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स्वायत्तता पर सीधा आघात

Published: Jun 25, 2015 10:33:00 pm

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाता
विवादों से जुड़ा है। अब मंत्रालय के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट विधेयक पर भी
तीखी प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं

Union Human Resource Development Ministry

Union Human Resource Development Ministry

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाता विवादों से जुड़ा है। अब मंत्रालय के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट विधेयक पर भी तीखी प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं। देश के शिक्षाविदों ने इस प्रस्तावित विधेयक को इन संस्थानों की स्वायत्तता पर खतरा बताया है। यदि यह विधेयक वर्तमान स्वरूप में पारित होता है तो क्या देश के इन प्रतिष्ठित संस्थानों को फैसलों के लिए सरकार पर निर्भर होना पड़ेगा? क्या मंत्रालय की कार्यशैली दोषपूर्ण है? क्या शिक्षा का भगवाकरण हो रहा है? क्यों शिक्षण संस्थानों में कार्यरत लोग दबाव में हैं? पढिए इन्हीं विषयों पर जानकारों की राय, स्पॉटलाइट में…


और भी हैं विवाद

गलत जानकारी
आरोप है कि चुनाव के दौरान हलफनामों में स्मृति ईरानी ने अपनी स्तातक की डिग्री के बारे में गलत जानकारियां दी हैं। अप्रेल 2004 के लोस चुनाव के दौरान उन्होंने 1996 में दिल्ली विवि के स्कूल ऑफ कॉरस्पोंडेस से बीए, 2011 में गुजरात से राज्यसभा चुनाव में इसी विवि से बी.कॉम पार्ट-वन व 2014 में अमेठी से लोकसभा चुनाव में पेश हलफनामे में उन्होंने इसी विवि के स्कूल ऑफ ओपन लर्निग से बी.कॉम पार्ट वन पूरा करने की बात कही। दिल्ली की अदालत ने गलत सूचना देने की रिपोर्ट पर संज्ञान लिया है और समन जारी करने से पहले साक्ष्य दर्ज करने के लिए 28 अगस्त की तारीख तय की है।

चार त्यागपत्र
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की कार्यशैली से आजिज आकर शिक्षा से संबद्ध संस्थाओं के प्रमुख पदों पर काम करने वालों ने इस्तीफे देने शुरू कर दिये हैं। आठ महीने में दिए गए चार त्यागपत्रों में ये प्रमुख नाम शामिल हंै- एनसीईआरटी की निदेशक प्रवीण सिंक्लेयर, दिल्ली आईआईटी के निदेशक रघुनाथ के. शेगांवकर, आईआईटी मुंबई में बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के चेयरमैन अनिल काकोड़कर और इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च के सदस्य सचिव गोपीनाथ रविंद्रन । शेगांवकर को छोड़ तीनों ने मंत्रालय पर संस्थानों के भगवाकरण के आरोप लगाए हैं।

तबादले-अवकाश
मंत्रालय के कामकाज के तौर तरीकों से परेशान होकर 6 संयुक्त सचिव और इसके ऊपर के अधिकारियों ने या तो स्थानांतरण करवा लिया है या फिर अवकाश पर चले गए हैं। संयुक्त सचिव राधा चौहान ने ईरानी से मतभेदों के चलते अपने पांच साल की प्रतिनियुक्ति पूरा किए बिना पिछले माह यूनीक आइडेटिफिकेशन अथॉरिटी का दामन थाम लिया। स्वच्छ भारत व सर्वशिक्षा अभियान की जिम्मेदारी संभाल रहे नागेश सिंह को उनके होम कैडर भेज दिया गया। अतिरिक्त सचिव व बिहार कैडर के अमरजीत सिन्हा को तकनीकी शिक्षा से हटाकर सांख्यिकी विभाग में लगा दिया गया। स्मृति के मंत्री बनने के एक माह बाद ही वीणा ईश, जगमोहन राजू व प्रवीण प्रकाश जैसे आईएएस अधिकारियों ने मंत्रालय से स्थानातंरण की स्वैच्छिक मांग की थी। ये तीनों अब मंत्रालय में नहीं है। यही नहीं स्कूली शिक्षा सचिव वृंदा स्वरूप और उच्च शिक्षा सचिव सत्यनारायण मोहंती का भी तबादला कर दिया गया।


गलत नहीं विधेयक में सुधार की मांग
प्रो. अरविन्द चतुर्वेदी इंटरनेशनल मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट
भाप्रस्तावित आईआईएम विधेयक के पक्ष में जो प्रमुख तर्क दिया जाता है, वह यह कि अब सभी आईआईएम (विधेयक में 13 का ही जिक्र है) एमबीए व पीएचडी की डिग्री दे सकेंगे, जो विश्व भर में दी जाने वाली डिग्रियों के बराबर ही होंगी। अभी तक अपने प्रशासकीय ढांचे के कारण आईआईएम डिग्री देने के लिए अधिकृत नहीं थे और वे स्नातकोत्तर डिप्लोमा, प्रमाणपत्र या अध्येता कार्यक्रम (फेलो प्रोग्राम) के लिए ही अधिकृत थे।

