हमारे नेता जब-तब अपनी पार्टी के पुरखों के वैचारिक शवों को कंधों पर ढोती
नजर आती है। अरे भाई बहुत हुआ। चाचाजी, काकाजी को मरे आधी सदी बीत गई लेकिन
नेता मानते ही नहीं। बेचारे करें भी तो क्या करें, उनके पास खुद का कोई
व्यंग्य राही की कलम से इंसान सिर्फ दो अवस्था में रह सकता है, जीवित या मृत। मृतक की देह को नष्ट करने के प्रावधान हैं, जिन्हें हम अन्तिम संस्कार कहते हैं। कुछ लोग देह को जलाते हैं, कुछ दफनाते हैं, कुछ पानी में बहाते हैं, कुछ हवा में लटका देते हैं। मृत्यु के पश्चात् हम सोचते हैं कि वह मर गया है लेकिन कभी आपने सोचा कि मृतक भी शासन करते हैं। पता नहीं आपको लगता है या नहीं पर हमें तो अक्सर लगता है कि हम जीवितों के नहीं मृतकों के राज में रह रहे हैं। अजी शरीर की तो छोड़ो हमें तो प्रतीत होता है कि हमारी आत्मा तक पर मृतकों का कब्जा है। क्या नहीं है?
सैकड़ों साल पहले जो कह दिया गया हम आज तक आंख मूंद कर उन राहों पर चलते हैं। बेशक वे कभी राजमार्ग रहे होंगे पर हजारों साल से करोड़ों-अरबों लोगों के चलने से वे मार्ग टूट-फूट चुके हैं लेकिन हम कभी उनकी मरम्मत करने की भी नहीं सोचते। खण्ड-खण्ड हो चुके वे रास्ते जो कभी हमें मुक्ति का मार्ग दिखलाते थे अब पाखण्ड में परिवर्तित हो चले हैं। लेकिन हम हैं कि उन्हें दुरुस्त करने के बारे में विचार तक करना नहीं चाहते। कौन पंगे में पड़े। ‘बोलेंगे’ तो जमाना कहेगा कि ‘बोलता’ है। बस इन्हीं ‘बोलों’ से घबरा कर हम ‘मौन’ धारण कर लेते हैं।
‘आत्मा’ वाला मामला तो फिर भी ‘अलौकिक’ है लेकिन ‘लौकिक’ मामलों में भी हम ‘मृतकों’ के सहारे हैं। हमारे नेता जब-तब अपनी पार्टी के पुरखों के वैचारिक शवों को कंधों पर ढोती नजर आती है। अरे भाई बहुत हुआ। चाचाजी, काकाजी को मरे आधी सदी बीत गई लेकिन नेता मानते ही नहीं। बेचारे करें भी तो क्या करें, उनके पास खुद का कोई सामान ही नहीं। बहुत हो चुका। मृत विचारों, मृत व्यक्तियों के सहारे किये जाने वाला राज भी ‘मृत’ ही होता है। कसम से अब तो हमें ये बुद्धि से मृत शासक, उल्लू की दुम नजर आते हैं लेकिन हमारी किस्मत देखिए इन्हें ही ढोने को विवश हैं। हमारी यह विवशता ही हमें ‘जीवित मृत’ बना देती है।
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