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किसान विरोधी छवि से चिंता

Published: Mar 24, 2015 12:29:00 am

सरकार ने बीमा और खनन आदि अधिनियम तो राज्यसभा से पारित करा लिये पर भूमि अधिग्रहण पर राज्यसभा में गतिरोध

सरकार ने बीमा और खनन आदि अधिनियम तो राज्यसभा से पारित करा लिये पर भूमि अधिग्रहण पर राज्यसभा में गतिरोध घटने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। इस मुद्दे ने पूरे प्रतिपक्ष को एकजुट होने का मौका दे दिया है। ऎसे में यह संभावना बढ़ती जा रही है कि सरकार इस मुद्दे पर कुछ झुक सकती है। यद्यपि राज्यसभा में भूमि अधिग्रहण मुद्दे पर विधेयक पारित न होने पर सरकार दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुला सकती है। पर यह सरकार के लिए इतना आसान नहीं होगा। अपने वर्तमान रूप में भूमि अधिग्रहण विधेयक पारित होना क्यों होगा मुश्किल, इसी पर पढिए आज का स्पॉटलाइट...

परंजॉय गुहा ठाकुरता
मोदी सरकार के सामने अब यह स्पष्ट हो गया है कि जिस तरीके से उसने भूमि अधिग्रहण संबंधी कानून में संशोधन किया था वह राजनीतिक रूप से कतई व्यवहारिक नहीं था। देर से सही, सरकार ने इसे इज्जत का सवाल बनाने के बजाय इस पर समझौता करने का मन बना लिया है। क्या इसे इस बात का संकेत माना जाए कि सरकार कमजोर और बिखरे हुए विपक्ष को नजर अंदाज करते हुए कॉरपोरेट के अनुकूल मार्ग पर चलने के बजाय जनभावना को भांपने में अधिक यथार्थवादी होने जा रही है।

संभवत: अभी ऎसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना कुछ जल्दबाजी ही कहा जाएगा। सरकार की इस सावधानी को सोनिया गांधी के ताजा आक्रामक रवैये से शायद ही कुछ लेना देना हो जबकि राहुल गांधी, सोनिया के पुत्र और अधिकारिक रूप से कांग्रेस के उपाध्यक्ष, अपनी अनुपस्थिति से ही चर्चाओं में बने हुए हैं।

जबकि प्रतिपक्ष को एकजुट होने के लिए एक सामान्य आधार मिल गया है -जिससे परस्पर घोर प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल जैसे तृणमूल कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी तथा समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी एक साथ आ गई हैं -भारतीय जनता पार्टी को यह अहसास हो गया है कि अब अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर धौंस जमाना आसान नहीं होगा, जबकि पार्टी के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है।


भाजपा और उसकी अगुवाई वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन जिसका पांच वष्ाीüय कार्यकाल मई 2019 में समाप्त हो रहा है, अगर आगामी राज्य विधानसभाओं के चुनाव जीत भी जाती है तब भी संभावना यही है कि इस अवधि में वह राज्यसभा में अल्पसंख्यक ही बनी रहेगी। यह वह अहसास है जिसने भाजपा को अधिक समझौतापरक रवैया अपनाने के लिए तैयार किया है।

सरकार के लिए माइन्स और मिनरल्स (डिवेलपमेट एंड रेगुलेशन) अधिनियम में संशोधन तथा बीमा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा 26 से बढ़ाकर 49 प्रतिशत करना अपेक्षाकृत रूप से आसान रहा है। पर भूमि अधिग्रहण संबंधी कानून में संशोधन, जिसे भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम, 2013 कहा जाता है, एक अत्यंत दुष्कर कार्य हो गया है।

जीएसटी पर भी चुनौती
अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को नए कानून की आवश्यकता अथवा इसमें संशोधन की जरूरत के बारे में समझाने की स्पष्ट रणनीति के बिना, सरकार मार्च 2016 तक उस गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) को लागू नहीं कर पाएगी जो कि सभी पार्टियों को प्रभावित करेगा, जिसका लक्ष्य है देश के बिखरे हुए बाजार को एकीकृत बनाना और जो कि संभवत: सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार है जिसे अभी भी लागू किया जाना है।

