एक मंत्री या मुख्यमंत्री का दूसरे मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री की
डिग्री को लेकर सवाल उठाना अच्छी बात नहीं है। इससे कुछ हासिल होने वाला
नहीं। राजनेताओं को आपस में लड़ने की बजाए बेरोजगारी,महंगाई-भुखमरी से
लड़ना चाहिए
हमारे नेता जनता की भावनाओं को आखिर समझना क्यों नहीं चाहते? क्यों ऊल-जुलूल के मुद्दे उछालकर खुद अपनी और राजनीति की छीछालेदर करने पर उतारू हैं। खबर है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की शैक्षणिक योग्यता के बारे में जानकारियां जुटा रहे हैं।
केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की डिग्री के चर्चे भी खूब गूंज चुके हैं। आए दिन ऐसी खबरें आती हैं जिनका न तो विकास की राजनीति से कोई लेना-देना होता है और न ही ऐसी खबरों से जनता का ज्ञान ही बढ़ता है। नेताओं को यह समझ लेना चाहिए कि सवा सौ करोड़ जनता मोदी या स्मृति की डिग्री से नहीं उनके काम से मतलब रखती है। देश के प्रधानमंत्री की शैक्षणिक योग्यता लोगों को पता हो, यह अच्छी बात है। लेकिन राजनीति में सिर्फ अधिक पढ़ा-लिखा होना कोई मायने नहीं रखता। नरेन्द्र मोदी अथवा केजरीवाल की योग्यता उनकी डिग्रियों से नहीं बल्कि उनकी उपलब्धियों से आंकी जाएगी। देश की जनता हर पांच साल में विधायक से लेकर सांसद और मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री की किस्मत का फैसला करती है। आजादी के 69 सालों में लोकतंत्र सुदृढ़ हुआ है।
आम जनता भी राजनीति की तरफ रुझान बढ़ा रही है। एक जमाने में होने वाला 50-55 फीसदी मतदान अब 80 फीसदी पार करने लगा है। सीधी और समझने वाली बात ये है कि जनता वोट देने को अब फालतू काम नहीं मानती। उसे अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों की चिंता है। यही चिंता नेता भी दिखाएं तो देश का कल्याण हो सकता है।
एक मंत्री या मुख्यमंत्री का दूसरे मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री की डिग्री को लेकर सवाल उठाना अच्छी बात नहीं है। इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं। राजनेताओं को आपस में लड़ने की बजाए बेरोजगारी से लड़ना चाहिए। महंगाई-भुखमरी से लड़ना चाहिए। आतंकवाद-नक्सलवाद से लड़ना चाहिए। आरोप-प्रत्यारोपों की छिछली राजनीति के दलदल से बाहर निकलकर सकारात्मक राजनीति पर ध्यान देना चाहिए।
बीते कुछ सालों में राजनेता एक-दूसरे को विरोधी समझने की बजाए शत्रु समझने लगे हैं। संसद और विधानसभाएं हंगामे और बॉयकाट के केन्द्रों में तब्दील हो चुके हैं। राजनीति में सहिष्णुता देखने को नहीं मिलती। आने वाली पीढि़यां जब आज की राजनीति का अध्ययन करेंगी तो उन्हें शर्मसार होना पड़ेगा। अभी बाजी हाथ से पूरी तरह निकली नहीं है। ईमानदारी से कोशिश की जाए तो तस्वीर बदली जा सकती है। राजनीति के साथ राजनेताओं की छवि भी सुधारी जा सकती है।
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