लड़कियों ने आज हर क्षेत्र में डंका बजा रखा
है। पढ़ाई से लेकर नौकरी और व्यवसाय से लेकर अंतरिक्ष में छलांग लगाने के मामले में
लड़कियों ने अपनी प्रतिभा से सबको परिचित करा दिया है। शनिवार को घोषित हुए सिविल
सेवा परीक्षा के नतीजों में पहले पांच स्थानों पर चार लड़कियों ने कब्जा जमाया है।
यानी देश में अफसर बिटिया का राज स्थापित होने वाला है। ये तो सिक्के का एक पहलू है
जो हमें गर्व से भर देता है। सिक्के का दूसरा पहलू डरावना नजर आता है। सिविल सेवा
परीक्षा में लड़कियां टॉप कर रही हैं लेकिन जमीनी हकीकत कुछ अलग कहानी बयां करती
है। देश में 52 फीसदी लड़कियां आज भी स्कूल शिक्षा के स्तर पर ही पढ़ाई छोड़ देती
हैं। क्यों हैं ऎसे हालात और क्या है इससे आगे निकलने का रास्ता, इसी पर पढिए आज का
स्पॉटलाइट में जानकारों की राय:
समझें, लड़कियां क्या नहीं कर
सकतीं…
प्रो. अनीता रामपाल दिल्ली विवि, शिक्षा विभाग
यह एक कड़वी हकीकत
है कि हमारे देश में जब लड़कियां बड़ी हो रही होती हैं तो उनमें से ज्यादातर को
उतने मौके नहीं मिलते शिक्षा और दूसरे क्षेत्रों में आगे बढ़ने के, जितने की लड़कों
को मिलते हैं। घर और बाहर, अभिभावक और शिक्षक उनसे अपेक्षा ही नहीं करते कि वे घर
के कामों के अलावा दूसरे काम भी अच्छी तरह से करें। उनके ऊपर सामाजिक-आर्थिक और
भावनात्मक रूप से उतना निवेश नहीं किया जाता जितना कि लड़कों पर किया जाता है।
नतीजा होता है कि लड़कियों में आगे बढ़ने का आत्मविश्वास, बंधनों से जूझने की
हिम्मत ही विकसित नहीं होती। यह सभी के बारे में सच है कि अगर किसी बच्चे से अच्छे
प्रदर्शन की उम्मीद की जाती है तो फिर उसकी आत्मछवि में और सुधार आता है। लेकिन
लड़कियों के साथ तो प्राय: उल्टा होता है। स्कूलों में या घर में उनके काम की
सराहना कम होती है, उन्हें शाबासी कम मिलती है। जिससे उसकी अस्मिता सिमट कर रह जाती
है और इसका उसके प्रदर्शन पर नकारत्मक असर होता है।
बाधा दौड़ है उनकी
जिंदगी
जीवन के कई मोड़ पर लड़कियों-महिलाओं के ऊपर दबाव आता है, जब उनसे घरेलू
जिम्मेदारियों तक सिमट जाने की अपेक्षा की जाती है। पहला मोड़ है इंटर तक की पढ़ाई
पूरा करना। जो लड़कियां इस दबाव से उबर पाती हैं वे आगे निकल जाती हैं, पर जो इस
बाधा-दौड़ के शिकंजे से आगे नहीं निकल पातीं, वे आठवीं से पहले ही बाहर हो जाती
हैं। कोई लड़की विशेष इस बाधा-दौड़ को लांघ पाएगी या नहीं, प्राय: यह परिवार की
आर्थिक-सामाजिक हैसियत और आस-पास के क्षेत्र में स्कूल की मौजूदगी और
कानून-व्यवस्था की बेहतर स्थिति जैसे कारकों पर निर्भर करता है। जिन बçच्चयों को हम
इंटर और हाईस्कूल आदि में टॉप करते और लड़कों से बेहतर प्रदर्शन करते देखते हैं,
उनमें से अधिकांश मध्यम वर्ग या संपन्न तबके से होती हैं।
गरीब परिवारों से
लड़कियों प्राय: इस मोड़ से आगे नहीं बढ़ पातीं। लड़के तो गरीब परिवारों से भी आगे
बढ़ने में सफल हो जाते हैं, पर विपन्न परिवारों से लड़कियों का आगे बढ़ना काफी
मुश्किल होता है। लेकिन एक बार कोई लड़की इस बाधा दौड़ को पार कर जाती है, तो उसे
यह अहसास होता है कि उसे यह मौका बहुत संघर्ष से मिला है। यह मौका गंवाना नहीं है।
इसलिए समर्पण से काम को अंजाम देती है, जिससे लड़कों की तुलना मे उन्हें बेहतर