इसके चलते जो विदेश जाना चाहते थे, उन्हे भारतीय वि.वि. संघ से प्रमाण पत्र लेना पडता था, जो प्रमाणित करता था कि डिप्लोमा एमबीए डिग्री के समकक्ष है व अध्येता (फेलो) पीएचडी के समकक्ष है। नये आईआईएम विधेयक में एक नया प्रशासकीय ढांचा भी होगा जिसमे मानव संसाधन मंत्री के तहत एक परिष्द होगी, जिसमे सभी आईआईएम के निदेशक व अध्यक्ष शामिल होंगे। सभी निदेशकों का एक समान कार्यकाल (4 वर्ष) का होगा, अभी ऎसा नहीं है। पुराने छह आईआईएम निदेशक की नियुक्ति 3 वर्ष के लिए होती है जबकि नये आईआईएम में यह अवधि 5 वर्ष है। आईआईएम विधेयक का विरोध दो तबकों से किया जा रहा है। पहला वर्ग तो आईआईएम के कुछ निदेशकों और प्रोफेसरों का है, जो मानते हैं कि विधेयक आने के बाद उनकी स्वायत्तता पूरी तरह समाप्त हो जायेगी और वे मंत्रालय के अधीन हो जायेंगे। हालांकि मंत्रालय के अनेक स्पष्टीकरणों के बावजूद इस वर्ग में शंका बनी हुई है।

बराबरी का मौका मिले
देश भर में करीब 3800 संस्थान हैं जो प्रबन्धन की शिक्षा प्रदान करते है। इसमे से अधिकांश किसी न किसी विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हैं, या स्वयं ही डीम्ड विश्वविद्यालय की श्रेणी में आते हैं। इन्हे तो कोई खतरा विधेयक से नहीं है परंतु करीब 400 संस्थान ऎसे हैं जो किसी भी विश्वविद्यालय से सम्बद्ध नहीं है और इस कारण ये एमबीए की डिग्री नहीं दे पाते। ये वो संस्थान हैं जो पीजी डीएम स्नातकोत्तर डिप्लोमा) ही देते हैं।

प्रस्तावित विधेयक का सबसे मुखर विरोध यही संस्थान करते आ रहे हैं और इन्ही के विरोध के चलते अब तक विधेयक लटकता रहा था। ऎसे संस्थानों ने मिलकर कुछ संगठन भी बना लिए हैं और सामूहिक रूप से यह संगठन अपने विरोध के तर्क मीडिया में व अदालतों में भी रखते आ रहे हैं। इनका मानना है कि नये विधेयक के आने से आईआईएम तो डिग्री देने लग जाएंगे, तब इन संस्थानों के डिप्लोमा को कौन पूछेगा? ऎसी हालत में विधेयक के बाद इनके डिप्लोमा की नियोक्ताओं में और छात्रों में महत्व व मान्यता कम हो जाएगी। इन संस्थानों की मांग है, जो बहुत ही तर्कपूर्ण भी है कि इन्हें भी बराबरी का अवसर मिलना चाहिए। जो संस्थान 20—30 वषोंü से डिप्लोमा देते आए हैं, जिनकी मांग बनी हुई है, जो राष्ट्रीय परिषद से मान्यता प्राप्त हैं, उनके भविष्य पर क्यो धब्बा लगाने का प्रयास हो रहा है?

इन लगभग 400 डिप्लोमा देने वाले संस्थानों की मांग है कि इन्हें या तो विशेष कानून बनाकर डीम्ड विश्वविद्यालय के रूप में मान्यता दी जाए अथवा प्रस्तावित विधेयक में संशोधन करके इन संस्थानों भी डिग्री प्रदान करने का अधिकार दिया जाए। प्रबंधन शिक्षा को उत्कृष्टता प्रदान करने के नाम पर लाये जाने वाले विधेयक से यदि उसी प्रबंधन शिक्षा के एक अंग को हानि पहुंचती है तो विधेयक में बदलाव व सुधार लाने की मांग नाजायज तो नहीं है। अभी तो सुझाव का समय है देखते हैं ऊंट किस करवट बैठता है।


