चिराग तले अंधेरा
उधर हमारे प्रधानमंत्री दुनिया के टॉप सीईओ के साथ ‘मेक इन इंडिया’ को
बूस्ट करने के लिए गोलमेज बैठक कर रहे हैं और इधर अदालत पूछ रही है कि
प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में बच्चे कुपोषित क्यों हैं? इसे कहते हैं
चिराग तले अंधेरा।
व्यंग्य राही की कलम से
उधर हमारे प्रधानमंत्री दुनिया के टॉप सीईओ के साथ ‘मेक इन इंडिया’ को बूस्ट करने के लिए गोलमेज बैठक कर रहे हैं और इधर अदालत पूछ रही है कि प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में बच्चे कुपोषित क्यों हैं? इसे कहते हैं चिराग तले अंधेरा। सरकारें आती हैं, जाती हैं। ‘गाल बजाती’ आती है और ‘सिर धुनती’ चली जाती हैं। अपने कारनामों का ठीकरा पिछली सरकार पर थोप देती है। अब मोदी सरकार को ही लो। क्या देश के प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री एक भी ऐसी योजना या नीति बता सकते हैं जो पिछली मनमोहन सरकार से अलग हों।
जिन योजनाओं को विपक्ष में रहते हुए नरेंद्र भाई कोसा करते थे, उन्हीं नीतियों को अब वे गाजे-बाजे से लागू कर रहे हैं। कभी-कभी तो लगता है कि हम ‘एनडीए-एक’ नहीं ‘यूपीए-तीन’ प्रशासन के तले रह रहे हैं। पिछले दो दशक से सरकारें आवश्यकता’ मूलक न रहकर वासना केंद्रित हो चली है।
आवश्यकता और वासना का फर्क भी समझ लीजिए। रोटी, कपड़ा और मकान, फ्रिज, टीवी व एक कार आवश्यकता है। इलाज, शिक्षा, आवश्यकता है। मान लीजिए आपके पास एक कार है उसके होते हुए एक और बड़ी कार का सपना देखे तो यह वासना है। कहने को तो मोदी सरकार भारतीय संस्कृति की बातें करती है लेकिन उसकी संस्कृति रक्षा सिर्फ गाय और योग तक सीमित होकर रह गई है बाकी तो वे मनमोहनी अर्थ व्यवस्था को ही तेजी से हांकते नजर आते हैं जिसमें बेतहाशा आर्थिक दौड़, बड़ा घर, बड़ी कार, बड़ी नौकरी और बड़े-बड़े सपनों के अलावा कुछ है ही नहीं।
हमारे मंत्री कच्ची बस्तियों में तब जाते हैं जब हाथ में झाड़ू लेकर फोटो खिंचाना होता है। हम तो बार-बार कहते हैं हुजूर हमें अभी बुलेट ट्रेन की नहीं, साफ पानी और पक्की बस्तियों की जरूरत है। अच्छे स्कूल और खूब सारे शफाखाने चाहिए पर हमारी सुनता कौन है? भोंके जा बेटे भोंके जा! हाथी तो मस्त चाल चला जा रहा है।
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