सफलता मिलती है।
बाधा दौड़ का दूसरा मोड़ तब आता है जब लड़की स्नातक या
परास्नातक कर चुकी होती है। फिर उससे नौकरी खोजने की प्रतिस्पर्घी परीक्षाओं या
बाजार में कूदने के बजाय शादी कर घर बसाने की अपेक्षा की जाती है। इस बाधा दौड़ को
पार करना तो मध्यम वर्ग और अपेक्षाकृत संपन्न वर्ग के तबके की लड़कियों को भी काफी
मुश्किल होता है। यद्यपि अब भारत के शहरों में नौकरी पेशा महिलाओं के लिए जगह बनती
जा रही है।
इसलिए अब शहरों की लड़कियां इस मोर्चे पर भी काफी अच्छा प्रदर्शन कर रही
हैं। मूल प्रेरणा वही रहती है, कि जो मौका संघर्ष के बाद मिला है, उसका फायदा
उठाना। इस बार आईएएस में जो चार लड़कियां शीर्ष आई हैं, उनकी कहानी भी इस बाधा दौड़
से बहुत अलग प्रतीत नहीं होती। ये चारों लड़कियां शहरी और संपन्न पृष्ठभूमि से हैं।
यद्यपि, उनकी बाधा दौड़ यहीं खत्म नहीं होती। शादी के बाद उनसे अपेक्षा होती है कि
वे परिवार की देखभाल पर अधिक ध्यान देंगी। बच्चे के पालन-पोषण के लिए तो उनको कुछ
समय के लिए अवकाश लेना ही होता है। इसलिए जो महिला नौकरी में आ भी जाती है, वे
शीर्ष पदों पर अपेक्षाकृत रूप से बहुत कम पहुंचती हैं। यह तो सारी दुनिया की कहानी
है।
क्या है हल
अब सवाल यह है कि समाज और सरकार महिलाओं के लिए इस बाधा दौड़
को कैसे आसान करे। इसका कोई त्वरित समाधान नहीं है। यह स्पष्ट है कि लड़कियां
मानसिक तौर पर लड़कों से किसी भी स्तर पर कमतर नहीं हैं। इसलिए जरूरत इस बात की है
कि परिवार-समाज और सरकार लड़कियों पर भी उतना ही सामाजिक-आर्थिक और भावनात्मक निवेश
करे, जितना वह लड़कों पर करता है। अच्छे स्कूल स्थानीय स्तर पर उपलब्ध हों तथा समाज
में सुरक्षा का माहौल हो, जिससे लड़कियों को किसी डर या बाधा के कारण घर तक ही
सीमित न रह जाना पड़े।
परिवार ही आड़े आता है
डॉ. ऋतु सारस्वत,
समाजशास्त्री
दसवीं से लेकर बारहवीं तक सीबीएसई बोर्ड से लेकर विभिन्न राज्यों
की बोर्ड परीक्षाओं में बेटियों ने लड़कों को पछाड़ते हुए अपना परचम फैलाया है। साल
दर साल से यही परिणाम आ रहे हैं। अखबारों के मुख्य पृष्ठ बेटियों की प्रशंसा से भरे
उनका उत्साहवर्घन करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते पर उसके बाद क्या? अलीगढ़ का
समाचार है कि अलीगढ़ मुस्लिम गल्र्स स्कूल और कॉलेज की छात्राएं बी.टी. परीक्षा को
छोड़कर शेष सभी परीक्षाओं में शत-प्रतिशत उत्तीर्ण हुई हैं। बी.टी. की परीक्षा में
भी वे 91 प्रतिशत उत्तीर्ण हुई हैं। पाबंदियों और कम सुविधाओं के बीच बेटियों का यह
प्रदर्शन हो सकता है, देश के संवेदनशील वर्ग के मन में ग्लानि पैदा करें कि क्यों
आज भी वे वहां नहीं पहुंच पाई हैं जहां उन्हें होना चाहिए था।
चुनौती भरी
परिस्थितियां
देश की बेटियों के साथ कैसी विषम परिस्थितियां हैं कि उन्हें उनके
स्वप्नों से येन केन प्रकारेण दूर कर दिया जाता है। बेटियों की शिक्षा और फिर उच्च
शिक्षा से कब और क्यों वंचित कर दिया जाएगा इस संशय से वे हमेशा भयग्रस्त रहती हैं।
देश की करीब 52.2 प्रतिशत बेटियां बीच में ही अपनी स्कूली पढ़ाई छोड़ दे रही हैं।
अनुसूचित जाति और जनजाति की करीब 68 प्रतिशत लड़कियां स्कूल में दाखिला तो लेती
हैं, लेकिन पढ़ाई पूरी करने से पहले स्कूल छोड़ देती हैं।