नियंत्रण में करना है सरकार की मंशा

टीवी मोहनदास पाई चेयरमैन, मनिपाल ग्लोबल एजुकेशन
यह बेहतरी की ओर ले जाना वाला विधेयक नहीं है। जो पुराने आईआईएम जैसे अहमदाबाद, मुंबई, बैंगलोर, कोलकाता के आईआईएम हैं, उनको सरकार से किसी आर्थिक सहायता की जरूरत नहीं है। अब तो लखनऊ आईआईएम भी आत्मनिर्भर हो गया है। उनके पास काफी स्वायत्तता भी है। ये संस्थाएं अच्छे से चल रही हैं। नए आईआईएम को जरूर सरकार की आर्थिक सहायता की जरूरत है। पर इन नए आईआईएम के नाम पर स्थापित आईआईएम के कामकाज में दखल देने को ठीक नहीं माना जा सकता है।

जबकि वर्तमान रूप में इस विधेयक के आने के बाद इसकी आशंका तो स्पष्ट दिखाई देती है। बल्कि सरकार को चाहिए कि वह नए आईआईएम को भी पैसा तो दे पर उनकी कामकाजी स्वायत्तता में दखल नहीं दे। जिस तरह से सरकार इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बैंगलोर को आर्थिक मदद तो देती है पर उसकी स्वायत्तता का सम्मान करते हुए। इसलिए यह संस्थान आज तक बेहतरीन परिणाम दे रहा है।

अभी तक का अनुभव तो यही रहा है कि जिन भी संस्थाओं में सरकार का दखल बढ़ा है, नियंत्रण बढ़ा है उनकी गुणवत्ता गिरी है। बल्कि सरकार को अगर नए आईआईएम से अच्छे परिणाम चाहिए तो इन संस्थाओं के साथ एमओयू हस्ताक्षर करना चाहिए कि सरकार इनके बोर्ड चयन और निदेशक चयन में दखल नहीं देगा। कौन सी संस्था डिग्री देती है और कौन सी संस्था डिप्लोमा देती है, यह मुद्दा नहीं है। मुद्दा यह है कि जो संस्था वह डिग्री या डिप्लोमा दे रही है, खुद उसकी कोई कद्र लोगों की नजर में, नियोक्ताओं की नजर में है या नहीं। अगर संस्था की बाजार में मान्यता है तो फिर उस संस्था से डिग्री मिले या डिप्लोमा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।


संवाद से निकलेगा समस्या का हल
प्रो. जनत शाह निदेशक, आईआईएम उदयपुर
सरकार का ये विधेयक कोई थोपा गया बिल नहीं है। कई आईआईएम ने इसके लिए पत्र लिखे थे। यह कोई आज का विषय नहीं है, वरन् कई सालों से इस पर चर्चा चल रही है। अब सरकार ने एक विधेयक बनाकर, इसको जनविमर्श के लिए रखा है। इस बिल के केंद्र में दो सबसे बड़े मुद्दे हैं। पहला तो यह कि जिस तरह से आईआईटी डिग्री देते हैं, उसी तरह से यह मांग आईआईएम की तरफ से उठती रही है उनके पास भी डिग्री देने का अधिकार हो। पर चूंकि आईआईएम संसद के किसी कानून द्वारा स्थापित संस्थाएं नहीं हैं, जिस तरह से आईआईटी हैं, इसलिए आईआईएम सिर्फ डिप्लोमा सर्टिफिकेट दे सकते हैं, डिग्री नहीं।

दूसरा मुद्दा है स्वायत्तता का। यह एक जटिल और तकनीकी का विषय भी है। कुछ लोगों को विधेयक की भाषा से भी समस्या हो सकती है। उन्हें लगता है कि पता नहीं सरकार का क्या इरादा है। विशेषकर अधिक स्वायत्तता से चल रहे पुराने आईआईएम को लगता है कि पता नहीं उन्हें किस-किस मुद्दे पर सरकार की अनुमति लेनी होगी। कुछ एनडीए के पिछले शासन में शिक्षा मंत्री मुरली मनोहर जोशी के उस आग्रह की यादें भी ताजा हो जाती हैं, जिसमें कहा गया था कि किसी आईआईएम को तीस हजार सालाना से अधिक फीस नहीं लेना चाहिए। फिर इस मामले में सभी आईआईएम को एक धरातल पर रखना ठीक नहीं होगा। हर आईआईएम की स्थिति समान नहीं है। सभी समान रूप से स्वायत्त भी नहीं हैं। सभी अलग-अलग एमओयू पर हैं। कुछ पुराने, स्थापित और वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर आईआईएम जैसे अहमदाबाद को यह लग सकता है कि उसके डिप्लोमा छात्रों को डिग्री की जरूरत नहीं है।

बस, संस्तुति वाले संस्थान हो जाएंगे आईआईएम
केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने भारतीय प्रबंध संस्थान (आईआईएम) विधेयक 2015 का जो मसौदा तैयार किया है उसे लेकर सबसे बड़ी चिन्ता की बात यह है कि इससे संस्थानों की स्वायत्तता पर सीधे तौर पर चोट पहुंचेगी। इस विधेयक के मामले में जनता से प्रतिक्रिया लेने की तिथि 31 जुलाई 2015 तक बढ़ाई जानी चाहिए।

