scriptबना-बनाया यह विश्वास खो न जाए? | Do not lose this belief made? | Patrika News
ओपिनियन

बना-बनाया यह विश्वास खो न जाए?

प्राय: यह देखने में आ रहा है कि जनहित में दिए गए अदालत के फैसलों के
क्रियान्वयन में सरकारी विभाग इतनी देरी कर देते हैं कि उस फैसले का महत्व
खोने लगता है। जनहित में जारी उच्च न्यायालय के जिन आदेशों की अनुपालना

Jul 23, 2017 / 10:27 pm

शंकर शर्मा

High Court

High Court

शिवकुमार शर्मा वरिष्ठ टिप्पणीकार
प्राय: यह देखने में आ रहा है कि जनहित में दिए गए अदालत के फैसलों के क्रियान्वयन में सरकारी विभाग इतनी देरी कर देते हैं कि उस फैसले का महत्व खोने लगता है। जनहित में जारी उच्च न्यायालय के जिन आदेशों की अनुपालना हुई है, वे अपवाद स्वरूप ही होंगे। डर तो यह है कि जनता को जितना विश्वास कार्यपालिका पर होना चाहिए, कहीं …

राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायाधीश कल्पेश सत्येंद्र झवेरी और न्यायाधीश बनवारी लाल शर्मा ने 31 मार्च 2017 को अनिल शेट्टी के एक प्रकरण में जयपुर विकास प्राधिकरण को अवमानना नोटिस जारी किए। अवमानना नोटिस का यह कोई पहला मामला नहीं रहा है। कई बार इस तरह के मामले सामने आते हैं जबकि इस तरह के नोटिस देने के लिए न्यायालयों को विवश होना पड़ता है।

उच्च न्यायालय द्वारा समय-समय पर जो निर्देश जारी किए जाते हैं उनकी पालना करना सभी का कर्तव्य है। लेकिन, प्राय: यह देखने में आता रहा है कि संबंधित सरकारी विभाग बिना अवमानना याचिका के आदेश की पालना करने में गुरेज करता है। उच्च न्यायालय द्वारा जनहित में जो आदेश दिए जाते हैं उनमें से अपवाद स्वरूप ही आदेश होंगे जिनकी पालना हुई है। जब तक कि आदेश की अवमानना का नोटिस जारी नहीं होता, तब तक उस आदेश को क्रियान्वित नहीं किया जाता है।

इसका एक बड़ा परिणाम तो यह होता है कि उच्च न्यायालय में अवमानना याचिकाओं और मुकदमों की भरमार हो जाती है। जो समय अन्य मामलों की सुनवाई के लिए इस्तेमाल हो सकता था, वह इन याचिकाओं के निपटारे में जाता है। न्याय के लिहाज से इस स्थिति को कभी भी अच्छा नहीं कहा जा सकता।

एक अन्य उदाहरण पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का है। उन्होंने, उच्च न्यायालय की मुख्य पीठ जोधपुर में एक जनहित याचिका लगाई थी जिसमें उन्होंने राजस्थान के विभिन्न शहरों में व्यापक पैमाने पर मास्टर प्लान के उल्लंघन के आरोप लगाए थे। इस याचिका पर उच्च न्यायालय ने जनवरी 2017 में आवश्यक निर्देश पारित किए हैं लेकिन उनकी पालना भी पूजा भाव से नहीं की गई है।

राज्य सरकार ने इन निर्देशों की पालना करने की बजाय आदेश को बड़ी अदालत में चुनौती देना आवश्यक समझा। मुझे लगता है कि किसी भी मामले में जनहित में पारित किए गए अदालती आदेशों को भी चुनौती देना, किसी भी स्तर पर उत्साहवर्धक कदम नहीं कहा जा सकता। यह एक ऐसी प्रवृत्ति या कहें कि एक ऐसा कदम है, जो कि जनता के हितों के प्रतिकूल है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जनहित याचिकाएं प्रस्तुत करके व्यक्ति अपने निजी हित नहीं साधता है बल्कि वह राज्य सरकार को उसके कर्तव्यों का स्मरण कराता है।

परेशानी यह है कि कर्तव्यों का स्मरण कराने पर भी सरकार इसे शायद अपमानजनक मान लेती है। यहां पर मुझे लगता है कि जयपुर विकास प्राधिकरण अधिनियम की धारा 72 की उपधारा 14 को उद्धृत करना आवश्यक है। इसके अनुसार विकास प्राधिकरण का कोई भी अधिकारी जिस पर अतिक्रमण को रोकने या इससे बचाव की जिम्मेदारी है, यदि अनजाने में या जानबूझकर अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाता है तो उसके लिए जेल और साथ में जुर्माना भरने की सजा का प्रावधान है।

आज जयपुर विकास प्राधिकरण के अधिकारियों के ध्यान में खुलेआम अतिक्रमण हो रहे हैं लेकिन इस कानूनी प्रावधान का अभी तक उपयोग नहीं हो सका है। दोषी अधिकारियों को दंडित किए जाने के अब तक प्रयास नहीं हुए हैं। अपेक्षा की जानी चाहिए कि जयपुर विकास प्राधिकरण के अधिकारी जो अतिक्रमण को प्रोत्साहित कर रहे हैं, जिनके ध्यान में अतिक्रण का अपराध हो रहा है, उन्हें दंडित किए जाने के संबंध में कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

हम जनहित में लिये जाने वाले अदालती फैसलों की बात करें तो राजस्थान उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश अनिल देव सिंह की खंडपीठ ने स्वप्रेरणा से संज्ञान लेकर 20 अक्टूबर 2004 को जनहित में कई आवश्यक निर्देश दिए थे लेकिन दुर्भाग्य से उनकी भी अक्षरश: पालना नहीं हुई। लेकिन, अब उच्च न्यायालय से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार को निर्देश देकर उन सभी निर्णयों की सूची बनाने को कहेगा जो कि जनहित में समय-समय पर पारित किए गए और संबंधित विभागों द्वारा जिनकी अनुपालना अभी तक नहीं की गई।

ऐसे सभी आदेशों की अवमाननाओं के संबंध में आवश्यक कार्रवाई किए जाने के लिए सक्रिय प्रयास होने चाहिए। न्यायालय के आदेशों की लंबे समय तक अनुपालना नहीं करना और टालामटोली करना बेहद गंभीर है। कभी-कभी मामला राज्य का ही नहीं राष्ट्रहितों से भी जुड़ा होता है। ऐसे भी अनेक प्रकरण सामने आते रहे हैं, जिनके संबंध में आदेश पारित हो गए और राष्ट्रहित में भी जिनकी अनुपालना नहीं हो सकी है।

न्याय मिलने में प्रक्रियागत देरी अपने आप में गंभीर है जिसके बारे में कहा जाता है, जस्टिस डिलेड, जस्टिस डिनाइड यानी देरी से मिले न्याय का कोई अर्थ नहीं होता। अब परेशानी यह होने लगी है कि जनहित से जुड़े मामलोंं पर लंबी प्रक्रिया के बाद अदालत द्वारा समय पर फैसला हो भी जाता है तो उन फैसलों पर समय रहते अमल नहीं हो पाता। यह भी न्याय न हो पाने के समान ही हैं। कई मामले इसी तरह के होने से अब जनता का धैर्य टूटने लगा है। अधिक समय निकल गया तो जनता को कार्यपालिका पर जितना विश्वास करना चाहिए, उतना विश्वास शायद नहीं रह पाएगा।

Home / Prime / Opinion / बना-बनाया यह विश्वास खो न जाए?

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो