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गरिमा से न हो समझौता

Published: Jul 02, 2015 12:48:00 am

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक अहम फैसले में कहा
है कि बलात्कार के मामलों में किसी तरह के समझौते की

Supreme Court

Supreme Court

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक अहम फैसले में कहा है कि बलात्कार के मामलों में किसी तरह के समझौते की अनुमति पीडिता और बलात्कार के आरोपी में नहीं दी जा सकती। शादी के नाम पर भी नहीं ।


सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा कि इस तरह के सुझाव दिया जाना समझदारी की श्रेणी में नहीं आता है। पिछले दिनों देश की अदालतों से इस तरह के फैसले आए थे जिनमें अदालतों ने पीडिता को बलात्कारी से शादी का सुझाव भी दिया था।


सबसे चर्चित मामला मद्रास उच्च न्यायालय का रहा था। अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर मुहर लगा दी है कि इस तरह के फैसले न्याय की ओर नहीं ले जाते, तब सवाल यह भी उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से बलात्कार पीडिताओं के लिए न्याय की राह आसान हो सकेगी? बलात्कार के मामलों में न्याय की राह में और क्या हैं चुनौतियां, आज के स्पॉटलाइट में इसी पर पढिए जानकारों की राय:

सजा से आगे भी तो सोचें


उर्वशी बुटालिया, संस्थापक, जुबान फांउडेशन


अगर मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को ध्यान में रखें, जिसमें कोर्ट ने पीडिता को बलात्कार के आरोपी से शादी करने की सलाह दी थी, तो सुप्रीम कोर्ट का वर्तमान फैसला निश्चित रूप से सही दिशा में एक कदम माना जाना चाहिए। आखिर, कोर्ट को कोई हक नहीं बनता कि वह किसी को यह सलाह दे कि उसे किससे शादी करना चाहिए और किससे नहीं।


आखिर महिला भी एक नागरिक है और उसे भी अपने फैसले लेने का हक है। इसलिए कम से कम अपने संबंध में फैसले लेने की छूट तो उसे होना ही चाहिए कि किससे शादी करना है और किससे नहीं। इसलिए अगर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का यह आशय है कि अब अगर महिला चाहे भी तो वह बलात्कार के आरोपी से शादी नहीं कर सकती, तो फिर इस फैसले के साथ कई सारे किंतु-परंतु जुड़ जाते हैं।


जिस तरह से अदालत किसी महिला से यह नहीं कह सकती कि आप इससे शादी कर लो, उसी तरह से अदालत को किसी महिला को किसी से शादी करने से रोकने का हक भी नहीं है।


अगर महिला बलात्कार के आरोपी से शादी करने की इच्छा जताती है, तो फिर अदालत का हक नहीं बनता कि वह उसे रोके। इस तरह के मामलों में कई बार संबंध तेजी से बदलते हैं। इसलिए अदालत के फैसले को महिला के नागरिक अधिकारों के ऊपर बंदिश तो नहीं लगाना चाहिए।


साथ ही अदालत के फैसलों में इस तरह की बातें होना कि औरत का शरीर मंदिर है, आधुनिक-पंथनिरपेक्ष समाज की मांगों के साथ मेल नहीं खाता। औरत और पुरूष दोनों को अपने शरीर पर समान हक होना चाहिए।

इस फैसले से बड़ी उम्मीद नहीं


एक बात और। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से यह उम्मीद बांधना कि अब बलात्कार की पीडिताओं को बेहतर न्याय मिल सकेगा, उचित नहीं कहा जा सकता। अदालतों के फैसलों से समस्याएं हल नहीं होती। इस तरह के मामलों में सबसे ज्यादा जरूरी यह जानना होता कि महिला की राय क्या है?


आखिर बलात्कार के बाद किसी पीडिता की जिंदगी में जो बदलाव आ गया है, वो अदालत के किसी फैसले से पहले जैसा नहीं हो जाएगा। किसी बलात्कारी को सजा देने से भी पीडिता का जीवन नहीं बदल जाता। समाज ने उस पर जो कलंक डाल दिया है, वह तो अब उसे ढोना ही होगा। वष्ाü 1992 के राजस्थान के भटेरी गांव की भंवरी देवी बलात्कार का प्रकरण ही याद कर लें।


मामले में फैसला आने में 15 साल से अधिक लग गए, पर भंवरी देवी का जीवन बद से बदतर ही होता गया। आज भी भंवरी देवी उपेक्षित जीवन जी रही है। वह एक बहिष्कृत सा जीवन जीने को मजबूर है। इसी तरह से हरियाणा में पुलिस कस्टडी में रेप की शिकार हुई सुमन रानी का केस ले लें। लगभग 10 साल बाद जब इस मामले में फैसला आया तो वह महिला तो गांव छोड़कर जा चुकी थी।


आज कोई नहीं जानता कि वह कहां है और उसकी फैसले पर क्या प्रतिक्रिया हुई। ये तो लैंडमार्क केस रहे हैं। इन मामलों में जब महिला के साथ अन्याय इतना स्पष्ट है, तो बाकी केसों में महिलाओं पर क्या गुजरती होगी, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। ऎसे अनगिनत केस हैं।

कैसा होना चाहिए न्याय


सालों बाद किसी बलात्कारी को सजा मिल भी जाए तो इससे कलंक ढोने को मजबूर किसी पीडिता को खुशी मिलती होगी, यह नहीं कहा जा सकता। इसलिए इस संदर्भ में सवाल यह उठता है कि न्याय कैसा होना चाहिए। क्या सिर्फ किसी को सजा देना ही न्याय है, वह भी सालों बाद। क्या इतना काफी है?


