सेमीफाइनल शुरू नहीं होने तक हर क्रिकेट प्रेमी गाल बजा रहा था- रौंद देंगे, मरोड़ देंगे, जीत लेंगे। अपना धवन जब मूंछों पर ताव लगा कर गेंद मारेगा तो सिडनी स्टेडियम के बाहर रोड पर जाकर गिरेगी। अपना विराट एक ओवर में चार छक्के मार कर “माई लव” की तरफ “फ्लाइंग किस” देगा तो कंगारूओं का हिया फट जाएगा। लेकिन हाय कुछ न हुआ। पिट गए। लगातार सात मैचों में लिए सत्तर विकेट कुछ काम न आए। आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज अंगद जैसा पांव जमा कर डटे रहे। हारे तो दक्षिण अफ्रीका वाले भी थे।
लेकिन अंतिम से एक गेंद पहले तक जूझते रहे। जबकि हमारे सूरमा तो कभी लड़ाई में दिखे ही नहीं। उनके बल्लेबाज हमारे गेंदबाजों की धुनाई करते रहे और रही-सही कसर उनके गेंदबाजों ने पूरी कर दी। जडेजा टुक-टुक करते रहे। बेचारा बिन्नी बेंच पर ही बैठा रहा और धोनी अपने चहेते को अवसर देते रहे। चलो जी। किस्सा निपटा। अब गई चार साल की। ना जी ना ऎसा कतई मत सोचिए। अभी तो अन्तरराष्ट्रीय तमाशा खत्म हुआ। अब भरी गर्मी में देसी तमाशा शुरू होने वाला है। फिर दो महीने तक खटते रहो टीवी के सामने।
सरकार ने अटल को भारत रत्न से नवाजा है। हमारी राय में तो “भारत रत्न” उस आदमी को मिलना चाहिए जिसने इस देश में क्रिकेट की शुरूआत की। कम से कम कुछ दिनों के लिए ही सही जनता जनार्दन का ध्यान महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों से तो दूर रहता है। आस्ट्रेलिया के संग सेमीफाइनल में भी अकेला धोनी ही जूझता रहा। सामने भी तो कोई धुरंधर होना चाहिए। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। चलिए कोई बात नहीं। भारत दो विश्वकप जीत चुका है। अभी तो हम सन् तिरासी की जीत को नहीं भूले हैं।
जिसे देखो वही कपिल की कप्तानी को याद करता है। इसके बाद वाले विश्वकप के दृश्य तो नई पीढ़ी को भी याद है जब युसुफ पठान ने सचिन को कंधे पर उठा कर विजयी जुलूस निकाला था।
अब समय काटने के लिए हम यह बात तो कर ही सकते हैं कि सेमीफाइनल में क्यों हारे? लेकिन इस हार का विलेन विराट कोहली को बनाया जाएगा। लोग कहेंगे कि इसने अपना ध्यान खेल से ज्यादा अपनी माशूका की फिल्म एनएस-10 की बॉक्स ऑफिस कमाई पर रखा। चलो जी अल्ला अल्ला खैर सल्ला काम निपटा। अब कोई नया तमाशा ढूंढो। इस देश में तमाशों की कमी नहीं प्यारे एक ढूंढो हजार मिलते हैं। क्रिकेट न सही फिल्म ही सही। पीकू आ रही है। पूरी फिल्म एक सनकी बूढ़े की “कब्ज कथा” है।
राही