं।

सरकार के खिलाफ अभियान चलाने वाले एनजीओ को विदेशी फंडिंग होती है। ऎसे कई एनजीओ द्वारा एफसीआरए का उल्लंघन करना सामने आया है। ग्रीनपीस नामक एनजीओ का नाम खासतौर पर उछला। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एनजीओ का इस्तेमाल जासूसी के लिए भी बहुत किया जाता है। पश्चिमी खुफिया एजेंसियां इन संगठनों के जरिए भारत जैसे देश से सूचनाएं हासिल करती हैं। धर्मान्तरण के लिए कई एनजीओ के पास विदेशी पैसा आता है। अब केंद्र सरकार ने इनकी फंडिंग और कार्यो की देखरेख शुरू की है, यह अच्छा कदम है।

जांच सभी की हो
परंजॉय गुहा ठाकुरता आर्थिक विश्लेषक
भारतीय गृह मंत्रालय ने 4000 एनजीओ कोे कह दिया है कि उनके खातों में खामियां हैं और इनको बंद किया जाना चाहिए। जैसे ग्रीनपीस के खातों के लिए सरकार ने नोटिस दिया है कि क्यों न आपका खाता बंद कर दिया जाए?

दरअसल, बहुत सारे एनजीओ, जो सरकार के खिलाफ मुद्दे उठाते हैं, उनका मंुह बंद करने की कवायद जोरों से चल रही है। फोर्ड फाउंडेशन द्वारा जिन एनजीओ को मदद दी जा रही थी, उन्हें भी बंद करने की बात हुई। पर इसी फोर्ड फाउंडेशन ने भारत में शिक्षा जैसे क्षेत्र में बहुत मदद की है। इसी प्रकार ग्रीनपीस ने कोयला खदानों का विरोध किया। कुडनकुलम परमाणु संयंत्र का भी ग्रीनपीस ने विरोध किया। चाहे गुजरात हो या ऑस्टे्रलिया, अडानी के प्रोजेक्ट विरोध भी ग्रीनपीस ने किया। पर सरकार को कॉरपोरेट और अपनी नीतियों का विरोध पसंद नहीं हैं। इससे सरकार द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विश्वास करने पर सवाल उठना लाजिमी है।

सरकार ने 4000 एनजीओ पर कार्रवाई की है। पर ग्रीनपीस और फोर्ड फाउंडेशन को ज्यादा लक्ष्य बनाया है। ऎसा पिछली सरकार भी करती थी और यह सरकार भी कर रही है। दोनों सरकारें विदेशी निवेश की हिमायती हैं। पर जो विदेशी मुद्रा सरकार समर्थित विचारधारा वाले एनजीओ के खातों में आती है तो उनमें दिक्कत क्यों नहीं होती? मगर ये पैसा जब उन एनजीओ के खातों में आता है, जो सरकार के खिलाफ आवाज उठाते हैं तो वह सरकार को पसंद नहीं हैं।

इन एनजीओ को सारा पैसा ही विदेश से नहीं आता है। हमारे देश से भी एनजीओ को आम जनता के जरिए पैसा मिलता है। ये सरकार या कॉरपोरेट से पैसा नहीं लेते। सरकार को लक्ष्य बनाकर कार्रवाई नहीं करनी चाहिए। जब जांच हो रही है तो तमाम एनजीओ के खातों को खंगाला जाए। इसमें कोई दोराय नहीं है कि सभी एनजीओ को अपने खातों में पारदर्शिता रखनी चाहिए। फंडिंग का ब्योरा सरकार के समक्ष पेश करना चाहिए। जो भी गैर कानूनी गतिविधियों में शामिल हों, उन सभी एनजीओ पर कार्रवाई कीजिए।
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