डॉ. अम्बेडकर को सच्ची
श्रद्धांजलि तभी मानी जाएगी, जब गांव की झोंपड़ी में रहने वाले आम दलित के मन में
आत्मविश्वास जग सके। हर क्षेत्र में उसे बराबरी का हक मिले
आजादी के इतने साल बाद भी हमारी सरकारों और राजनीतिक
दलों के लिए दलित समुदाय वोट बैंक से ऊपर क्यों नहीं उठ पाया? मौका दलितों के लिए
शुरू की जाने वाली सरकारी योजनाओं का हो या अम्बेडकर जयंती मनाने का, बात इस समुदाय
में अपनी पैठ बनाने से ऊपर कभी उठती ही नहीं। डॉ. बी.आर. अम्बेडकर की 125वीं जयंती
मनाने का मामला भी राजनीतिक दांवपेंच से अलग नहीं दिख रहा। केन्द्र में अब भाजपा
सरकार है लिहाजा वह अम्बेडकर जयंती धूमधाम से मनाकर यह संदेश देना चाहती है कि वह
भी उनकी पैरोकार है।
किसी भी सरकार को अपने महापुरूषों की जयंती मनाने का अधिकार है
लेकिन क्या इसे वोट बैंक की राजनीति से अलग नहीं देखा जा सकता? अम्बेडकर हों या
महात्मा गांधी अथवा उनके समक्ष दूसरे महापुरूष, उनकी जयंती अलग-अलग क्यों मनाई जाए?
क्या सरकार और राजनीतिक दल मिलकर ऎसा आयोजन नहीं कर सकते जिसमें राजनीति बिल्कुल
नहीं हो। इस देश ने अम्बेडकर के अलावा के.आर. नारायणन के रूप में दलित राष्ट्रपति
को देखा है तो के.जी. बालकृष्णन ने मुख्य न्यायाधीश पद को गौरवान्वित किया।
बाबू
जगजीवन राम के रूप में उप प्रधानमंत्री को देखा तो कांसीराम, मायावती, सुशील कुमार
शिंदे, जी.एम.सी.बालयोगी और बंगारू लक्ष्मण सरीखे नेताओं के योगदान को भी सराहा।
देश में 21 करोड़ से अधिक दलितों की संख्या दुनिया के पांचवें बड़े राष्ट्र की
आबादी से अधिक है। लेकिन जमीनी हकीकत से हम मुंह नहीं मोड़ सकते। अनेक हिस्सों में
आज भी उन पर इसलिए अत्याचार होते हैं क्योंकि वे दलित हैं।
कहीं वे घोड़ी पर बैठकर
बारात नहीं निकाल सकते तो कहीं कुए या तालाब से पानी नहीं भर सकते। देश कांग्रेस,
भाजपा और अनेक उन मिली-जुली सरकारों को देख चुका है जो दलित उत्थान के नारे लगाते
नहीं थकती थी लेकिन चंद लोगों के उत्थान को दरकिनार कर दिया जाए तो आम दलित आज भी
विकास की राह ताक रहा है। केन्द्र सरकार अम्बेडकर की 125वीं जयंती व्यापक पैमाने पर
मनाने जा रही है।
अंतरराष्ट्रीय केन्द्र और अंतरराष्ट्रीय स्मारक बनाने पर करोड़ों
रूपए खर्च करने वाली है। लंदन में उनका घर खरीदकर स्मारक बनाने की भी योजना है।
लेकिन डॉ. अम्बेडकर को सच्ची श्रद्धांजलि तभी मानी जाएगी, जब गांव की झोंपड़ी में
रहने वाले आम दलित के मन में आत्मविश्वास जग सके। हर क्षेत्र में उसे बराबरी का हक
मिले।
आरक्षण की बैसाखियों के सहारे विकास की उम्मीद छोड़कर दलित युवा भी योग्यता
के आधार पर अपनी पहचान बनाने में कामयाब हों। दलित वोटों की राजनीति खूब कर ली।
मिल-जुलकर उनके उत्थान के लिए भी शुरूआत करने की जरूरत है। इस काम के लिए अम्बेडकर
की 125वीं जयंती से शुभ अवसर भला और क्या हो सकता है?