प्रस्तावति जीएसटी को लागू करने के लिए उसका सभी राज्य सरकारों द्वारा स्वीकृत किया जाना जरूरी होगा। कई राज्य अपने राजस्व में भारी कमी से आशंकित हैं, विशेषकर तब जबकि पेट्रोलियम पदार्थो को भी नए टैक्स ढांचे में शामिल किया जाता है। केंद्र सरकार को राज्यों को यह समझाना होगा कि यह उनके व्यापक हित में है कि वे उन भ्रष्ट निहित स्वार्थो को कमजोर होने दें जो कि जीएसटी का विरोध कर रहे हैं। यह कहना तो आसान है, पर करना कठिन है।

वित्त मंत्री अरूण जेटली ने इस बात को खूब तवज्जो दी है कि 14 वें वित्तीय आयोग की अनुशंसा के अनुसार अब उनकी सरकार राज्यों को अधिक फंड देगी। यद्यपि जिस संरचानत्मक प्रक्रिया से इस रूपांतरण को अंजाम दिया गया है, उसमें कुछ राज्य, विशेषकर त्रिपुरा को अल्पावधि में तो काफी नुकसान होना तय है।

इसके साथ ही केंद्र सरकार ने कई कल्याणकारी योजनाओं जिनमें स्वास्थ्य और शिक्षा की योजनाएं भी शामिल हैं, को क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी राज्यों पर अधिक डाल दी है तथा इस तरह की कल्याणकारी योजनाओं में केंद्रीय आवंटन कम कर दिया है। संभव है कि इसके परिणाम बेहतर नहीं मिलें क्योंकि कई राज्य सरकारों के पास इन योजनाओं के क्रियान्वयन की उचित सामथ्र्य नहीं है, जबकि नई दिल्ली द्वारा कम किए गये बजट से उन्हें नुकसान होगा।

पहले इसे बताते थे गलत
कांग्रेस के नेतृत्व वाले प्रगतिशील संयुक्त मोर्चा गठबंधन सरकार की भाजपा इसीलिए आलोचना करती रही है कि वे गोपनीय रूप से सुधारों को अंजाम दे रहे हैं। पर 30 दिसंबर को भूमि संबंधी अध्यादेश जारी करके भाजपा सरकार ने भी ठीक यही काम किया। सरकार ने जोर-शोर से यह दावा किया कि इस अध्यादेश की जरूरत इसलिए थी जिससे कि चालू कैलेडर वर्ष समाप्त होने के पहले राजमार्ग निर्माण, मेट्रो रेल, परमाणु ऊर्जा परियोजनाएं, रक्षा प्रतिष्ठान, विद्युत परियोजनाओं समेत 13 अधिनियमों में संशोधनों को भी इसी भूमि अधिग्रहण अधिनियम में ही समाहित किया जा सके। पर अध्यादेश ने इससे भी कहीं ज्यादा किया है – इसने 2013 के अधिनियम के उन प्रावधानों को कमजोर कर दिया है जो कि भूमि अधिग्रहण से पूर्व भूस्वामी की सहमति तथा स्वतंत्र सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन को जरूरी बनाते थे।

संघ भी है विरोध में
संघ परिवार के संगठनों के साथ ही अन्य संगठनों के विरोध के उत्तर में वित्त मंत्री अरूण जेटली को “हमला” ही रक्षा का सबसे अच्छा तरीका लगा। उन्होंने दावा किया कि भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन का विरोध करने वाले लोग औद्योगिक विकास के खिलाफ हैं। उन्होंने उन मुख्यमंत्रियों के पत्रों की नुमाइश की जो 2013 के कानून से नाखुश थे। साथ ही जो पूर्व उद्योग मंत्री आनंद शर्मा आदि के गुप्त पत्र भी सार्वजनिक किए। इन पत्रों में पूर्व मंत्रियों ने कानून के कुछ प्रावधानों पर आपत्ति की थी। अन्ना हजारे व राजगोपाल की तो बात ही क्या की जाए, जेटली तो राजग के ही शिवसेना एवं शिरोमणि अकाली दल जैसे सहयोगियों के विरोध से भी अप्रभावित लगे।

