खाड़ी देशों का शुक्रगुजार होना चाहिए जिनके द्वंद्व से सवा सौ रुपए बैरल बिकने वाला कच्चा तेल तीस पैतीस के भाव आ गया
वाह री राजनीति! भाजपा की बड़ी नेत्री सफाई दे रही हैं कि वेमुला दलित नहीं था। चलिए मान लिया वह दलित नहीं है तो इसके बावजूद उसकी आत्महत्या को सही मान लिया जाए? यानी अगर किसी अदलित युवक ने फांसी से लटककर अपनी जान दे दी तो उस पर संवेदना प्रकट करना फिजूल है? इसका सीधा-सा अर्थ यह नहीं कि इस देश में दलित और अदलित दोनों अलग-अलग तराजुओं पर तोले जाते रहे हैं?
हम आम आदमी की बात तो नहीं कर रहे पर सत्ताधारियों की तराजू तो यही कहती है। हैरानी की बात यह है कि जब भी देश के नागरिक धर्म, सम्प्रदाय, जाति-बिरादरी भूलना चाहते हैं तभी अचानक एक नेता खड़ा होकर उसके कान के पास घंटी बजाने लगता है। मानो उसे जगा रहा हो- अरे बावले। तू तो जन्म से सवर्ण है। यह तूने क्या किया? काहे एक अनुसूचित जाति के आदमी को अपना दोस्त बना रखा है? क्यों इसके साथ बैठता-उठता है?
चल बैठने-उठने तक तो ठीक है पर तूने तो इसके संग खाना-पीना भी शुरू कर दिया। कल बेटी-बेटे के रिश्ते बनाने भी शुरू कर देगा। जाग बावले जाग। और आदमी सब कुछ भूलने के कगार पर होता है अचानक वह सिंहर जाता है। इसके बाद भी कोई ‘बावला’ नहीं समझता तो उसकी खैर नहीं। रोहित वेमुला के मामले में यही हो रहा है। जो इसके पक्ष में है वे जोर लगा कर कह रहे हैं कि यह दलित पर अत्याचार है और जो उसकी आत्महत्या से आरोपी बने नजर आ रहे हैं वे पूरा दम लगा रहे हैं कि वह दलित था ही नहीं ।
कसम से ऐसी घटिया राजनीति क्या इससे पहले कभी आपने देखी है। यह सारा खेल असली मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए है। अब चाहे मोदी सरकार को दिखलाई दे या न दे लेकिन हमें तो युवा असंतोष की आहट सुनाई दे रही है। जिस तरह एक के बाद एक मोर्चे पर सरकार पीछे खिसकती जा रही है, जैसे-जैसे देश की बेरोजगारी में लगातार इजाफा होता जा रहा है वैसे-वैसे ही युवाओं के सपने टूटते नजर आ रहे हैं। हमारे जमाने में युवक ज्यादा पढ़-लिख नहीं पाते थे और छोटे मोटे धंधों को ही अपनी किस्मत समझ लिया करते थे।
अब एक बाप लाखों खर्च कर अपने बेटे को पढ़ाता-लिखाता है और बेटा बेरोजगार बैठा रहे तो सारे कुनबे में निराशा छा जाती है। यह तो खजाना मंत्री जेटली को उन खाड़ी देशों का शुक्रगुजार होना चाहिए जिनके आपसी द्वंद्व से सवा सौ रुपए बैरल बिकने वाला कच्चा तेल अब तीस पैतीस के भाव तक गिर गया है और इस बचत से सरकार अपना घाटा कम करने के जुगाड़ में है। हमें तो यह सोच कर ही झुरझुरी आ रही है कि अचानक भाव फिर बढ़ गए तो क्या होगा? बहरहाल सरकार के पौंने दो बरस बीतने को है पर अभी तक मामला ठीक से जमा नहीं है। ऐसे में तो यह गीत याद आ रहा है- उखड़े उखड़े मेरे सरकार नजर आते हैं, अपनी बरबादी के आसार नजर आते हैं।
राही