script‘मैं’ और ‘मेरा’ | Family and social values in our life | Patrika News

‘मैं’ और ‘मेरा’

Published: Dec 07, 2016 10:59:00 am

मंगलवार प्रात: पत्रिका में मानवीय तथा आध्यात्मिक दृष्टि से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण समाचार पढ़ा

 BSF Foundation Day: military purse of the family

BSF Foundation Day: military purse of the family and in heart whole of India

– गुलाब कोठारी

मंगलवार प्रात: पत्रिका में मानवीय तथा आध्यात्मिक दृष्टि से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण समाचार पढ़ा। अनायास ही मेरा सिर न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री ‘जॉन की’ के आगे झुक गया। उन्होंने नेशनल पार्टी के मुखिया के रूप में दस वर्ष पूरे किए और इसी अवसर पर उन्होंने यह स्वीकारोक्ति भी की, कि एक दशक से ज्यादा समय से मेरी पत्नी और बच्चे अकेले हैं। ‘मेरे घर लौटने का यह सबसे सही समय है।’ उनका कहना था कि वे राजनीतिक जिम्मेदारियों से मुक्त होकर परिवार के साथ समय गुजारना चाहते हैं। यह घटना आज के युग में असंभव लगती है। क्योंकि जीवन के अब वे लक्ष्य नहीं रहे जहां तक पहुंचने के लिए कभी व्यक्ति 100-100 साल तपता था।

आज केवल शरीर के नाम से व्यक्ति उछलता है, घमण्ड करता है। उसे लगता है कि, उसके जैसा दूसरा कोई नहीं। जैसे-जैसे बड़ा होता है, उम्र में, धन में, पद में, शोहरत में, उसकी पहली मार उसके परिवार को ही पड़ती है जो कि समय के साथ उसकी नजर में छोटे होते चले जाते हैं। हम यदि गुलाब के फूल को देखें तो क्या उसकी इज्जत पंखुडिय़ों से नहीं है? क्या बिना कांटों के वह सुरक्षित रह सकता है? यदि उसकी पंखुडिय़ां गिर जाएं तो उसकी सुगंध भी चली जाएगी। इन सबके बीच रहते हुए ही व्यक्ति अपने जीवन की वास्तविकता को समझ सकता है। ‘मेरे’ के साथ रहकर ‘मैं’ विकसित नहीं हो सकता। ‘मैं’ केवल ‘मैं’ के साथ ही अपनी आत्मा को समझ सकता है। शास्त्र कहते हैं आत्मा से आत्मा को देखो।

व्यक्ति एक बीज होता है। पेड़ उसका परिवार होता है। फल उसकी कमाई होते हैं। जब बीज स्वयं की चिंता में लग जाएगा, क्या वह कभी जमीन में दब जाने को तैयार होगा? क्या वह कभी पेड़ बन पाएगा? उसकी स्थिति उस मां की तरह होगी जिसने बच्चा तो पैदा कर दिया किन्तु मां बनने का अहसास नहीं कर पाई। इसके लिए तो उसे मौत के मुंह से गुजरना पड़ता। केवल पेट चीरकर संतान दे देना मां बन जाना नहीं है। हम कहते हैं- मातृ देवो भव:, पितृ देवो भव:। क्यों कहते हैं? क्योंकि मैं कहता हूं- अहम् ब्रह्मास्मि। मैं स्वयं अपनी पत्नी के पेट में प्रवेश करता हूं और संतान बनकर बाहर निकलता हूं।

सोचिए क्या पत्नी अद्भुत शक्ति नहीं है? संतान भी मैं ही हूं। पत्नी मेरी शक्ति है जो मेरे इशारे पर निर्माण कार्य करती है। वह मेरा ही निर्माण करती आई है। हमने तो पुरुष को अहंकार का पुतला ही देखा है। शायद उसने पत्नी को शक्ति के रूप में देखा ही नहीं बल्कि वह तो उसे अपनी सम्पदा मानता है। अर्द्धनारीश्वर की भूमिका को समझता ही नहीं। इस देश की हर स्त्री अपने पति के निर्माण के लिए जीती है। इसी संकल्प के कारण वह सब कुछ छोड़कर एकसूत्रीय कार्यक्रम के साथ पति के साथ रहने आती है। पति के अहंकार को तोड़ती है। अपने शक्ति रूप के कारण पति की एक मूर्ति का निर्माण करती है। उसके सारे दोष एवं अनावश्यक वातावरण को हटाती है। उसके कर्ता भाव को आस्था से जोड़ती है। इसके बिना कोई भी पति सहजता से पशु बन जाएगा।