मानव संसाधन विकास राज्य
मंत्री ने माना है कि यह सरकार के लिए एक चुनौती है और सरकार इसका समाधान निकालने
के लिए संवेदनशील है। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज ने इस क्रम में पिछले साल
सितंबर में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में भी
कहा गया है कि गांव के स्कूलो में कक्षा एक में दाखिला लेने वाली 100 छात्राओं में
से औसतन एक छात्रा दसवीं के बाद की पढ़ाई जारी रखती है। शहरों में प्रति हजार में
से 14 छात्राएं ही ऎसा कर पा रही हैं।
स्कूल छोड़ने की वजह
बेटियां क्यों
स्कूल छोड़ देती हैं। इस विषय पर गैर सरकारी संगठन “प्लान इंडिया” द्वारा झारखंड,
बिहार और उत्तर प्रदेश में किए गए एक शोधपत्र में तथ्य सामने आए हैं कि बीच में
पढ़ाई छोड़ चुकी हर पांच लड़कियो में से एक का मानना है कि उनके माता-पिता ही उनकी
पढ़ाई में बाधक हैं। समाज में असुरक्षित माहौल एवं विभिन्न कुरीतियों के कारण आठवीं
या उससे बड़ी कक्षा की पढ़ाई के लिए उनके परिवार वाले मना करते हैं। करीब 35
प्रतिशत लड़कियों का मानना है कि कम उम्र में शादी होने के कारण बीच में ही पढ़ाई
छोड़नी पड़ती है।
यह अध्ययन स्पष्ट इंगित करता है कि बेटियों की शिक्षा के मध्य
अवरोध उनके परिवार के सदस्यों द्वारा ही खड़ा किया जाता है। हमारी बेटियां क्यों
हतोत्साहित हैं? ऎसा क्या है, जो वह स्वयं को इन क्षेत्रों से दूर कर लेती है जहां
समय और श्रम अधिक अपेक्षित हैं। शोध तो ऎसा बताते है कि 5 प्रतिशत लड़कियां ही
विज्ञान, तकनीक, गणित और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में अपना कॅरियर नहीं बनाना चाहती।
गणित और विज्ञान जैसे विषयों में लड़कियों का प्रदर्शन लड़कों से कमतर नहीं रहा है।
दोहरे मापदण्ड
आंकड़े बताते हैं कि 75 प्रतिशत लड़कियों को पढ़ने-लिखने और
नई चीजें खंगालने में रूचि है, जबकि लड़कों के मामले में यह प्रतिशत 50 है। दरअसल
पुरूष सत्तात्मक समाज में यह अस्वीकार्य है कि लड़कियां पुरूष के समकक्ष खड़ी हो,
अगर ऎसा नहीं है तो मात्र 20 प्रतिशत अभिभावक ही क्यों बेटियों को इंजीनियर,
वैज्ञानिक या तकनीशियन बनाने में दिलचस्पी रखते हैं। दरअसल वर्तमान परिपे्रेक्ष्य
में भारतीय समाज दोहरे मापदण्डों मे चल रहा है, वह यह तो चाहता है कि बेटियां
आत्मनिर्भर हों, क्योंकि यह अंतहीन भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति और सुयोग्य वर को
प्राप्त करने की अहम् शर्तो में से एक है परन्तु वह उन्हीं क्षेत्र को चुनने की
स्वतंत्रता देते हैं जिससे परिवार के प्रति उनकी प्राथमिकताएं बाधित न हों।
विस्मित
करने वाला सत्य यह भी है कि बेटियों का समाजीकरण कुछ इस प्रकार होता है कि उनके
मस्तिष्क में त्याग, समर्पण और दायित्वों का ताना-बाना, महिमा-मंडित कर बुन दिया
जाता है। यह सम्मोहन की वह प्रक्रिया है जो जीवनपर्यन्त उन्हें बांधे रखती है, पर
क्या यह उचित है? जब बेटियों के कंधों पर धन कमाने का दायित्व डाला जाता है तो यह
दोहरी मानसिकता का छलावा संवेदनशील समाज के लिए शोभनीय नहीं है। आवश्यकता है उनकी
क्षमताओं को स्त्रीत्व के बंधन से मुक्त करने की, और उनके प्रति समानता का
दृष्टिकोण रखने की।
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