गोविंद चतुर्वेदी
बोम्बे हाईकोर्ट ने भले मुम्बई की आदर्श बल्डिंग को जमींदोज करने का आदेश दे दिया, लेकिन लोगों को भरोसा नहीं हो रहा कि, क्या एेसा हो पाएगा? कुछ लोग एेसे भी हैं जो इस बात पर बहस कर रहे हैं, क्या एेसा होना चाहिए? पहली बात हमारे यहां राजनेता, नौकरशाह और अपराधियों का गठजोड़ इतना मजबूत है कि उन पर कुछ हो पाना असंभव सा है। इस गठजोड़ के बारे में कोई दो दशक पहले तब के केन्द्रीय गृह सचिव और आज जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एन.एन बोहरा ने बड़ी भारी-भरकम रिपोर्ट दी थी पर हुआ क्या? आज तक कुछ नहीं। उल्टे वह गठजोड़ और मजबूत हो गया। कहीं-कहीं तो उसमें बड़े-बडे़ पैसे वाले और न्यायपालिका के लोग तक शामिल हो गए। फिर न्यायिक व्यवस्था एेसी है कि वह हर व्यक्ति के निर्दोष साबित करने के पूरे अवसर देती है। इस मामले में भी मामला सुप्रीम कोर्ट तक जाने की छूट है। जब सालों हाईकोर्ट में लग गए तो सुप्रीम कोर्ट तो और भी बड़ी है।
एक बार मामला वहां गया तो गया। फिर न जाने कितने साल लगें? दूसरे विचार वाले लोगों का मानना है कि, आखिर इस 31 मंजिला बिल्डिंग को बनाने में भी धन तो देश का ही लगा है। चाहे काला हो या सफेद। फिर क्यों उसे मिट्टी में मिलाया जाना चाहिए। इस काम को तो आखिरी विकल्प के रूप में रखना चाहिए। निश्चित रूप से जिन्होंने यह घोटाला किया, उनसे तो यह छीनी ही जानी चाहिए, लेकिन यदि नौ सेना क्षेत्र को इससे कोई खतरा नहीं हो तो तोडऩे के बजाए यह उपयोग के लिए नौ सेना को ही दे देनी चाहिए।
जब नौ सेना वहां अपना बेस बनाएगी तो उसे अधिकारियों के कार्यालय और दफ्तरों के लिए भी भवन की जरूरत तो पड़ेगी ही। क्यों नहीं इस बिल्डिंग का इस्तेमाल उसके लिए किया जाए? कुछ तोडऩी भी हों तो अपनी जरूरत के लिए हिसाब से तोड़ ले, लेकिन पूरी बिल्डिंग को मटियामेट तो क्यों किया जाना चाहिए? एक विचार करगिल के ही हीरोज और उसी युद्ध की वार-विडोज को देने का भी हो सकता है, लेकिन उसमें सिविलियन और नेवल बेस की सिक्युरिटी का सवाल तो रहता ही है। जरूरत देानों विचारों को जोडऩे की लगती है। देश में राजनीति, नौकरशाही और सैन्यअधिकारियों की क्रीम कहे जाने वाले जिस गिरोह ने यह किया, उनसे तो यह बिल्डिंग न केवल छीनी जानी चाहिए बल्कि उन्हें सजा और अतिरिक्त आर्थिक दण्ड भी मिलना चाहिए लेकिन इसे तोडऩा आखिरी विकल्प ही होना चाहिए।