हर रणनीति हुई विफल
इस रणनीति के विफल होने के बाद मोदी व जेटली के समर्थक यह दावा करने लगे कि सरकार इस बिल को पारित करवाने के लिए संसद का संयुक्त सत्र बुला लेगी। कुछ समय बाद उन्हें अहसास हुआ कि यह व्यावहारिक उपाय नहीं हो सकता। भारत की द्विसदनीय संसदीय प्रणाली में, किसी एक सदन के द्वारा बिल अस्वीकार किए जाने के छह महीने बाद ही राष्ट्रपति को संसद का संयुक्त सत्र बुलाने के लिए कहा जा सकता है।

अब तक तीन बार ही बुलाया गया है संयुक्त अधिवेशन
भारतीय संसदीय इतिहास में अब तक ऎसे केवल तीन मौके आए हैं जब संयुक्त बैठक बुलाकर किन्हीं कानूनों में संशोधन के लिए विधेयक पारित किए गए। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के समय दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के समय बैंकिंग सेवा आयोग निरसन विधेयक 1978 और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान आतंकवाद रोकथाम अधिनियम 2002 पारित किया गया था।

लोकसभा ने 10 मार्च को संशोधन विधेयक पारित करते समय इसमें नौ संशोधन किए हैं। ये नए संशोधन उस आलोचना से बचने के लिए ही किए गए हैं कि यह बिल किसान विरोधी है। अब जब परिस्थितियों की बेहतर समझ विकसित हो गई है तो मोदी और जेटली के पास दो विकल्प हैं। पहला, वे विधेयक को एक संसदीय समिति को सौंप दें, जो समयबद्ध तरीके अपनी सिफारिशें दे। या फिर प्रस्तावित संशोधन में और ढिलाई बरतते हुए परिवर्तन करें। बहरहाल, वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री द्वारा प्रदर्शित अहंकार पर राजनीतिक मजबूरियां हावी होती दिख रही हैं।
वरिष्ठ पत्रकार


नरेन्द्र मोदी तो नहीं झुकने वाले
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात कार्यक्रम में जिस तरह से भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर विरोध करने वालों को आड़े हाथों लिया है, उससे साबित हो गया है कि इस अध्यादेश को कानून में परिवर्तित करना उनके लिए क्या मायने रखता है। वे इस मुद्दे पर किसी भी स्थिति में समझौते के लिए झुकते नजर नहीं आ रहे।

यह है प्रतिष्ठा का प्रश्न
प्रधानमंत्री मोदी ने इस मुद्दे को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। वे हर हाल में इस अध्यादेश को कानून बनाने पर अड़े हुए लग रहे हैं। इसके लिए उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं को सीधे किसानों के बीच जाकर इस मुद्दे को समझाने की बात कही है। नेताओं से कहा गया है कि वे किसानों को समझाएं कि किस तरह विरोधी लोग किसानों को झोपडियों में ही रहने देने की कोशिश में लगे हैं। वे नहीं चाहते कि उनके बच्चों को काम मिले। इस रवैये से साफ लग रहा है कि वे इस मुद्दे पर पीछे हटने वाले नहीं है। वे यह साबित करना चाहते हैं कि वे जो कहते हैं, उसे करके भी दिखाते हैं। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश यदि एक बार कानून बन गया तो देश और दुनिया में उनकी साख बन जाएगी कि कितनी भी खिलाफत हो लेकिन वे अपनी कही हुई बात से पीछे नहीं हटते। वे जो कहते हैं वो करते हैं।

आसान नहीं है मामला
जिस तरह से बीमा, खान और कोयला संबंधी अध्यादेशों को लेकर मोदी सरकार ने विपक्ष को अलग-थलग किया है। कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों को बांट लिया, वैसी उम्मीद इस भूमि अधिग्रहण मामले को लेकर नहीं लग रही है। इसका कारण यह है कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति भवन तक मार्च किया और अन्य सहयोगी दलों के साथ इस मामले की अगुवाई करते हुए राष्ट्रपति से हस्तक्षेप की मांग की।