विधेयक में प्रावधान किया गया है कि कोई भी नियम के आदेश जारी करने से पहले केन्द्र सरकार की अनुमति लेनी होगी। इससे तो सरकार को और अधिक शक्तियां मिल जाएंगी तथा अधिकारों का केन्द्रीकरण हो जाएगा जो अभी प्रत्येक आईआईएम बोर्ड के पास है। इससे संस्थानों की स्वायत्तता का उल्लंघन ही होगा। ऎसे में चाहे विभिन्न पाठ्यक्रमों में छात्रों के प्रवेश का मामला हो, पदों के निर्धारण, संकायों में वेतन का मामला हो, शुल्क निर्धारण, विभागों कागठन, निदेशकों की शक्तियां और उत्तरदायित्व के निर्धारण का मामला हो या बोर्ड के संविधान विशेषकर समितियों और अन्य प्राधिकारों के कर्तव्यों को सुनिश्चित करने का मामला हो, सभी मुद्दों पर निर्णय लेने की शक्तियां केन्द्र सरकार के पास निहित हो जाएंगी। आईआईएम बोर्ड केवल संस्तुति करने वाले संस्थान बनकर ही रह जाएंगे। कार्यपालक संस्थाओं के रूप में उनका अस्तित्व ही नहीं रहेगा। ऎसे में जरूरी है कि केन्द्र सरकार के अनुमति वाले प्रावधान को खत्म किया जाए।

प्रस्तावित विधेयक में केन्द्र सरकार द्वारा हर संस्थान में एक चेयरपर्सन (प्रधान कार्यपालक) की नियुक्ति की बात कही गई है। पर उसकी नियुक्ति किस प्रक्रिया के जरिए की जाएगी, यह उल्लेखित नहीं है। केवल इतना ही लिखा गया है कि इनका चयन केन्द्र सरकार बोर्ड द्वारा सुझाए गए तीन नामों के पैनल में से करेगी। ऎसे में होगा यह कि चेयरपर्सन के चयन की प्रक्रिया धीरे-धीरे केन्द्र सरकार के अधिकार में आ जाएगी। बेहतर तो यही होगा कि चेयरपर्सन के नियुक्ति की इस प्रक्रिया को खत्म किया जाए। प्रस्तावित विधेयक में शिक्षकों को केन्द्र सरकार द्वारा निर्धारित वेतनमान देने की बात कही गई है और संस्थानों को वेतन का प्रस्ताव देने से वंचित किया गया है।

जबकि संस्थानों को अपने स्टाफ को भुगतान के निर्धारण में लचीला रवैया रखने की अनुमति दी जाए। विधेयक के एक उपबंध में बोर्ड के गठन की बात कही गई है जबकि बोर्ड में ऎसे लोगों को शामिल करने के दिशा-निर्देश हों जिससे समग्रता में विविधता को प्रोत्साहन मिले। प्रावधान में कहा गया है कि बोर्ड में कम से कम एक महिला समेत चार प्रतिष्ठित व्यक्ति सदस्य होंगे जो उद्योग, सामाजिक क्षेत्र अथवा सिविल सोसाइटी के संगठन से होंगे और एक व्यक्ति अनुसूचित जाति, अनु-जनजाति का होगा जो शिक्षा या उद्योग क्षेत्र का प्रतिष्ठित व्यक्ति होगा। इसमें भी बदलाव किया जाना चाहिए।

प्रस्तावित विधेयक में बोर्ड मेंकिसी भी सदस्य का पद रिक्त होने पर उसे भरने, फंड को खर्च करने समेत अनेक मुद्दों का प्रावधान है। इन प्रावधानों को ऎसा बनाया जाना चाहिए जो समय की कसौटी और नियामकों पर खरा उतर सकें। होना तो यह चाहिए कि हर संस्थान अपनी नीतियों और क्रियाकलापों के संदर्भ में बोर्ड के निर्देशन में वार्षिक रिपोर्ट तैयार करे, जिसमें संस्थान द्वारा अपने उद्देश्यों के लिए पूरी की गई गतिविधियों का लेखा-जोखा, शोध कार्यो का विवरण आदि हो। यदि संस्थानों की स्वायत्तता को घटा दिया जाता है अथवा निर्णय लेने के उनके अधिकार का केन्द्रीकरण कर दिया जाता है तो यह संस्थानों के हित में ठीक नहीं होगा। सरकार आईआईएम से उत्कृष्टता की अपेक्षा रख रही है तो उन्हें काम करने की भी स्वायत्तता भी तो दे। (आईआईएम, अहमदाबाद की ओर से की गई आपत्तियों के आधार पर)

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