अपनों को रेवडियां बांटने की चाहत ने देश का बंटाधार
करके रख दिया है। जो भी सरकार आती है चहेतों को उपकृत करने में जुट जाती है। ये
सोचे-समझे बिना कि जिन खासमखास को वो किसी जिम्मेदारी से नवाज रही है, वो इसके लायक
हैं भी या नहीं। केन्द्र में ज्यादातर कांग्रेस का शासन रहा और विभिन्न आयोगों,
निगमों और संस्थानों में अपनों की नियुक्तियां होती रहीं। भाजपा समेत तत्कालीन
विपक्षी दल हल्ला मचाते रहे। अब भाजपा खुद सत्ता में आई तो वही सब करने लगी, जिसका
आज तक विरोध करती आ रही थी।
केन्द्र में सरकार भले बदल गई हो लेकिन वह परिपाटी नहीं
बदली जिसने संस्थाओं का ऎसा राजनीतिकरण कर दिया है जिससे ये संस्थाएं राजनीतिक
अखाड़े में तब्दील होती जा रही है। ताजा विवाद फिल्म उद्योग से जुड़ा है। फिल्म
एण्ड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के नए अध्यक्ष गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति के
खिलाफ छात्रों के प्रदर्शन को 50 दिन पूरे होने के बाद भी कोई सुनवाई नहीं होना
आश्चर्यजनक है।
वे चौहान को हटाने पर आमादा हैं तो सरकार उनकी बात सुनना ही नहीं
चाहती। अपनी मांगों को लेकर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वाले किसी भी संगठन की बात
सुनने का समर्थन करने वाली भाजपा सत्ता में आने के बाद अपनी सोच से हट क्यों रही
है? चौहान की नियुक्ति इसीलिए हुई है कि वे संघ के नजदीक हैं। 27 वष्ाü पूर्व
महाभारत धारावाहिक में निभाई एक भूमिका के अलावा चौहान की उपलब्घि के बारे में शायद
ही कोई कुछ जानता हो।
पचपन वष्ाü पहले स्थापित फिल्म इंस्टीट्यूट देश के प्रतिष्ठित
संस्थानों में है और इसने देश के फिल्म उद्योग को कई नामी कलाकार दिए हैं। ऎसे
संस्थान में फिल्म उद्योग से जुड़े ऎसे शख्स को ही अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए जिस पर
कोई विवाद ना हो। बेहतर तो ये होता कि ऎसे संस्थानों में मुखिया का चयन सरकार के
स्तर पर होने की बजाय विशेषज्ञों
की समिति करे। समिति में शामिल सदस्य फिल्म और
टेलीविजन क्षेत्र के ऎसे स्थापित कलाकार हो सकते हैं जिनकी क्षमता पर कोई अंगुली न
उठा सके।
ऎसे संस्थानों में अध्यक्षों की नियुक्ति का सीधा-सा अर्थ इनकी गुणवत्ता
में सुधार लाना होता है लेकिन अध्यक्ष की नियुक्ति ही विवादों के झमेले में पड़ जाए
तो बेहतर परिणाम की उम्मीद कैसे की जा सकती है? पुणे के फिल्म इंस्टीट्यूट में चल
रही छात्रों की हड़ताल को प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाने की बजाय गतिरोध समाप्त करने के
लिए सरकार को पहल करनी होगी। हड़ताल जैसे गतिरोध को समाप्त करने का सबसे बेहतर
विकल्प बातचीत ही होता है।