इसके बाद इस मामले पर कांग्रेस का पीछे हट जाना काफी कठिन लगता है। यदि ऎसा हुआ तो अन्य दल उस पर इस मामले में बिक जाने का आरोप लगाएंगे। अब भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का मामला भावनात्मक मामला बन गया है। किसानों के हित-अहित इससे जुड़े हुए हैं। कुल मिलाकर इस मुद्दे पर विपक्ष का टूटना काफी कठिन लगता है।

असल परीक्षा तो अब राज्यसभा में है। हालांकि क्षेत्रीय दलों ने इन बीमा, खान और कोयला अध्यादेशों के मामले पर कांग्रेस और वामदलों के रवैये के बाद यही कहा है कि वे मुद्दों को देखते हुए अपना मत रखेंगे। ऎसे में सरकार ने राज्यसभा में यदि सपा और बसपा को अपने पक्ष में कर लिया तो उसका काम बन जाएगा। वरना, सरकार के पास संयुक्त संसदीय बैठक बुलाने के अलावा कोई चारा नहीं है, इसके लिए इस अध्यादेश को राज्यसभा से खारिज कराना जरूरी होगा। जहां सरकार के पास बहुमत नहीं है।

नीरजा चौधरी, वरिष्ठ पत्रकार


संयुक्त बैठक हो सकती हैं, बशर्ते..
संविधान के अनुच्छेद 123 के तहत संसद की संयुक्त बैठक तब बुलाई जा सकती है जबकि एक सदन किसी विधेयक या अध्यादेश को छह महीने तक पारित ही ना करे। इसके अलावा दूसरी शर्त यह है कि किसी एक सदन में विधेयक के पारित होने के बाद दूसरा सदन उसमें कुछ संशोधन कर दे, यानी दोनों सदनों के बीच मतभिन्नता उभर आए।

इस मतभिन्नता में अन्य सदन का संशोधन के साथ विधेयक या अध्यादेश को पारित करना या फिर खारिज करना, दोनों ही शामिल होते हैं। कई बार ऎसा भी होता है कि कोई सदन अध्यादेश को समिति को सौंपकर लटका सकता है लेकिन इस परिस्थिति में भी अध्यादेश या विधेयक छह महीने से अधिक समय तक लटकाया नहीं जा सकता। यदि ऎसा होता है तो विधेयक या अध्यादेश खुद ब खुद निरस्त हो जाता है। आमतौर पर इस स्थिति से बचने के लिए दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाई जाती है।


अध्यादेश के संदर्भ में बात करें तो एक सदन से मतभिन्नता के बाद इसे संयुक्त बैठक में पारित करवाया जाना जरूरी होता है क्योंकि इसको पारित करवाने की समय सीमा महत्वपूर्ण होती है। अध्यादेश पर जिस दिन राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होते हैं, इसे लागू मान लिया जाता है लेकिन इसकी प्रकृति अस्थायी कानून की तरह होती है। इसका अर्थ यह है कि यह कानून तो है लेकिन संसद के दोनों सदनों में इसे विधेयक के तौर पर पारित करवाना जरूरी होता है।

चूंकि संसद के दो सत्रों के बीच अधिकतम छह माह का अंतर हो सकता है इसलिए अध्यादेश की अधिकतम समय सीमा छह माह की मानी गई है। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि संसद सत्र की शुरूआत के छह सप्ताह के भीतर ही इसे पारित भी करवाना होता है इसलिए इसकी न्यूनतम समय सीमा छह सप्ताह की मानी जाती है। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि सरकार पर इस तरह की कोई पाबंदी भी नहीं है कि वह एक ही अध्यादेश को फिर से ना ला सके। ऎसा करने पर उसे फिर से नई कवायद करनी होती है। सरकार को फिर अगले छह महीने के भीतर नए अध्यादेश को दोनों सदनों में पारित करवाना पड़ेगा।

सुभाष कश्यप, संविधान विशेषज्ञ
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