ये कुदरत का नियम है कि पुरुष कुछ नहीं करता। क्रिया सारी प्रकृति की होती है। आपको कोई भी पुरुष स्त्री के व्यक्तित्व का निर्माण करता नहीं मिलेगा क्योंकि उसमें कर्म भाव नहीं है। ये भी इकतरफा नियम है। केवल पत्नी ही पुरुष का निर्माण कर सकती है। इसीलिए उसे शक्ति कहा गया है। पत्नी के अलावा हर दूसरी स्त्री उसे रसातल में ले जाएगी। पत्नी उसे पुरुषार्थ से जोड़कर, मोक्ष के अंतिम पड़ाव तक का मार्ग सुगम कर देगी। यहां तक कि वानप्रस्थ के शुरुआत में भी पति के मन में एक अद्भुत विरक्ति भाव पैदा करती है ताकि उसका सारा प्रेम अध्यात्म के भीतर की ओर मुड़ जाए। वह स्वयं को उसके भीतर ढूंढ़ सके। यही तो ‘जॉन की’ करना चाहते हैं। पाठकों को याद होगा कि जब अमरीकी राष्ट्रपति का चुनाव अभियान शुरू हुआ तब राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि अगर मैंने अब भी चुनाव लड़ा तो मिशेल मुझे तलाक दे देगी। कनाडा के सीनेटर बॉब डे और पीयरे कार्ल के उदाहरण भी हमारे सामने हैं जिन्होंने परिवार के लिए राजनीति छोड़ दी। टेनिस खिलाड़ी एंडी मरे ने भी आस्टे्रलियाई ओपन शुरू होने से पहले ही कह दिया था कि, भले मुझे फाइनल छोडऩा पड़े लेकिन वह स्वयं को पत्नी के पेट से अवतरित होते देखना चाहेगा।

इतनी सी बात तो सब समझते हैं कि, जब तक पेड़ पर आम नहीं लग जाते, गुठली के प्राण पेड़ में बहते रहते हैं। उसी से आम की नस्ल बनती है। उसमें रूप, रस, गंध पैदा होते हैं। यदि गुठली आधे रास्ते में ही काम करना बंद कर दे तब आगे आम नहीं लगेंगे। भारतीय मनीषा मानती है कि, व्यक्ति अपने पीछे और आगे की सात-सात पीढिय़ों से बंधा रहता है। आम नहीं लगा तो उसकी मुक्ति संभव नहीं है। इस दृष्टि से भी ‘जॉन की’ का यह निर्णय ऋषि कोटि का है। जो धन, पद की महत्वाकांक्षा को ठोकर मारकर आगे बढ़ता है। वही ऐश्वर्य का भागीदार होता है। सिद्धियां उसी का वरण करती हैं। यह तभी संभव है जब आदमी यह समझ जाए कि ‘मैं’ शरीर नहीं हूं। इसके भीतर रहने वाला हूं। तभी वह परिजनों के बीच में रहकर सारी कामनाओं से मुक्त रह सकता है, तीनों गुणों से मुक्त रह सकता है। यही प्रज्ञा पुरुष के लक्षण हैं। ‘जॉन की’ को शत-शत नमन जिसने ऊंचाई की अवधारणाओं के शिखर पर पहुंच कर उसे ठोकर मार दी।

विश्व के दिग्गज नेताओं, राजपरिवारों एवं अधिनायकवाद के रसूखदारों, सैन्य शासकों को यदि विश्व में शांति की स्थापना करनी है, केवल अपना पेट नहीं भरना तो अपने भीतर बैठकर जीने का अभ्यास करना होगा। आज की शिक्षा में ये घुन डिग्री के साथ ही लग जाता है। आदमी स्वयं को भूलकर शारीरिक सुख के लिए ही जीने लग जाता है। उसके लिए करियर की अवधारणा इसके आगे है ही नहीं। बड़ा पैकेज, भौतिक सुख में ही वह सौ साल पूरे कर जाता है। उसकी जीवन यात्रा शुरू ही नहीं होती। जहां पैदा होता है, वहीं मर जाता है। उसके जीवन का उद्देश्य शरीर, मन, बुद्धि का उपयोग करते हुए आत्मा को मुक्त करना है। न उसके सामने लक्ष्य होता है, न यात्रा का पथ, न काल की कोई गणना। इसके बिना सम्पूर्ण 100 साल व्यर्थ ही जीता है। इस जीवन का उसके आत्मकल्याण से कोई सम्बंध नहीं होता। उसका अहंकार उसे अन्यत्र देखने ही नहीं देता। उस स्थिति में भी उसके परिजन, पत्नी-पुत्र, माता-पिता, बंधु-बांधव जो सभी उसके साथ अपने कर्मों का फल भोगने के लिए पैदा हुए हैं, वे व्यक्ति के जीवन में कभी पूरक हो ही नहीं पाएंगे। वे ही कड़वे-मीठे बोल हथियार की तरह काम में लेते हुए, व्यक्ति के प्रज्ञा चक्षु खोलते हैं। झूठ के आवरणों को ध्वस्त करते हैं। हर व्यक्ति एक दर्पण का काम करता है। इसीलिए मानव एक सामाजिक प्राणी है। वन्य जीवों की तरह स्वच्छंद विचरण नहीं करता। ‘जॉन की’ के 10 साल स्वच्छंद विचरण के थे। जब-जब उन्हें ठोकर लगी, उन्हें परिवार याद आया, धन्य हैं वे। लोग कहते हैं दिया तले अंधेरा किन्तु सूरज तले उजाला।

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