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दुविधा में देरी

यह संदेह
तो पैदा कर ही रहा है कि जब सहमति बन गई तो फिर अड़चन क्या है? पार्टी का नाम,
चुनाव चिह्न और झंडे के लिए एक सप्ताह का समय पर्याप्त होता है

May 19, 2015 / 10:30 pm

शंकर शर्मा

Janata pariwar

Janata pariwar

छह दलों के नवगठित “जनता परिवार” ने जब दीवार पर लिखी इबारत पढ़ ली है तो उस पर अमल क्यों नहीं कर पा रहे? महीनों की कवायद के बावजूद छह दल पार्टी का नाम, चुनाव चिह्न और झंडा तय नहीं कर सके तो इसका सीधा-सा मतलब उसी अहम को माना जा सकता है जिसे लेकर जनता परिवार बार-बार टूटता रहा है। बिहार विधानसभा चुनाव सिर पर हैं लेकिन जनता दल (यू) और राष्ट्रीय जनत दल की चिंताओं के बावजूद विलय की गाड़ी आगे नहीं बढ़ रही। पिछले साल लोकसभा चुनाव में देश के दो बडे राज्यों- उत्तर प्रदेश और बिहार में चली भारतीय जनता पार्टी की आंधी ने दूसरे दलों में खलबली मचा दी थी।

अपना वजूद बचाने के लिए बिहार में एक-दूसरे के धुर विरोधी नीतीश कुमार और लालू यादव हाथ मिलाने के लिए मजबूर हुए। राज्य में हुए उपचुनाव में भाजपा विरोधी दल एक मंच पर आए तो उन्हें फायदा भी हुआ। यही सोचकर जनत दल (यू), राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, जनता दल (एस), इंडियन नेशनल लोकदल और समाजवादी जनता पार्टी ने एक पार्टी बनाने का फैसला इसलिए किया कि एक होकर वे भाजपा को मुंहतोड़ जवाब दे सकेंगे। बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान “जनता परिवार” की एकता का अहसास देश करेगा।

विलय में हो रही देरी पर चिंता जताते हुए बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यू) नेता नीतीश कुमार ने विलय के लिए अधिकृत मुलायम सिंह यादव से औपचारिकताओं को पूरा करने का आग्रह किया है। बिहार के चुनाव में नीतीश-लालू की पार्टी तन-मन से एक होकर मैदान में उतरी तो मुकाबला दिलचस्प हो जाएगा। विलय के लिए मुलायम की अध्यक्षता में बनी समिति की एक भी बैठक ना होना यह संदेह तो पैदा कर ही रहा है कि जब सहमति बन गई तो फिर अड़चन क्या है? पार्टी का नाम, चुनाव चिह्न और झंडा तय करने के लिए एक सप्ताह का समय पर्याप्त होता है।

एक दौर में देश कांग्रेस बनाम अन्य की राजनीतिक लड़ाई का गवाह हुआ करता था लेकिन आज का दौर भाजपा बनाम अन्य की लड़ाई में तब्दील हो चुका है। जनता परिवार के सदस्यों के लिए यह दिखाने का अच्छा अवसर है कि सिद्धांतों की लड़ाई में नाम और चुनाव चिह्न मायने नहीं रखता। बहुदलीय चुनाव प्रणाली से देश की राजनीति को फायदा हुआ है तो उसे नुकसान भी सहना पड़ा है। छह दलों ने जब एक पार्टी में विलय होने का सैद्धांतिक फैसला ले ही लिया तो फिर देर किस बात की। मुलायम सिंह को आगे आकर संशय के बादल दूर करने चाहिए।

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