व्यंग्य राही की कलम से
आखिर बेटियों के दम से ही देश के भाग्य खुले। हो सकता है कि आने वाले दो-तीन दिन में एक-आध पदक और मिल जाए। वरना एक बार तो लगने लगा था कि चाहे देश भर में मानसून जम कर बरस रहा है पर ओलम्पिक से तो सूखे-सूखे ही लौटेंगे। शुक्र है बेटियों ने लाज बचा ली। इतना बड़ा देश! इतने बड़बोले नेता! और पदक! साक्षी और सिंधू को सलाम। देश के ग्लैमर वल्र्ड में अपने दूसरे-तीसरे दर्जे के लेखन और विवादास्पद टिप्पणियों से आहत करने वाली शोभा डे की बात हमें भी शूल सी चुभी थी जब उन्होंने फरमाया कि हमारे खिलाड़ी सेल्फी लेने और तफरी करने ओलम्पिक में जाते हैं। अगर यह टिप्पणी वे खेल संघों के अधिकारियों और नेताओं के लिए करती तो हम भी उनके साथ होते।
दीपा, साक्षी और सिंधू सहित देश के हर उस खिलाड़ी के संघर्ष पर मोहतर्मा ने गौर किया होता तो वे ऐसी बात मुंह से न निकालती। एक तो इस देश में जैसे ही कोई लड़की घर से बाहर निकलती है जमाना अपनी घटिया भेदी आंखों से उसका ‘एक्स-रे’ करने लगता है। और किसी बेटी के मां-बाप उसे छूट देते भी हैं तो फिर इस पुरुषप्रधान समाज के गले नहीं उतरती। यह तो भला हो उडऩपरी पीटी उषा, मुक्केबाज मैरीकॉम और एथलीट कर्णम मल्लेश्वरी, फुर्तीली सायना नेहवाल और कोर्ट क्विन सानिया मिर्जा सरीखी बेटियों का,जिन्होंने हजारों लड़कियों के लिए एक राह खोल दी। अरे भगवान के बंदों। अब तो चेतो। अब तो मानो कि बेटियां भी बेटों से कम नहीं।
बेटियां जीते जी मां-बाप का बड़ा सहारा होती हैं। ऐसा नहीं कि हम बेटों के खिलाफ हैं। इस देश के विकास और समृद्धि में बेटे कमाल का योगदान कर रहे हैं पर बेटी को दोयम मानने की मानसिकता तो छोड़ो हिमालय पुत्रों। वैसे हमने ऐसे भी अनेक बेटे देखे हैं जो इस दोहे पर खरा उतरते हैं- जियत बाप से दंगमदंगा; मरत बाप पहुंचाए गंगा। बेटियों को लाख-लाख सलाम।
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