क्या इससे महिलाओं पर बलात्कार रूक जाएंगे? उनका सम्मान लौट आएगा? बलात्कार के मामलों में न्याय की इस प्रक्रिया में क्या यह भी शामिल नहीं होना चाहिए कि कैसे पीडिता के समाज में समायोजन की दिशा में कदम उठाए जाएं। ऎसे उपाय किए जाएं जिससे वह समाज में पुन: सामान्य जीवन जी सकें।


जब तक इस दिशा में कदम नहीं उठाए जाते, तब तक सिर्फ आरोपी को सजा देने की हम कितनी ही बातें कर लें, न्याय तो महिलाओं से दूर ही रहेगा। इसलिए फिलहाल यह कहना कि सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से महिलाओं को अथवा बलात्कार की पीडिताओं को न्याय मिलने की राह खुलेगी, कहना मुश्किल है।

पहले महिला कोर्ट ने सुनाई सजा, पर हाईकोर्ट ने दिया शादी का सुझाव

त मिलनाडु के कुड्डालोर जिले में महिला कोर्ट ने वी. मोहन नामक शख्स को एक नाबालिग से बलात्कार का दोषी पाया। पीडिता बलात्कार के बाद गर्भवती हो गई थी और उसने एक बच्ची को जन्म भी दिया। महिला कोर्ट ने वी. मोहन पर पर न सिर्फ दो लाख रूपये का जुर्माना लगाया बल्कि सात साल की सजा भी सुनाई। वी. मोहन ने इस फैसले के खिलाफ मद्रास हाईकोर्ट में जमानत के लिए अपील दायर की। हाईकोर्ट ने वी. मोहन की अंतरिम जमानत मंजूर करते हुए पीडित और अपराधी में शादी का सुझाव दिया।

ऎसे फैसलों में नहीं दिखती समझदारी

म द्रास हाईकोर्ट के जज जस्टिस पी. देवदास के समक्ष जब मामला गया तो उन्होंने बलात्कारी को अंतरिम जमानत दे दी ताकि वह पीडिता के साथ “मध्यस्थता” कर सके। जज ने कहा था कि भले ही इस्लाम हो, हिंदू धर्म या ईसाई धर्म, इनमें ऎसे कई उदाहरण हैं, जब विवादों को बगैर दुश्मनी किए सुलझाया गया। इसका परिणाम भी अच्छा है क्योंकि इसमें न तो कोई विजेता है और न ही कोई परास्त। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने मध्यप्रदेश के एक ऎसे ही मामले के संदर्भ में टिप्पणी करते हुए मद्रास हाईकोर्ट के इस फैसले को भी अनुचित बताया। सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस दीपक मिश््रा की अध्यक्षता वाली बेंच ने मद्रास हाईकोर्ट को फटकार लगाते हुए कहा कि उनका फैसला एक महिला की गरिमा के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पीडित और अपराधी के बीच इस तरह के समझौते को प्रोत्साहन देने वालों में समझदारी नहीं दिखाई देती।

सही दिशा में है यह फैसला

सुधा संुदरम, महासचिव, ऎडवा

सर्वोच्च अदालत का फैसला बिल्कुल सही दिशा में है। अगर अदालतें इस तरह से कोर्ट के बाहर समझौतों के लिए रास्ता बनाती रहीं तो फिर तो रेप के मामलों में पीडिता को न्याय मिलना ही कठिन हो जाएगा और बलात्कार के प्रकरण तो बढ़ते ही जाएंगे। जब एक अपराध घटित हो चुका है तो फिर उसके बाद कुछ भी करने से वह तो अपराध ही रहेगा। इसलिए सुप्रीम कोर्ट यह कहना बिल्कुल सही है कि बलात्कार के आरोपी और पीडिता के बीच किसी भी तरह का समझौता या मध्यस्थता उचित नहीं है और ऎसे मामलों में मध्यस्थता के लिए कहना समझदारी नहीं है।

गलत संदेश से बचना होगा


हमारे देश में मध्यस्थता अथवा समझौते की बात इसलिए भी उठती है क्योंकि यह मान लिया जाता है कि बलात्कार के बाद तो पीडिता को तो भुगतना ही है। उसी पर कीचड़ उछलेगा और उसी का जीवन मुश्किल होगा, अगर वह अकेली रही तो। पर इस डर से अगर महिला को बलात्कार के आरोपी से समझौते के लिए कहा जाए तो फिर तो बहुत गलत संदेश जाएगा और इससे गुनहगारों के बचने की राह निकलती है।

दबाव में करती हैं समझौता

कोई भी पीडित महिला कभी यह नहीं चाहेगी कि उसे अपने बलात्कारी से शादी करनी पड़े। इसलिए महिला शादी के लिए तैयार होती है, तो बहुत संभव है कि वह प्रलोभन या दबाव बस ही ऎसा करेगी। साथ ही इससे बलात्कारियों का सजा देना और मुश्किल हो जाएगा। हमारे देश में पहले ही इन मामलों में सजा की दर अत्यंत निराशाजनक है। उम्मीद है कि इस फैसले से हालात सुधरेंगे।

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